अटल बिहारी वाजपेयी की खाली जगह भरना तो नामुमकिन है, लेकिन किसी न किसी को तो वो साहस और दुस्साहस दिखाना ही होगा. पोखरण परीक्षण के जरिये वाजपेयी ने दुनिया को राजनीतक साहस दिखाया तो कुआंरेपन और ब्रह्मचारी होने का फर्क समझा कर समाज में नैतिक दुस्साहस की मिसाल पेश की. ये वाजपेयी की हिम्मत ही रही कि लोगों ने पर्दा और पारदर्शिता को खुले रूप में स्वीकार किया- और कभी किसी ने मन में भी उंगली उठाने की नहीं सोची. अपवाद तो संसार का उसूल है, उनका क्या करना और कहना. राष्ट्रवाद के नाम पर निशानेबाजी का खेल और प्यार के नाम पर आंखों के खेल से कुछ नहीं हासिल होने वाला - किसी न किसी को तो आगे चल कर वाजपेयी जैसा बनना ही पड़ेगा, तभी असल मायने में अच्छे दिन आएंगे.
सरहदों के पार और परे
अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले विदेश मंत्रालय संभाल चुके थे - और बतौर विदेश मंत्री उनकी यात्राएं ऐतिहासिक रहीं. संयुक्त राष्ट्र में तो भारत के साथ साथ वाजपेयी ने हिंदी का डंका भी जोर जोर से पीटा. हिंदी से दूर दूर तक का नाता नहीं रखनेवाले दुनियाभर के नेता भी मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. ये कूटनीतिक मामलों की वाजपेयी की गहरी सूझबूझ ही रही कि नरसिम्हा राव ने उन्हें भारत की ओर से जेनेवा भेजा.
प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी वाजपेयी पुराने अनुभव उनके काम आये. ये उनका कूटनीतिक-प्रशासनिक अनुभव ही रहा जो पाकिस्तान के साथ क्रिकेट की तरह फ्रंटफुट पर बढ़ कर कूटनीतिक शॉट खेलते रहे. अगर ऐसा न होता तो क्या लाहौर बस यात्रा के बदले मिले कारगिल के धोखे के बावजूद आगरा वार्ता के लिए फौजी पाक हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ को दोबारा मौका देते.
बीजेपी और संघ के विरुद्ध हमेशा...
अटल बिहारी वाजपेयी की खाली जगह भरना तो नामुमकिन है, लेकिन किसी न किसी को तो वो साहस और दुस्साहस दिखाना ही होगा. पोखरण परीक्षण के जरिये वाजपेयी ने दुनिया को राजनीतक साहस दिखाया तो कुआंरेपन और ब्रह्मचारी होने का फर्क समझा कर समाज में नैतिक दुस्साहस की मिसाल पेश की. ये वाजपेयी की हिम्मत ही रही कि लोगों ने पर्दा और पारदर्शिता को खुले रूप में स्वीकार किया- और कभी किसी ने मन में भी उंगली उठाने की नहीं सोची. अपवाद तो संसार का उसूल है, उनका क्या करना और कहना. राष्ट्रवाद के नाम पर निशानेबाजी का खेल और प्यार के नाम पर आंखों के खेल से कुछ नहीं हासिल होने वाला - किसी न किसी को तो आगे चल कर वाजपेयी जैसा बनना ही पड़ेगा, तभी असल मायने में अच्छे दिन आएंगे.
सरहदों के पार और परे
अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले विदेश मंत्रालय संभाल चुके थे - और बतौर विदेश मंत्री उनकी यात्राएं ऐतिहासिक रहीं. संयुक्त राष्ट्र में तो भारत के साथ साथ वाजपेयी ने हिंदी का डंका भी जोर जोर से पीटा. हिंदी से दूर दूर तक का नाता नहीं रखनेवाले दुनियाभर के नेता भी मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. ये कूटनीतिक मामलों की वाजपेयी की गहरी सूझबूझ ही रही कि नरसिम्हा राव ने उन्हें भारत की ओर से जेनेवा भेजा.
