इंडिया टुडे कॉन्क्लेव ईस्ट 2022 (India Today Conclave East 2022) में पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता दिलीप घोष ने पैगंबर टिप्पणी विवाद पर एक अहम प्रतिक्रिया दी.दिलीप घोष ने कहा कि 'स्वतंत्रता से पहले जो कुछ हुआ, उस समय नुपुर शर्मा कहां थीं? नोआखली दंगे समेत अन्य दंगों में हजारों लोगों को मार दिया गया, वो नुपुर शर्मा की वजह से हुआ क्या? दरअसल, जिस विचारधारा से ये घटनाएं हो रही हैं, उसके खिलाफ बोलने में दुनिया डरती है. अगर नुपुर शर्मा ने गलत बोला है. और, आपके पास इसे गलत साबित करने के तर्क हैं. तो, टीवी चैनल से लेकर हर जगह उसे नकार दीजिए. लेकिन, ऐसा नही हो रहा है. क्योंकि, वो लोग जानते हैं कि नुपुर शर्मा ने सही बोला है. और, इसका विरोध करने पर आपके कपड़े उतर जाएंगे. इसलिए तर्क नहीं किया जाएगा और तलवार निकाली जाएगी. तर्क को कोई तलवार से खत्म नहीं कर सकता. ये जो घटनाएं (उदयपुर और अमरावती) कर रहे हैं, वो अपने अस्तित्व और तर्क से डरते हैं. नुपुर शर्मा सही बोलीं या गलत, चर्चा होनी चाहिए. लेकिन, ये हारे हुए लोग हैं, जो तलवार निकालते हैं.'
दो टूक बातों को समझने की जरूरत क्यों है?
भाजपा नेता दिलीप घोष ने नुपुर शर्मा के कथित विवादित बयान पर दो टूक बातों के जरिये मामले को स्पष्ट कर दिया है. दरअसल, पैगंबर टिप्पणी विवाद पर की गई हत्याओं को लिबरल और सेकुलर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अतीत की कुछ घटनाओं को उठाकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश करने में जुटा हुआ है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो उदयपुर और अमरावती जैसी घटनाओं को लिबरल और सेकुलर वर्ग के लोग ईशनिंदा में की गई हत्या की जगह आतंकी घटना के तौर पर पेश करने का प्रयास कर रहे हैं. और, ये कोशिश दिलीप घोष के उस कथन को स्पष्ट कर देती है कि जिस विचारधारा से इन घटनाओं को अंजाम दिया गया, लोग उसके बारे में बोलने से डरते हैं. हाल ही में मीना मनिमेकलाई की फिल्म काली का विवादित पोस्टर इसे समझने का एक बेहतरीन उदाहरण हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लिबरल और सेकुलर हिंदू धर्म को लेकर खूब टिप्पणियां करते हैं. लेकिन, इस्लाम समेत अन्य अब्राहमिक धर्म/पंथ/संप्रदाय का नाम आते ही, इन्हें अपनी गर्दनों की...
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव ईस्ट 2022 (India Today Conclave East 2022) में पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता दिलीप घोष ने पैगंबर टिप्पणी विवाद पर एक अहम प्रतिक्रिया दी.दिलीप घोष ने कहा कि 'स्वतंत्रता से पहले जो कुछ हुआ, उस समय नुपुर शर्मा कहां थीं? नोआखली दंगे समेत अन्य दंगों में हजारों लोगों को मार दिया गया, वो नुपुर शर्मा की वजह से हुआ क्या? दरअसल, जिस विचारधारा से ये घटनाएं हो रही हैं, उसके खिलाफ बोलने में दुनिया डरती है. अगर नुपुर शर्मा ने गलत बोला है. और, आपके पास इसे गलत साबित करने के तर्क हैं. तो, टीवी चैनल से लेकर हर जगह उसे नकार दीजिए. लेकिन, ऐसा नही हो रहा है. क्योंकि, वो लोग जानते हैं कि नुपुर शर्मा ने सही बोला है. और, इसका विरोध करने पर आपके कपड़े उतर जाएंगे. इसलिए तर्क नहीं किया जाएगा और तलवार निकाली जाएगी. तर्क को कोई तलवार से खत्म नहीं कर सकता. ये जो घटनाएं (उदयपुर और अमरावती) कर रहे हैं, वो अपने अस्तित्व और तर्क से डरते हैं. नुपुर शर्मा सही बोलीं या गलत, चर्चा होनी चाहिए. लेकिन, ये हारे हुए लोग हैं, जो तलवार निकालते हैं.'
दो टूक बातों को समझने की जरूरत क्यों है?
भाजपा नेता दिलीप घोष ने नुपुर शर्मा के कथित विवादित बयान पर दो टूक बातों के जरिये मामले को स्पष्ट कर दिया है. दरअसल, पैगंबर टिप्पणी विवाद पर की गई हत्याओं को लिबरल और सेकुलर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अतीत की कुछ घटनाओं को उठाकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश करने में जुटा हुआ है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो उदयपुर और अमरावती जैसी घटनाओं को लिबरल और सेकुलर वर्ग के लोग ईशनिंदा में की गई हत्या की जगह आतंकी घटना के तौर पर पेश करने का प्रयास कर रहे हैं. और, ये कोशिश दिलीप घोष के उस कथन को स्पष्ट कर देती है कि जिस विचारधारा से इन घटनाओं को अंजाम दिया गया, लोग उसके बारे में बोलने से डरते हैं. हाल ही में मीना मनिमेकलाई की फिल्म काली का विवादित पोस्टर इसे समझने का एक बेहतरीन उदाहरण हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लिबरल और सेकुलर हिंदू धर्म को लेकर खूब टिप्पणियां करते हैं. लेकिन, इस्लाम समेत अन्य अब्राहमिक धर्म/पंथ/संप्रदाय का नाम आते ही, इन्हें अपनी गर्दनों की फिक्र होने लगती है.
