देश का संविधान जाति, धर्म, भाषा, राज्य या फिर समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव की इजाजत नहीं देता है. संविधान हमें पूरा हक देता है कि हम अपने मूल अधिकार के साथ पूरे भारत में किसी भी स्थान पर बस सकते हैं (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) और अपनी रोज़ी-रोटी कमा सकते हैं. लेकिन हाल में सूरत के साबरकांठा में एक 14 साल की मासूम के साथ बलात्कार के बाद जिस तरह से प्रांतवाद का नारा बुलंद किया गया वह बेहद शर्मनाक है. निश्चित रुप से बलात्कार एक घिनौना कृत्य है, हम इसकी वकालत नहीं करते हैं. लेकिन एक व्यक्ति के गुनाह की सजा पूरे उत्तर भरतीय समाज को भुगतना पड़े यह कहां का न्याय है.
इस घटना को सोशलमीडिया पर जिस तरह से हवा दी गई वह शर्मसार करने वाला है. जिसका नतीजा हुआ कि यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. लोगों को सूरत छोड़ने के लिए अल्टीमेटम दिया गया. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 20 हजार से अधिक उत्तर भारतीय सूरत से पलायन को बाध्य हुए. लेकिन रुपाणि सरकार को जिस त्वरित गति से कदम उठाने चाहिए उसकी तत्परता नहीं दिखी. आरोप है कि इस हिंसा और पलायन के पीछे कांग्रेस नेता अल्पेश ठाकुर की भूमिका है. क्योंकि जिस मासूम के साथ यह घटना हुई वह अल्पेश की जाति से है.
सवाल उठता है कि इस तरह के हजारों बलात्कार रोज़ होते हैं फिर यह आग क्यों? जिसने भी यह घिनौना जुर्म किया वह बिहारसे हो या यूपी से, कानून उसे सजा देगा. फिर हमें फरमान सुनाने का अधिकार किसने दिया है. बलात्कार करने वाला क्या कोई गुजराती होता तो भी अल्पेश के यही तेवर होते? अगर उन्हें इतनी चिंता है तो देश भर में MeToo अभियान से फिल्मी हस्तियों के नकाब उतर रहे हैं तो फिर उन्हें मुम्बई से भगाने का फरमान क्यों नहीं...
देश का संविधान जाति, धर्म, भाषा, राज्य या फिर समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव की इजाजत नहीं देता है. संविधान हमें पूरा हक देता है कि हम अपने मूल अधिकार के साथ पूरे भारत में किसी भी स्थान पर बस सकते हैं (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) और अपनी रोज़ी-रोटी कमा सकते हैं. लेकिन हाल में सूरत के साबरकांठा में एक 14 साल की मासूम के साथ बलात्कार के बाद जिस तरह से प्रांतवाद का नारा बुलंद किया गया वह बेहद शर्मनाक है. निश्चित रुप से बलात्कार एक घिनौना कृत्य है, हम इसकी वकालत नहीं करते हैं. लेकिन एक व्यक्ति के गुनाह की सजा पूरे उत्तर भरतीय समाज को भुगतना पड़े यह कहां का न्याय है.
इस घटना को सोशलमीडिया पर जिस तरह से हवा दी गई वह शर्मसार करने वाला है. जिसका नतीजा हुआ कि यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. लोगों को सूरत छोड़ने के लिए अल्टीमेटम दिया गया. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 20 हजार से अधिक उत्तर भारतीय सूरत से पलायन को बाध्य हुए. लेकिन रुपाणि सरकार को जिस त्वरित गति से कदम उठाने चाहिए उसकी तत्परता नहीं दिखी. आरोप है कि इस हिंसा और पलायन के पीछे कांग्रेस नेता अल्पेश ठाकुर की भूमिका है. क्योंकि जिस मासूम के साथ यह घटना हुई वह अल्पेश की जाति से है.
