राजनीति में जो नजर आता है, जरूरी नहीं कि हकीकत में भी वह वैसा ही हो. उसके अलग रूप होते/हो सकते हैं.
उत्तर प्रदेश से देश का सबसे बड़ा राज्य है. भला कौन इनकार करेगा कि यूपी के विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल की तरह नहीं हैं. यूपी के आगामी नतीजे ना सिर्फ अगले लोकसभा की तस्वीर साफ़ करेंगे बल्कि अन्य राज्यों में भी राजनीति किस दिशा में बढ़ेगी- उसके मुद्दे तय करेंगे. स्वाभाविक है कि बड़े चुनाव में उतरने से पहले हर सिपहसालार खुद की ताकत आंक रहा है. रणनीतियां बना रहा है. और नए संगी-साथी जोड़ रहा है. जातीय राजनीति के पेंच में उलझे उत्तर प्रदेश में गठबंधन सच्चाई है जिसे एक अकेले मायावती को छोड़कर कोई नकारने की हिम्मत नहीं कर सकता. मायावती को शायद भरोसा है कि त्रिकोण लड़ाई की सूरत में दलित मतों के सहारे "एकला चलो" की उनकी रणनीति कारगर हो सकती है.
हालांकि उनके सामने आजाद समाज पार्टी चीफ चंद्रशेखर आजाद ने दलित मतों पर दावेदारी ठोकी है. आजाद को लग रहा है कि वे अब सियासी कमाल दिखाने की स्थिति में हैं. पूरी तैयारी से चुनावी राजनीति में कूदते दिख रहे हैं. समान विचारधारा वाले दलों से गठबंधन भी करने को तैयार हैं. समाजवादी पार्टी चीफ अखिलेश यादव से उनकी मुलाक़ात के बाद चर्चाओं का बाजार गर्म है. क्या आजाद और अखिलेश गठबंधन करेंगे? आजाद और अखिलेश दोनों को गठबंधन के बाद अलग-अलग क्या मिलेगा? चुनाव में गठबंधन का कितना असर रहेगा और एक बड़ा सवाल यह भी कि आजाद-अखिलेश की दोस्ती से मायावती को क्या फर्क पड़ने वाला है?
यूपी चुनाव में इस सच्चाई को सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुकाबले में एक ध्रुव पर अकले बीजेपी सहयोगियों के साथ है. बाकी के दल दूसरे ध्रुव हैं. बीजेपी के सामने वाले ध्रुव पर एक दो नहीं करीब-करीब चार से पांच मोर्चे हैं. स्वाभाविक है कि मोर्चे बीजेपी को कमजोर करने की बजाय और मजबूत ही बनाते नजर आ रहे हैं. बीजेपी के खिलाफ तीन बड़े और अलग-अलग मोर्चों पर सपा उसके सहयोगी, कांग्रेस और बसपा खड़ी है. चौथे मोर्चे पर...
राजनीति में जो नजर आता है, जरूरी नहीं कि हकीकत में भी वह वैसा ही हो. उसके अलग रूप होते/हो सकते हैं.
उत्तर प्रदेश से देश का सबसे बड़ा राज्य है. भला कौन इनकार करेगा कि यूपी के विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल की तरह नहीं हैं. यूपी के आगामी नतीजे ना सिर्फ अगले लोकसभा की तस्वीर साफ़ करेंगे बल्कि अन्य राज्यों में भी राजनीति किस दिशा में बढ़ेगी- उसके मुद्दे तय करेंगे. स्वाभाविक है कि बड़े चुनाव में उतरने से पहले हर सिपहसालार खुद की ताकत आंक रहा है. रणनीतियां बना रहा है. और नए संगी-साथी जोड़ रहा है. जातीय राजनीति के पेंच में उलझे उत्तर प्रदेश में गठबंधन सच्चाई है जिसे एक अकेले मायावती को छोड़कर कोई नकारने की हिम्मत नहीं कर सकता. मायावती को शायद भरोसा है कि त्रिकोण लड़ाई की सूरत में दलित मतों के सहारे "एकला चलो" की उनकी रणनीति कारगर हो सकती है.