प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी वाजपेयी पुराने अनुभव उनके काम आये. ये उनका कूटनीतिक-प्रशासनिक अनुभव ही रहा जो पाकिस्तान के साथ क्रिकेट की तरह फ्रंटफुट पर बढ़ कर कूटनीतिक शॉट खेलते रहे. अगर ऐसा न होता तो क्या लाहौर बस यात्रा के बदले मिले कारगिल के धोखे के बावजूद आगरा वार्ता के लिए फौजी पाक हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ को दोबारा मौका देते.
बीजेपी और संघ के विरुद्ध हमेशा सख्त रूख रखने वाले शशि थरूर एक कॉलम में लिखते हैं, "विचलित हुए बगैर वाजपेयी ने नये सैन्य शासक जनरल मुशर्रफ को 2001 आगरा में चर्चा के लिए आमंत्रित किया... संसद पर हुए हमले के बाद जब वो प्रयास नाकाम रहा तो भी 2003-2004 में उन्होंने अंतिम राजनयिक प्रयास किये."
वाजपेयी के विरोध को लेकर जाने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व थिंक टैंक केएन गोविंदाचार्य भी तकरीबन यही विचार रखते हैं, "संघर्ष की बजाय संवाद की राजनीति में अधिक सफलता मिलती है, ऐसा उनका अनुभव था. इसलिए मुशर्रफ को भी बुलाकर बातचीत की जाये यह निर्णय लेने में वे हिचके नहीं."
ये भी सही है कि बीच रास्ते से लाहौर जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नवाज शरीफ को बर्थडे विश करने के बावजूद पाकिस्तान का रवैया नहीं बदला है, लेकिन चिंता की बात ये है कि नेपाल और श्रीलंका तक भी भारत के प्रभावक्षेत्र से छिटकने लगे हैं. भूटान और बांग्लादेश का भी रूख कब तक कायम रहेगा कहना मुश्किल है. मोदी की सारी विदेश यात्राएं गिनाने के लिए तो अच्छी हैं, लेकिन उपलब्धि के हिसाब से योग को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के अलावा कहीं कुछ ठोस नहीं नजर आता.
आज भी जम्मू-कश्मीर के लोगों से कनेक्ट होने के लिए सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व वाजपेयी फॉर्मूले की ही दुहाई देता है- जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत. 2019 अब ज्यादा दूर नहीं है. जनता की अदालत जो भी फैसला सुनाये, प्रधानमंत्री की कुर्सी बैठने वाले शख्स को वाजपेयी जैसा उदार, उद्दात और व्यापक सोच के साथ समभाव सुनिश्चित करना होगा.
ज्यादा दूर नहीं 2019
कौन आएगा कौन जाएगा, फिलहाल किसे पता. हालांकि, अब तक यही माना जा रहा है कि मोदी सरकार दोबारा सत्ता में लौटने वाली है. सर्वे भी यही संकेत देते हैं और विपक्ष की हरकतें भी. विपक्ष हुंआ-हुंआ कितना भी करे, तय ही नहीं हो पा रहा कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा. हाल कुछ कुछ वैसा ही है जैसा 2004 में एनडीए की हार के पांच साल बाद भी 2009 में आडवाणी कोई कमाल नहीं दिखा पाये और यूपीए को यूं ही वॉक ओवर मिल गया.
वैसे भी मोदी ने अपने लिए दो ही टर्म मांगा था, फिर तो सवाल खड़ा होगा कि मोदी के बाद कौन होगा? मोदी ने देश से 10 साल मांगा था और अमित शाह बीजेपी के स्वर्णिम काल के नाम पर 25 से 50 साल तक मांगते रहे हैं. शायद यही वजह है कि राजनीति के कुछ जानकार मोदी के बाद अमित शाह का चेहरा देखने लगे हैं. वैसे भी शाह खास मिशन के तहत संसद पहुंच कर अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने लगे हैं. विपक्ष कड़ा विरोध इस बात की तस्दीक करता है.
बात सिर्फ अभी की नहीं, 2019 से आगे तक की है. अगर वास्तव में भारत को सुपर पावर बनाना है तो मन से सबका साथ, सबका विकास के सिद्धांत पर अटल रहना होगा. शासन की शर्तें इस तरीके से लागू करनी होंगी कि न तो किसी खास समुदाय के तुष्टिकरण की जरूरत पड़े और न ही श्मशान और कब्रिस्तान में फर्क समझाने की. नाम कुछ भी क्यों न हो नेतृत्व को राजनीति का 'वाजपेयी' बनना ही होगा - क्योंकि देश हित में बस और बस यही रास्ता बचा है.