सवाल उठता है कि इस तरह के हजारों बलात्कार रोज़ होते हैं फिर यह आग क्यों? जिसने भी यह घिनौना जुर्म किया वह बिहारसे हो या यूपी से, कानून उसे सजा देगा. फिर हमें फरमान सुनाने का अधिकार किसने दिया है. बलात्कार करने वाला क्या कोई गुजराती होता तो भी अल्पेश के यही तेवर होते? अगर उन्हें इतनी चिंता है तो देश भर में MeToo अभियान से फिल्मी हस्तियों के नकाब उतर रहे हैं तो फिर उन्हें मुम्बई से भगाने का फरमान क्यों नहीं जारी होता. किसी में हिम्मत है तो आवाज़ उठाकर देखो. क्यों काँग्रेस और भाजपा के मुंह सिले हैं. उत्तर भारतीयों के खिलाफ ही बहादुरी क्यों दिखती है. आज तक हम निर्भया के दोषियों को सजा नहीं दिला पाए. जबकि हम प्रांत-प्रांत और जाति-जाति खेलने में कितने बेशर्म हैं.
हिन्दी भाषियों के साथ इस तरह का बर्ताव कोई नया मसला नहीं है. आसाम में हिन्दी भाषियों को किस तरह कत्लेआम किया जाता है यह किसी से छुपा नहीं है. आसाम में हिन्दी भाषी खास तौर पर बिहार के लोगों को शिकार बनाया जाता है. पंजाब में जब कभी प्रांतीयता की आग सुलगती है तो उत्तर भारतीय शिकार बनते हैं, उसमें भी बिहार का मजदूर तबका जो काम की तलाश में वहां खेती- बाड़ी के काम में लगता है. मुम्बई में फेरीवालों और आटो चालकों के साथ दूसरे कार्यों में लगे बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को मनसे निशाने पर रखती है. गुजरात का उदाहरण आपके सामने है. सवाल उठता है कि यह आग क्यों भड़काई जाती है. इसकी मूल में सस्ती राजनीतिक लोकप्रियता के सिवाय कुछ नहीं होता है. कुछ लोग एक खास वर्ग के लोगों को खुश करने के लिए जाति, भाषा और राज्य की राजनीति करते हैं. जबकि इस तरह के मसले बेहद स्थाई नहीं होते. सूरत में जो कुछ हुआ उसकी वजह चुनाव हैं. जब चुनाव आते हैं तो इस तरह की अलगाव की राजनीति वोट बैंक के लिए की जाती है.
अहम सवाल है कि उत्तर भारतीयों के साथ यह घटना उस राज्य में हुई जिस राज्य का प्रधानमंत्री देश की कुर्सी पर विराजमान है. उत्तर प्रदेश की उसी काशी ने नरेंद्र मोदी को कितना मान दिया. उसी यूपी ने 73 लोकसभा सीट दिलायी. उसी काशी में मां गंगा पीएम को बुलाती हैं, लेकिन वहीं गंगा पुत्र गुजरात से भगाए गए और पीएम मोदी ने अपनी जुबान तक नहीं खोली. सुशासन बाबू नितिश के राज्य बिहार में पीएम मोदी की सियासी दोस्ती है. मध्य प्रदेश में शिवराज की सरकार है. यूपी में योगी राज है. जबकि इन्हीं राज्यों के आम गरीब जो रोज़ी- रोटी की तलाश में वहां गए हैं उन्हें भगाया गया. इस मामले में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ बैकफुट पर दिखे, सबसे आगे मायावती ने इसका प्रतिरोध किया. विडम्बना की बात है कि जो लोग सूरत से भगाए गए और प्रांतीय हिंसा के शिकार हुए उन्हीं ने 2014 में मोदी राज लाने में हिन्दी भाषी राज्यों मध्यप्रदेश, बिहार और यूपी में अहम भूमिका निभाई.
देश के औद्योगिक राज्यों में हिंदी भाषी लोगों को क्यों निशाना बनाया जाता है. बंग्लादेश के घुसपैठिये और म्यांमार के रोहिंग्या से भी इनका वजूद कम है. आसाम में एनआरसी मसले पर संसद ठप हो जाती है. ममता दीदी खुलेआम बंग्लादेश के घुसपैठियों की वकालत करती हैं. लेकिन हिंदी भाषियों पर अत्याचार होता है तो पूरी राजनीति को सांप सूंघ जाता है. दिल्ली में रहने वाले लाखों कश्मीरी नहीं भगाए जाते. भारत के टुकड़े करने वाले आजाद घूमते हैं. कश्मीर में पाकिस्तानी वकालत करने वालों के साथ सरकार चलती है. लाखों रोहिंग्या फैले पड़े हैं. बंगलादेशियों को वोट बैंक माना जाता है. उत्तर भारतीयों के साथ यह बर्ताव क्यों?
