कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोटों के कारोबार पर रोक लगाने के लिए मोदी सरकार द्वारा नोटबंदी का एक उचित फैसला किया गया. वैष्विक परिदृष्य में आतंकवाद की समस्या अपने विकराल रूप में भारत के सामने ही नहीं विश्व के सामने एक संकट का रूप ले चुकी है. दक्षिण एशिया से लेकर सीरिया, ईराक और अमेरिका भी आतंकवाद से पीड़ित रह चुका है. जाली नोटों के कारोबार की वजह से आतंकवादियों की हिमाकत और अधिक बलवती हो जाती है. पाकिस्तान भारतीय रूपये को छापकर पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते भारत में भेजकर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देता आ रहा है. भारत में भी पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से सटे इलाकों में जाली नोटों का अवैध काला कारनामा हमेशा खबरों की सुर्खियां बनता रहा है. जाली करेंसी के चलन से भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचता है, जिसको चलन से बंद करने के लिए मोदी सरकार द्वारा लिया गया फैसला ऐताहासिक माना जा सकता है.
मनमोहन सिंह ने देश की जीडीपी की दो फीसदी गिरने की बात कही है, उससे देश को और सरकार को इनकार नही करना चाहिए, लेकिन देश जिस प्रतिनिधि को चुनकर संसद में देश को चलाने और देश की प्रगति के लिए भेजा, वो अगर देशहित को छोड़कर धरना प्रर्दशन और आंदोलन पर उतारू हो जाएं, तो यह फैसला न तो स्वस्थ लोकतंत्र और न ही देशहित में माना जा सकता है. देश में संसद को सुचारू रूप से चलाना उसके प्रतिनिधियों का उत्तरदायित्व होता है, उसके प्रति उसे सचेत होना चाहिए.
ये भी पढ़ें- हम मंदी को बढ़ाने के रास्ते पर हैं
नोटबंदी से आम जनता को तत्कालिक समस्याएं हो रही है, और इतने कड़े फैसले से होना वाजिब भी हो जाता है, क्योंकि बिना किसी तैयारी के सरकार द्वारा उठाये जाने वाले कदम से समस्या होती भी है. सरकार को कुछ तैयारी करनी जरूरी हो जाती है, लेकिन समय देने पर कालेधन और भ्रष्टाचारियों को...
कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोटों के कारोबार पर रोक लगाने के लिए मोदी सरकार द्वारा नोटबंदी का एक उचित फैसला किया गया. वैष्विक परिदृष्य में आतंकवाद की समस्या अपने विकराल रूप में भारत के सामने ही नहीं विश्व के सामने एक संकट का रूप ले चुकी है. दक्षिण एशिया से लेकर सीरिया, ईराक और अमेरिका भी आतंकवाद से पीड़ित रह चुका है. जाली नोटों के कारोबार की वजह से आतंकवादियों की हिमाकत और अधिक बलवती हो जाती है. पाकिस्तान भारतीय रूपये को छापकर पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते भारत में भेजकर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देता आ रहा है. भारत में भी पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से सटे इलाकों में जाली नोटों का अवैध काला कारनामा हमेशा खबरों की सुर्खियां बनता रहा है. जाली करेंसी के चलन से भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचता है, जिसको चलन से बंद करने के लिए मोदी सरकार द्वारा लिया गया फैसला ऐताहासिक माना जा सकता है.
मनमोहन सिंह ने देश की जीडीपी की दो फीसदी गिरने की बात कही है, उससे देश को और सरकार को इनकार नही करना चाहिए, लेकिन देश जिस प्रतिनिधि को चुनकर संसद में देश को चलाने और देश की प्रगति के लिए भेजा, वो अगर देशहित को छोड़कर धरना प्रर्दशन और आंदोलन पर उतारू हो जाएं, तो यह फैसला न तो स्वस्थ लोकतंत्र और न ही देशहित में माना जा सकता है. देश में संसद को सुचारू रूप से चलाना उसके प्रतिनिधियों का उत्तरदायित्व होता है, उसके प्रति उसे सचेत होना चाहिए.