राजधर्म की रस्म भी खुद ही निभानी होगी
अपनी जगह अपनी धारणा और सोच के हिसाब से हर कोई सही होता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वो सर्वमान्य हो ही. यहां तक कि वाजपेयी द्वारा राजधर्म का सबक साथ में बैठ कर सरेआम सिखाने के बावजूद मोदी का दावा था - वही तो निभा रहा हूं. मालूम नहीं 'गाड़ी के नीचे पिल्ला...' वाले उद्गार में भाव पश्चाताप के रहे या किसी तरह गर्वानुभूति का इजहार?
अगर 2002 के गुजरात के लिए कोई किसी को मौत का सौदागर कहता है तो उसे 1984 में दिल्ली की हालत के खुद ही जुमला गढ़ लेना होगा. वरना कोई भी मिस्टर क्लीन बड़े पेड़ गिरने से धरती हिलती ही है समझाना चाहेगा तो भी उसमें 'गाड़ी के नीचे पिल्ला...' वाली गूंज ही सुनायी देगी. ये सच है कि वाजपेयी-आडवाणी वाली बीजेपी और मोदी-शाह की भारतीय जनता पार्टी में जमीन आसमान का फर्क बन चुका है, फिर भी अगर प्रधानमंत्री मोदी खुद को वाजपेयी का शिष्य जैसा बताते हैं तो कहीं न कहीं उसकी झलक भी मिल ही जाती है.
संसद के एक सत्र में रेणुका चौधरी के हंसने पर प्रधानमंत्री मोदी ने रामायण के पात्रों की ओर इशारा किया था जिसे लोगों ने शूर्पनखा के करीब पाया. अपने दौर में वाजपेयी ने भी कुछ ऐसी ही टिप्पणी की थी, लेकिन शब्द चयन इतना गूढ़ रहा कि पहली दफा तो किसी के पल्ले ही नहीं पड़ा. एक बार की बात है वाम दलों के कुछ सदस्य वाजपेयी की बात पर शोर मचा रहे थे. तब वाजपेयी ने उन्हें शाखामृग करार दिया था. सभी ने उसे मृग से जोड़ कर देखा क्योंकि किसी को उसका सही अर्थ पता न था. बाद में किसी ने समझाया कि शाखामृग तो बंदर को कहते हैं.
जब अयोध्या आंदोलन चरम पर था और कारसेवक अयोध्या जा रहे थे तो जो बात वाजपेयी ने कही थी उसे भी गौर किया जाना चाहिये. बकौल गोविंदाचार्य, वाजपेयी ने कहा था, "आप लोग अयोध्या जा रहे हैं, रावण की लंका में नहीं जा रहे हैं. इसलिए वहां शक्ति प्रदर्शन की बजाय भक्ति प्रदर्शन कीजिए."
हालांकि, तस्वीर का दूसरा पहलू भी काबिल-ए-गौर है - क्योंकि वाजपेयी खुद ही कई बार अपने प्रति बनी हुई धारणा का प्रतिकार कर बैठते हैं. दिसंबर 1993 में वाजपेयी का कहना था कि बाबरी मस्जिद ढहाया जाना उनके जीवन का दुखद दिन रहा. बाद में बोल दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर में पूजा करने का आदेश दिया था. पूजा करने के लिए जमीन को समतल करना जरूरी था.
बावजूद इन सबके वाजपेयी हरदम बेमिसाल रहे- 2022 में चंद्रमा पर बेटे बेटियों को तिरंगा थमा कर रवाना जो कोई भी करे हर हाल में उसे वाजपेयी जैसा बेमिसाल बनने की कोशिश करनी ही होगी. मॉब लिंचिंग पर मौन और सर्जिकल स्ट्राइक को खून की दलाली करार देने का खेल ज्यादा दिन नहीं चलने वाला - ये पब्लिक है, जो पहले से ज्यादा समझदार होती जा रही है. इसीलिए जरूरत है, जरूरत है... जरूरत है - देश को एक अदद 'वाजपेयी' की सख्त जरूरत है.
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