उत्तर भारतीयों को अगर मुम्बई गुजरात से हटा दिया जाए तो इनका अस्तित्व क्या बचेगा. सूरत के उन पांच जिलों में उद्योगों की हालत खस्ता हो चली है. कामगारों की कमी से धंधा चौपट हो गया है. उद्योगपतियों का भारी नुकसान हो रहा है. सूरत और मुम्बई के निर्माण में उत्तर भारतीयों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. यूपी और बिहार ही यहां के उद्योग को सस्ते और कुशल श्रमिक उपलब्ध कराते हैं. यूपी और बिहार के लोग अपनी मेहनत की वजह से उद्योगपतियों में लोकप्रिय हैं. यह बात भी नहीं है कि मुम्बई और गुजरात में हिंदी भाषी राज्यों से सिर्फ मजदूर तबका ही आता है. दोनों राज्यों में ही उन उत्तर भारतीयों की तादात बेहद लम्बी है जो यहां लाखों लोगों को रोजगार देते हैं. लेकिन जब हिंदी भाषी लोगों पर हमले की बात आती है तो वह चुप्पी साध लेते हैं. जिसकी वजह से यूपी और बिहार का आम आदमी, फेरी, आटो और दूधवाले गैर प्रांतीयता की आग में झुलसते हैं. उस दौरान यहां सरकारें भी मौन रहती हैं. लोकल पुलिस भी उत्तर भारतीयों का साथ नहीं देती. उत्तर भारतीयों के वोट पर राजनीति करने वाले भी चुप हो जाते हैं. जिसकी वजह रोज़ी-रोटी की तलाश में इन महानगरों में आया आम आदमी हिंसा और प्रांतीयता का शिकार बन जाता है. हिंसा का शिकार वहीं उत्तर भारतीय बनता है जो बेहद कमजोर होता और झुग्गी - झोपड़ियों में रहता है. लेकिन हम इस तरह की बात कर देश में एकता और अखंडता को कमजोर करने की साजिश रचते हैं. पूरे देश में हर जाति-धर्म के लोग बिखरे पड़े हैं. वाराणसी में आज भी बंगाली, मराठी और गुजराती टोला है जो काशी की अनूठी संस्कृति की पहचान है.
यूपी और बिहार के लोगों की इस दुर्गति का कारण भी वहां की सरकारें हैं. संबंधित राज्यों में सरकारें बदलती हैं व्यवस्था नहीं. उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार से अधिक लोग मुम्बई, सूरत में रोजगार की तलाश में आते हैं. जिसमें सबसे अधिक निम्न आय वर्ग के परिवार शामिल हैं. जबकि पश्चिमी यूपी से प्रवास न के बराबर हैं. दोनों राज्यों में जिन वोटरों के बूते सरकार बनती और बिगड़ती हैं उन्हीं के लिए रोजगार तक की सुविधा सरकारें मुहैया नहीं करा पातीं. जाति और धर्म की राजनीति कर पांच साल सत्ता चलाती हैं, लेकिन राज्य का चेहरा नहीं बदल सकतीं. उत्तर प्रदेश में आज भी उद्योग की हालत खस्ता है. कई चीनी मिलें, भदोही का कालीन उद्योग, बनारस का साड़ी उद्योग, बलिया का सिन्धोरा, मिर्जापुर का पीतल उद्योग दम तोड़ चुका है. कानपुर, आगरा का चमड़ा और सूती वस्त्र उद्योग ख़त्म हो चला है. लेकिन खस्ता हाल उद्योगों को बचाने के लिए किसी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. जिसकी वजह से उत्तर भारतीयों के खिलाफ इस तरह की आवाज़ उठती है. मोदी का स्किल इंडिया भी फेल साबित हुआ. जरा सोचिए अपने देश में ही उत्तर भरतीय बंग्लादेशी और रोहिंग्या से भी बुरे हालत में गुजरते हैं. इसकी जिम्मेदार सिर्फ यूपी और बिहार सरकार की नीतियां हैं. सरकारों को पलायन पर रोक लगानी चाहिए और राज्यों में रोजगार के साधन उपलब्ध कराने चाहिए. जिससे प्रांतवाद की आग में झुलस रहे उत्तर भारतीयों को बचाया जा सके.
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