गुजरात चुनाव की तारीखों को लेकर सस्पेंस आखिरकार खत्म हो गया. वैसे इस पर विचार विमर्श में चुनाव आयोग को 13 दिन लग गये. 12 अक्टूबर को चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव की तारीखें घोषित की थीं. अब ये भी बता दिया कि गुजरात में 9 और 14 दिसंबर को चुनाव होंगे. बस एक ही बात पुरानी रही, गुजरात विधानसभा के लिए वोटों की गिनती की कोई नयी तारीख नहीं होगी - 18 दिसंबर को ही दोनों ही विधानसभा चुनावों के लिए काउंटिंग एक साथ होगी.
चुनाव आयोग को गुजरात चुनाव की तारीखों को लेकर सफाई भी देनी पड़ी, लेकिन किसी के गले नहीं उतरी. नतीजा ये हुआ कि चुनाव आयोग खुद सवालों के घेरे में खड़ा हो गया. बचा खुचा शक शुबहा तब और भी गहरा नजर आने लगा जब गुजरात की बीजेपी सरकार ने ताबड़तोड़ घोषणाएं कर डालीं.
आयोग पर सवाल क्यों
चुनाव आयोग की साख तो अगस्त में ही दांव पर लगी थी. तब राज्य सभा चुनाव में एक वोट पर विवाद पैदा हो गया था. कांग्रेस उस वोट को रद्द करने की मांग पर अड़ी थी. बीजेपी मामले को रफा दफा कराने के लिए दबाव बना रही थी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्रियों का दल दो दो बार चुनाव आयोग के दफ्तर पर धावा बोला. कांग्रेस के भी बड़े नेता फौरन दौड़े और डेरा डाल दिये. अमित शाह और सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल आर पार की ही लड़ाई लड़ रहे थे. फैसला चुनाव आयोग को करना था.
मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार ज्योति का गुजरात कैडर का आईएएस होना और सरकार में मुख्य सचिव रहना शक करने वालों के पक्ष में जा रहा था. मगर, सारी आशंकाएं चुनाव आयोग के निष्पक्ष फैसले के साथ ही निर्मूल साबित हुईं. चुनाव आयोग ने बीजेपी का दबाव दरकिनार करते हुए अपना फैसला सुनाया. ये फैसला...
गुजरात चुनाव की तारीखों को लेकर सस्पेंस आखिरकार खत्म हो गया. वैसे इस पर विचार विमर्श में चुनाव आयोग को 13 दिन लग गये. 12 अक्टूबर को चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव की तारीखें घोषित की थीं. अब ये भी बता दिया कि गुजरात में 9 और 14 दिसंबर को चुनाव होंगे. बस एक ही बात पुरानी रही, गुजरात विधानसभा के लिए वोटों की गिनती की कोई नयी तारीख नहीं होगी - 18 दिसंबर को ही दोनों ही विधानसभा चुनावों के लिए काउंटिंग एक साथ होगी.
चुनाव आयोग को गुजरात चुनाव की तारीखों को लेकर सफाई भी देनी पड़ी, लेकिन किसी के गले नहीं उतरी. नतीजा ये हुआ कि चुनाव आयोग खुद सवालों के घेरे में खड़ा हो गया. बचा खुचा शक शुबहा तब और भी गहरा नजर आने लगा जब गुजरात की बीजेपी सरकार ने ताबड़तोड़ घोषणाएं कर डालीं.
आयोग पर सवाल क्यों
चुनाव आयोग की साख तो अगस्त में ही दांव पर लगी थी. तब राज्य सभा चुनाव में एक वोट पर विवाद पैदा हो गया था. कांग्रेस उस वोट को रद्द करने की मांग पर अड़ी थी. बीजेपी मामले को रफा दफा कराने के लिए दबाव बना रही थी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्रियों का दल दो दो बार चुनाव आयोग के दफ्तर पर धावा बोला. कांग्रेस के भी बड़े नेता फौरन दौड़े और डेरा डाल दिये. अमित शाह और सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल आर पार की ही लड़ाई लड़ रहे थे. फैसला चुनाव आयोग को करना था.
मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार ज्योति का गुजरात कैडर का आईएएस होना और सरकार में मुख्य सचिव रहना शक करने वालों के पक्ष में जा रहा था. मगर, सारी आशंकाएं चुनाव आयोग के निष्पक्ष फैसले के साथ ही निर्मूल साबित हुईं. चुनाव आयोग ने बीजेपी का दबाव दरकिनार करते हुए अपना फैसला सुनाया. ये फैसला कांग्रेस के पक्ष में गया और अहमद पटेल को जीत हासिल हुई. चुनाव आयोग ने न सिर्फ अपनी साख पर बट्टा लगने से खुद को बचाया, बल्कि इस बात का अहसास भी कराया कि टीएन शेषन की तरह याद किये जाने
वाले अफसर और भी हैं. ज्यादा दिन नहीं लगे. 12 अक्टूबर को जब चुनाव आयोग तारीखों की घोषणा करने वाला था तो उम्मीद की जा रही थी कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तारीखें साथ ही घोषित की जाएंगी. मगर ऐसा नहीं हुआ और यही सवाल खड़े करने का आधार भी बना.