ये भी पढ़ें- हम मंदी को बढ़ाने के रास्ते पर हैं
नोटबंदी से आम जनता को तत्कालिक समस्याएं हो रही है, और इतने कड़े फैसले से होना वाजिब भी हो जाता है, क्योंकि बिना किसी तैयारी के सरकार द्वारा उठाये जाने वाले कदम से समस्या होती भी है. सरकार को कुछ तैयारी करनी जरूरी हो जाती है, लेकिन समय देने पर कालेधन और भ्रष्टाचारियों को समय मिल जाता, और जो स्थिति अभी नजर आ रही है, वह भयावह स्थिति दूर की बात साबित होती. विपक्ष अगर कालेधन को लेकर सरकार की नीतियों पर सवालिया निशान लगा रही है, वह कुछ हद तक सच्चाई बयां करती है, क्योंकि कोई भी बड़ा उच्च वर्गीय कुल लम्बी कतारों में अपना दैनिक कार्य छोड़कर करेंसी बदलवाने के लिए खड़ा नहीं देखा जा सका, लेकिन जिस अंदाज में विपक्षी राजनीतिक दल विगत सरकार की नोटबंदी की आलोचना करते हुए संसद को बयानबाजी का अड्डा बना चुकी है, वह न तो देश हित में मानी जा सकती है, और न ही संसद की मर्यादित गरिमा के अनुरूप.
नोटबंदी पर विपक्ष का विरोध |
संसद कोई लड़ाई का अखाड़ा नहीं है, कि हर मुद्दे पर सरकार को घेरने का बहाना लेकर संसद को ठप्प करने और संसद को हफ्तों और महीनों तक चलने न दिया जाए. संसद के शीतकालीन सत्र के चालू हुए एक सप्ताह से अधिक दिन गुजर चुके हैं, लेकिन न तो संसद में किसी दिन सदन की कार्रवाई चली, और न ही संसद में किसी जनहित से जुडे़ मुद्दे पर बहस हो सकी. जिस संसद को चलाने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किए जाते हों, वहां पर देशहित और देश की आम जनता की भलाई के लिए अगर कोई काम न हो, उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न उठना लाजिमी हो जाता है, कि संसद का चुनाव आखिर कोई और किस अर्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है.
ये भी पढ़ें- जब ये बदलाव स्वीकार कर लिए तो कैशलेस मार्केटिंग क्यों नहीं?
सरकार की नीति पर भी सवाल खड़े होना लाजिमी होता है, क्योंकि जिस समय सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे लोकपाल की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे, उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री ने लोकपाल को लेकर अपने भाषणों में लोकपाल को लागू करने का हिमायती कदम उठाने के लिए तत्कालिक सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की थी, लेकिन सत्तासुख में आये हुए ढाई साल गुजर जाने के बाद भी केन्द्र ने किसी न किसी बहाने के जरिए लोकपाल की नियुक्ति का मुद्दा ठंड़े बस्ते में छिपाकर रखने में ही अपनी बहादुरी समझी है. कभी विपक्षी की संसद में कानूनी मान्यता के अनुसार सीट न होने को मुद्दा बनाया, तो कभी अन्य कारणों से.
अगर सरकार की स्पष्ट नीति कालेधन और भ्रष्टाचार को खत्म करने की होती, तो सरकार दूरदर्षी सोच के साथ ही साथ लोकपाल की नियुक्ति का सलीका भी सरकार किसी न किसी तरीके से इजाद कर सकती थी. सरकार की आये दिन नोटबंदी के नियमों में बदलाव की वजह से आम जनता के साथ नौकरी-पेशे वाले लोग भी परेशान हैं, और अगले महीने असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों और कर्मचारियों के वेतन का भुगतान कैसे होगा, यह भी सोचनीय विषय बना हुआ है. गरीब किसानों, निचले तबके के लोगों को अपने रोजगार की चिंता हो रही है, क्योंकि सरकार की नोटबंदी से किसानों और गरीबों को कहीं न कहीं दिकक्तों से रूबरू होना पड़ रहा है.
ये भी पढ़ें- भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में विपक्ष की छिछली राजनीति
इन मुद्दों के बावजूद सरकार की इन नीतियों से अगर आम जनता और गरीब, निचला तबका संतुष्ट दिख रहा है, फिर भी संसद को चलने न देना विपक्ष की कमजोरी कहें, या मजबूती, क्योंकि विपक्ष के पास न तो संसद में सरकार की नीतियों को रोक पाने के लिए इतनी संख्या है, जिससे वह सरकार को रोक सकें. फिर भी बेवजह वह सरकार की आलोचना किसी भी मुद्दे पर करना शुरू कर देती है, चाहे वह जनता के हित में हो, या न हो. विपक्ष को हक होता है कि अपनी जनता की भलाई के लिए सरकार की आलोचना करके उसको जनता के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकें. उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में चुनावों में बढ़ते काले धन और देश के अंदर ही नक्सलवाद और माओवादियों की कमर तोड़ने के लिए सरकार का यह कदम उचित माना जा सकता है, लेकिन राजनीति पार्टियों का इतना विरोध कहीं न कहीं कुछ सवाल लोगों के जेहन में जरूर छोड़ जाता है, कि आखिर नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष की इतनी मंशा क्यों है? आखिर में एक ही विचार सामने आता है, कि संसद की गरिमा बस इतनी ही बची है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.