हालांकि उनके सामने आजाद समाज पार्टी चीफ चंद्रशेखर आजाद ने दलित मतों पर दावेदारी ठोकी है. आजाद को लग रहा है कि वे अब सियासी कमाल दिखाने की स्थिति में हैं. पूरी तैयारी से चुनावी राजनीति में कूदते दिख रहे हैं. समान विचारधारा वाले दलों से गठबंधन भी करने को तैयार हैं. समाजवादी पार्टी चीफ अखिलेश यादव से उनकी मुलाक़ात के बाद चर्चाओं का बाजार गर्म है. क्या आजाद और अखिलेश गठबंधन करेंगे? आजाद और अखिलेश दोनों को गठबंधन के बाद अलग-अलग क्या मिलेगा? चुनाव में गठबंधन का कितना असर रहेगा और एक बड़ा सवाल यह भी कि आजाद-अखिलेश की दोस्ती से मायावती को क्या फर्क पड़ने वाला है?
यूपी चुनाव में इस सच्चाई को सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुकाबले में एक ध्रुव पर अकले बीजेपी सहयोगियों के साथ है. बाकी के दल दूसरे ध्रुव हैं. बीजेपी के सामने वाले ध्रुव पर एक दो नहीं करीब-करीब चार से पांच मोर्चे हैं. स्वाभाविक है कि मोर्चे बीजेपी को कमजोर करने की बजाय और मजबूत ही बनाते नजर आ रहे हैं. बीजेपी के खिलाफ तीन बड़े और अलग-अलग मोर्चों पर सपा उसके सहयोगी, कांग्रेस और बसपा खड़ी है. चौथे मोर्चे पर असदुद्दीन ओवैसी सहयोगियों को लेकर डट सकते हैं. अब जिन्हें लग रहा कि अखिलेश यादव यूपी में पश्चिम बंगाल दोहरा सकते हैं- वे भूल रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी के हार की पटकथा बिल्कुल अलग है. यूपी के हालात से बंगाल की तुलना की ही नहीं जा सकती.
गठबंधन अखिलेश यादव की भी मजबूरी, मगर उससे हासिल क्या होगा?
यहां ना तो कोरोना महामारी मुद्दा है और ना ही महंगाई. यहां ध्रुवीकरण बंगाल की तरह नहीं है. सबसे बड़ी बात यह कि अखिलेश यादव या विपक्ष की अकर्मण्यता की वजह से धार्मिक राजनीति से अलग मुद्दे ही खड़े नहीं हो पाए. ममता बनर्जी ने जिस तरह नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोला- यूपी में विपक्ष का कोई नेता वैसा करता नहीं दिखा है. और ऐसा भी नहीं है कि मुद्दे नहीं थे. नागरिकता क़ानून पर मुस्लिमों के एक वर्ग में विरोध था, महंगाई बड़ा मुद्दा थी, किसान आंदोलन भी था- मगर जब अखिलेश और उनकी पार्टी मशीनरी घर में बैठी थी तब इन मुद्दों पर प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में कांग्रेस ने आगे बढ़कर सड़क पर मोर्चा खोला. किसान आंदोलन के पीछे भी बड़ा चेहरा रालोद और कांग्रेस का ही दिखा. हालांकि यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वह ऐसी स्थिति में नहीं कि चीजों का फायदा उठा सकें. और अब अखिलेश या मायावती की मजबूरी यह है कि वे बीजेपी के खिलाफ जनता से जुड़े बड़े मुद्दों को क्लेम भी नहीं कर सकते. अखिलेश अगर क्लेम करने आते हैं तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा.
गठबंधन भाजपा और सपा की मजबूरी है. जातीय राजनीति पर टिकी यूपी की सियासत में अखिलेश का अकेले चुनाव में उतरना नुकसानदायक है. पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण अखिलेश को हर दिशा में छोटे-छोटे साझीदार चाहिए. अखिलेश का आधार पिछड़ी जातियों में है लेकिन फिलहाल इतना भी मजबूत नहीं कि इससे उनका काम बन जाए. उन्हें और जातीय सहयोगियों की जरूरत है. खासकर अनुसूचित जाति के. इस समाज में अखिलेश की पहुंच लगभग शून्य है. इसकी भरपाई के लिए अखिलेश, चंद्रशेखर आजाद का साथ ले सकते हैं. हालांकि इस साथ के भी अपने फायदे या नुकसान हैं जो वक्त के साथ तय होंगे.
चंद्रशेखर की सियासी हैसियत क्या है?