लिखी सी बात है कि अगर नुपुर शर्मा ने कोई ऐसी बात बोली है, जो कानूनी तौर पर गलत है. तो, उन्हें भारतीय कानून के हिसाब से सजा दी जानी चाहिए. लेकिन, इसके लिए ईशनिंदा जैसा कानून के तहत कार्रवाई की मांग भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में नहीं की जा सकती है. इतना ही नहीं, जो बातें पहले से ही हदीसों के तौर पर इस्लाम का हिस्सा हैं. और, दुनियाभर के सुन्नी मुसलमान (मुस्लिमों के तमाम वर्गों में सबसे बड़ी आबादी) इसे गंभीरता से स्वीकार करते हैं. तो, भारत में इसे अपराध कैसे माना जा सकता है? आसान शब्दों में कहा जाए, तो मुस्लिम समाज को सीधे यही कहना चाहिए कि इस पर बहस नहीं की जा सकती है. क्योंकि, इन हदीसों को तर्क के आधार पर खारिज करने की क्षमता किसी भी मुस्लिम में नहीं है. क्योंकि, ऐसा करने के साथ ही मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों का वर्ग उस शख्स का 'सिर तन से जुदा' करने का फरमान निकालने में देर नहीं लगाएगा.
ये तय है कि पैगंबर टिप्पणी विवाद को किसी भी हाल में तर्क से नहीं सुलझाया जा सकता है. तो, मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथियों को मजबूरी में तलवार का सहारा ही लेना पड़ रहा है. क्योंकि, तलवार के सहारे लोगों में उस डर को स्थायी तौर पर आसानी बैठाया जा सकता है कि इस्लाम पर कुछ भी बोलने से मौत से सामना होने का खतरा बना रहता है. और, इस बात को स्थापित कर दिया जाता है कि इस्लाम के मामले में तर्क की कोई जगह नहीं है. नुपुर शर्मा की कथित विवादित टिप्पणी के बाद अभी तक जारी हो रही जान से मारने की धमकियां और मारने वालों को करोड़ों के ईनाम का ऐलान इसका जीता-जागता सबूत है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो इस तरह से भारत की बहुसंख्यक आबादी की मानसिक तौर पर नसबंदी करने का कार्यक्रम सफलतापूर्वक कर दिया जाता है.
दिलीप घोष ने की 'पते की बात'
दिलीप घोष ने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव ईस्ट 2022 में कहा कि 'हमारे यहां धर्म के बारे में बोलते हैं, अपने धर्म का आचरण और दूसरे धर्म का आदर करो. लेकिन, हमारे यहां उलटा होता है. हमारी मुख्यमंत्री (ममता बनर्जी) हिंदू ब्राह्मण परिवार से हैं. लेकिन, वो जाकर नमाज पढ़ती हैं, रोजा करती हैं. आप इस तरह दूसरे धर्म को भी दूषित करते हैं. और, अपने धर्म को भी दूषित करते हैं.' दिलीप घोष के इस बयान को सियासी फायदे के लिए ममता बनर्जी पर साधा गया निशाना कहा जा सकता है. लेकिन, इस बयान के मायने केवल यही नही हैं. भारत के स्वघोषित लिबरल और सेकुलर वर्ग के लोगों ने इस्लाम धर्म को स्वीकार्यता दिलाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की ठानी है. एक ऐसा धर्म जो अपने अलावा अन्य किसी धर्म के अस्तित्व को पूरी तरह से नकार देता हो. उसे लेकर ऐसे प्रयासों से क्या ही स्वीकार्यता बनेगी? वो भी तब जब खुलेआम लोगों का कत्ल कर दिया जाए.
एक दिन पहले की ही खबर है कि झारखंड के कोरवाडीह के एक स्कूल में बहुसंख्यक आबादी होने पर मुस्लिमों ने स्कूल की प्रार्थना बदलवाने के साथ ही हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का नियम बदलवा लिया. मुस्लिम समाज के लोगों का कहना था कि उनकी आबादी 75 फीसदी है, तो नियम भी उनके अनुसार ही बनेंगे. अब बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी को कौन से नियम चाहिए होंगे, ये कोई रहस्य नही है. पूरी दुनिया के मुस्लिम अपने लिए शरिया कानूनों की मांग करते हैं. और, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे मुहैया भी कराता है. वैसे, लिबरल और सेकुलर वर्ग के लोगों की ओर से फैलाई जाने वाली गंगा-जमुनी तहजीब की बातों का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही कोई मिलेगा. दरअसल, झारखंड की इस घटना के केंद्र में भी वही विचारधारा है. जो मुस्लिम कट्टरपंथियों में लिबरल और सेकुलर वर्ग की ओर से पोषित और पल्लवित की जाती रही है.
इस्लाम के मानने कट्टरपंथी हिंदू धर्म और इससे जुड़ी अन्य चीजों को खुलेआम नकारते हैं. लेकिन, वोटबैंक राजनीति के कारण ममता बनर्जी समेत खुद को लिबरल और सेकुलर कहने वाले नेता इस खतरनाक विचारधारा को बढ़ावा देते हैं. जो 75 फीसदी आबादी होने के बाद उग्र होकर सामने आ जाती है. अहम सवाल यही है कि भारत में इस्लाम के साथ हिंदू धर्म के सहअस्तित्व की बात कहां तक जायज है?
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