विपक्ष ने चुनाव आयोग के इस फैसले पर सवाल उठाये. आरोप लगाया कि आयोग ने बीजेपी सरकार को मौका मुहैया कराया है. कांग्रेस के एक नेता तो कोर्ट भी चले गये और दूसरे ने तो यहां तक कहा कि अब मोदी ही ये काम भी करेंगे. गुजरात की बीजेपी सरकार ने भी बगैर किसी बात की परवाह किये ताबड़तोड़ तमाम घोषणाएं भी कर डालीं. फिर किसी को कैसे लगे कि विपक्ष तो यूं ही राजनीतिक दुश्मनी निकालता रहता है.
एक रिपोर्ट के अनुसार 12 अक्टूबर से लेकर 25 अक्टूबर को चुनाव की घोषणा होने तक महज 13 दिन के भीतर विजय रुपानी सरकार ने करीब 11 हजार करोड़ के प्रोजेक्ट की घोषणा कर डाली है. इतना ही नहीं पाटीदार आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के खिलाफ दर्ज तीन सौ से ज्यादा मामले भी वापस ले लिये गये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार की तरफ से जो सौगातें बख्शीं वो तो हैं ही.
सवाल बड़ा अजीब है, लेकिन वाजिब भी लगता है - आखिर दो महीने बीतते बीतते चुनाव आयोग के वे तेवर बदल गये से क्यों लगते हैं?
बेदम दलीलें
आयोग ने दलील दी कि गुजरात और हिमाचल की भौगोलिक स्थिति और मौसम अलहदा हैं इसलिए साथ चुनाव कराने का मतलब नहीं बनता. सवाल पर सवाल उठा कि गोवा और मणिपुर के बीच भी तो ऐसा ही कुदरती रिश्ता है, फिर वहां एक साथ चुनाव क्यों हुए. कांग्रेस नेता मैदान में आये और कहा कि 2002 को छोड़ दिया जाये तो गुजरात और हिमाचल के चुनाव अक्सर साथ होते आये हैं. कांग्रेस नेताओं ने इसके लिए 1998, 2007 और 2012 के उदाहरण भी दिये.
चुनाव आयोग ने ऐसे सारे इल्जाम खारिज कर दिये और दलील पेश की कि उसे बाढ़ और बर्फबारी के चलते ऐसे फैसले लेने पड़े. चुनाव आयोग ने ही बताया कि बाढ़ के बाद राहत के कामों के चलते उसने गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों की घोषणा नहीं की - और हिमाचल प्रदेश के तीन जिलों किन्नौर, लाहौल स्पीति और चंबा में संभावित बर्फबारी के चलते चुनाव जल्दी कराने का फैसला किया गया. तर्क ये कि बाढ़ राहत के काम में लगे कर्मचारियों को ही चुनाव कराना है और बर्फबारी होने पर वोटर घर से निकल नहीं पाते.
चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है. मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संवैधानिक पद है जिसे सरकार बगैर महाभियोग लाये हटा भी नहीं सकती. 90 के दशक में टीएन शेषन ने अपनी कार्यशैली और प्रशासानिक दक्षता से साबित किया कि चुनाव आयोग खुद पर आ जाये तो सब कुछ सही हो सकता है. ये वही समय था जब आयोग की औकात क्या होती है ये आम आदमी भी जानने जानने और समझने लगा. राज्य सभा चुनाव में उसकी एक झलक मिली भी थी लेकिन अब विश्वास कमजोर पड़ने लगा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने का किसी को हक नहीं है. सही कह रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी. मगर, सवाल पर सवाल उठना भी लाजिमी है. ये ठीक है कि बात तब की है जब यही मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. चुनावी रैलियों में तब के चुनाव आयुक्त का पूरा नाम ले लेकर माखौल उड़ाते थे. बताते थे कि जेम्स माइकल लिंगदोह एक क्रिश्चियन हैं - और वो दूसरे क्रिश्चियन की मदद करना चाहते हैं. दूसरे क्रिश्चियन से आशय सोनिया गांधी से ही रहा. हालांकि, लिंगदोह ने ऐसी बातों को ओछी टिप्पणी करार दिया था. कहा था - कुछ लोगों के लिए नास्तिक होने की बात भी समझ से परे है.
विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद राजनीतिक दलों ने EVM पर सवाल उठाये थे. सवाल उठाने वालों में मायावती और अखिलेश यादव के अलावा अरविंद केजरीवाल भी रहे. केजरीवाल की पार्टी के सौरभ भारद्वाज ने तो भरी विधानसभा में एक डेमो भी दिया कि EVM को कैसे हैक किया जा सकता है. उससे पहले बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुब्रह्मण्यन स्वामी भी EVM की विश्वसनीयता पर सवाल उठा चुके थे. EVM से चुनाव निष्पक्ष न होने को लेकर आयोग को कोर्ट कचहरी के चक्कर तक लगाने पड़े थे.
फिर चुनाव आयोग ने अग्नि परीक्षा देने का फैसला किया. आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को खुली चुनौती दी कि मैदान में आयें और हैक करके दिखायें. सभी भाग खड़े हुए. एक दो मौके पर पहुंचे भी तो बताया जैसे मेला देखने पहुंचे थे. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनाव कराने वाले चुनाव आयोग पर एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं - काश आयोग एक बार फिर EVM की तरह ही अग्निपरीक्षा में फिर से पाक साफ होकर निकल जाता. लोकतंत्र की खुशी के लिए वो सबसे बड़ा दिन होता.
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