चंद्रशेखर की अपील बड़ी नजर आती है जबकि सच्चाई इसके उलट है. यूपी के तमाम विधानसभा क्षेत्रों में आजाद समाज पार्टी की इकाइयां गठित हैं. पर उनके पास कार्यकर्ताओं का मजबूत काडर नहीं है. बूथ तक मजबूत नेटवर्क नहीं है. कम से कम इनकी मौजूदगी फिलहाल ऐसी तो बिल्कुल नहीं कि दलित मतदाता मायावती की बजाय चंद्रशेखर के नेतृत्व पर भरोसा करें. यहां तक कि पश्चिम में जहां चंद्रशेखर बहुत मजबूत नजर आते हैं- वहां भी सांगठनिक नेटवर्क गहरा नहीं कहा जा सकता. कुल मिलाकर समूचे उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर का वजूद ऐसा बिल्कुल नहीं कि वे मायावती से दलितों को छीनकर अखिलेश तक ले जा पाएं?
चंद्रशेखर की महत्वाकांक्षा बड़ी है. चंद्रशेखर समूचे उत्तर प्रदेश पर दावा करते हैं और अगर गठबंधन करेंगे तो बदले में बड़ा हिस्सा मांगेंगे जिसे देना शायद ही अखिलेश के लिए संभव हो. पूर्व और मध्य उत्तर प्रदेश में आजाद असर डालने की स्थिति में नहीं हैं. आजाद की मांग पश्चिम में केंद्रित होगी. अगर पश्चिम में राष्ट्रीय लोक दल और आजाद समाज पार्टी को अखिलेश सबकुछ दे देंगे तो खुद उनके पास क्या बचेगा यह सवाल है? रालोद के साथ सपा का बंटवारा भी अभी साफ़ होना है.
सबसे बड़ा सवाल यही बना रहेगा कि आजाद की पार्टी क्या इस हालत में है कि बड़े असर डाल सके. आखिर वे दलितों का मत ट्रांसफार कैसे करा पाएंगे? मायावती-अखिलेश के गठबंधन में भी नेताओं के दिल तो मिलते दिखे मगर जमीन पर आम जनता के दिल मिल ही नहीं पाए. "यादव" वर्चस्व के खिलाफ यूपी की सियासी जमीन पर जो नैरेटिव फिलहाल है उसमें तो दलितों का वोट सपा को ट्रांसफर होता नहीं दिख रहा. यह लगभग असंभव है. आजाद का गठबंधन करना असल में उनके लिए सबसे ज्यादा निजी नुकसान साबित हो सकता है. सवर्णों की तरह यादव वर्चस्व के खिलाफ दलित मतदाताओं में जो विचार है वह आधी अधूरी तैयारी में फौरी लाभ पीटने की कोशिश में लगे आजाद के राजनीतिक भविष्य पर चोट पहुंचा सकता है. मायावती को मिलेगी बड़े सिरदर्द से मुक्ति
यानी मायावती को बिना कुछ किए धरे एक सिरदर्द से मुक्ति मिलेगी और सीधे-सीधे फायदा पहुंचेगा. सीमित इलाकों में मायावती को थोड़ा-बहुत नुकसान पहुंचाते दिख रहे आजाद का सपा के साथ गठबंधन बसपा चीफ के लिए वरदान साबित होगा. एक तरह से मायावती के नेतृत्व को मिल रही चुनौती ख़त्म हो जाएगी. चंद्रशेखर का अखिलेश के साथ जाना स्वतंत्र दलित राजनीति की पहचान खोने जैसा होगा. शायद ही उनके समाज का मतदात इस बात के लिए मन से तैयार हो. जबकि मायवती की पहचान ही है कि उन्होंने चाहे जिसके साथ गठबंधन किया हो, हमेशा अपनी शर्तों पर चली हैं. उन्होंने समझौते में कम से कम अपनी राजनीति का कभी नुकसान नहीं किया.ऐसा गठबंधन बनता है तो मायावती दलितों में जो आंशिक विरोध झेल रही हैं वह खुद ब खुद ख़त्म हो जाएगा. जिस समाज ने कई मर्तबा अपने बूते अपना मुख्यमंत्री दिया हो, भला वो सक्षम समाज क्यों दूसरी जाति के नेतृत्व में जाना पसंद करेगा? वो भी मामूली सीटों के बदले.
जहां तक बात अखिलेश की है- जब मायावती के साथ वे कुछ बड़ा नहीं हासिल पाए तो भला चंद्रशेखर उनके किस काम आएंगे? समाजवादी पार्टी का ज्यादा से ज्यादा दलों के साथ गठबंधन करने का मतलब है अपनी हिस्सेदारी कम करना. राजनीति में यह दोतरफा नुकसान की तरह है. सीटें साझा करनी पड़ती हैं और वोट ट्रांसफर नहीं होने पर उन्हें गंवाना भी पड़ता है. ऐसी स्थिति में यह गठबंधन भाजपा के लिए भी फायदेमंद दिख रहा है.
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