राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को 2019 के आम चुनाव में भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 20128 जैसे नतीजे की ही अपेक्षा रही होगी. 'चौकीदार चोर है' का स्लोगन भी तभी शुरू किया था - और चुनाव नतीजों में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की कॉपी ट्विटर पर शेयर करते हुए भी दोहराया था कि वो अपनी बात पर कायम हैं.
सोनिया गांधी को भी पक्का यकीन रहा कि जब अजेय समझे जाने वाले वाजपेयी को 2004 में शिकस्त दे डाली थी, फिर तो बीजेपी को सत्ता में वापस ही नहीं आने देंगे - और सही मौका देख कर प्रियंका गांधी वाड्रा को भी औपचारिक तौर पर लांच करने की भी ऐसी ही वजह रही होगी. सोचा हुआ कुछ भी नहीं हुआ, होता भी कहां है - अमेठी की हार ने तो सब कुछ तहस नहस करके रख दिया.
आम चुनाव के करीब छह महीने बाद जब झारखंड विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे, दिल्ली में कांग्रेस की रैली हुई थी. उससे पहले महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूट चुका था और कांग्रेस भी महा विकास आघाड़ी सरकार में हिस्सेदार बन चुकी थी, लेकिन रैली में विनायक दामोदर सावरकर पर राहुल गांधी के बयान ने शिवसेना तक को बचाव की मुद्रा में ला दिया था - बाकी राजनीतिक हलकों में बयान पर जो बवाल मचा वो तो अलग ही था.
रैली में राहुल गांधी ने कहा था, ''संसद में बीजेपी के लोगों ने कहा कि मैं भाषण के लिए माफी मांगूं... मेरा नाम राहुल सावरकर नहीं, राहुल गांधी है... माफी नहीं मांगूंगा...मर जाऊंगा लेकिन माफी नहीं मांगूंगा.''
वीर सावरकर का नाम लेकर असल में राहुल गांधी ने मुद्दे को अलग ही ट्विस्ट दे दिया था, लेकिन माफी की कांग्रेस नेता के झारखंड की रैली में रेप इन इंडिया बोल देने को लेकर हो रही थी. चुनावी रैली में राहुल गांधी ने मेक इन इंडिया में की तर्ज पर रेप इन इंडिया समझाने की कोशिश कर रही थी. दिल्ली रैली के बाद राहुल गांधी विदेश दौरे पर निकल गये और उनकी बची हुई रैली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को करनी पड़ी थी.
सावरकर को थोड़ा अलग...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को 2019 के आम चुनाव में भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 20128 जैसे नतीजे की ही अपेक्षा रही होगी. 'चौकीदार चोर है' का स्लोगन भी तभी शुरू किया था - और चुनाव नतीजों में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की कॉपी ट्विटर पर शेयर करते हुए भी दोहराया था कि वो अपनी बात पर कायम हैं.
सोनिया गांधी को भी पक्का यकीन रहा कि जब अजेय समझे जाने वाले वाजपेयी को 2004 में शिकस्त दे डाली थी, फिर तो बीजेपी को सत्ता में वापस ही नहीं आने देंगे - और सही मौका देख कर प्रियंका गांधी वाड्रा को भी औपचारिक तौर पर लांच करने की भी ऐसी ही वजह रही होगी. सोचा हुआ कुछ भी नहीं हुआ, होता भी कहां है - अमेठी की हार ने तो सब कुछ तहस नहस करके रख दिया.
आम चुनाव के करीब छह महीने बाद जब झारखंड विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे, दिल्ली में कांग्रेस की रैली हुई थी. उससे पहले महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूट चुका था और कांग्रेस भी महा विकास आघाड़ी सरकार में हिस्सेदार बन चुकी थी, लेकिन रैली में विनायक दामोदर सावरकर पर राहुल गांधी के बयान ने शिवसेना तक को बचाव की मुद्रा में ला दिया था - बाकी राजनीतिक हलकों में बयान पर जो बवाल मचा वो तो अलग ही था.
रैली में राहुल गांधी ने कहा था, ''संसद में बीजेपी के लोगों ने कहा कि मैं भाषण के लिए माफी मांगूं... मेरा नाम राहुल सावरकर नहीं, राहुल गांधी है... माफी नहीं मांगूंगा...मर जाऊंगा लेकिन माफी नहीं मांगूंगा.''
वीर सावरकर का नाम लेकर असल में राहुल गांधी ने मुद्दे को अलग ही ट्विस्ट दे दिया था, लेकिन माफी की कांग्रेस नेता के झारखंड की रैली में रेप इन इंडिया बोल देने को लेकर हो रही थी. चुनावी रैली में राहुल गांधी ने मेक इन इंडिया में की तर्ज पर रेप इन इंडिया समझाने की कोशिश कर रही थी. दिल्ली रैली के बाद राहुल गांधी विदेश दौरे पर निकल गये और उनकी बची हुई रैली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को करनी पड़ी थी.
सावरकर को थोड़ा अलग रख कर देखें, तो पहली नजर में ऐसा ही लगता है जैसे राहुल अपने नाम में गांधी का जिक्र अपने पिता राजीव गांधी से जुड़ा बताने की कोशिश कर रहे हैं. गांधी, जो टाइटल राहुल के पिता राजीव को अपने माता पिता यानी इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी से मिला था - और थोड़ा पीछे लौटें तो विरासत पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंच जाती है. वास्तविकता तो यही है कि आज की तारीख में राहुल गांधी, दरअसल, नेहरू-इंदिरा की विरासत को ही आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं - लेकिन क्या वास्तव में विमर्श को ऐसे ही आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है?
कांग्रेस की रणनीति पर बारीकी से गौर करें तो ऐसा लगता है जैसे फिर से गांधी की विरासत की तरफ लौटने की कोशिश की जा रही है. यहां गांधी से मतलब इंदिरा गांधी नहीं बल्कि मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी (Gandhi Jayanti) से है.
क्या संघ और बीजेपी के नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के खिलाफ आक्रामक रुख को देखते हुए कांग्रेस नेतृत्व और सलाहकारों की टीम मिलजुल कर ऐसा कोई प्रयास कर रहे हैं?
एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि गांधी को कोई नेहरू-इंदिरा की तरह टारगेट नहीं कर सकता. बेशक बीजेपी नेहरू और गांधी के मुकाबले सरदार वल्लभ भाई पटेल को सबसे ऊपर प्रोजेक्ट करती आयी हो, लेकिन संघ-बीजेपी कभी भी गांधी को नेहरू की तरह सीधे सीधे नकार तो नहीं पाएंगे.
और भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) तो नमूना भर है, ऐसे कई मौके देखने को मिले हैं जब राहुल गांधी खुद को महात्मा गांधी और संघ-बीजेपी के नेताओं को नाथूराम गोडसे की तरह पेश करने की कोशिश करते हैं. वैसे भी राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ मानहानि का मुकदमा लड़ ही रहे हैं. ये मुकदमा RSS के एक प्रचारक की तरफ से किया गया है, जिसमें राहुल गांधी पर इल्जाम लगा है कि कांग्रेस नेता ने एक चुनावी रैली में संघ को महात्मा गांधी के हत्यारे के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी.
'गांधी' के वारिस राहुल?
भारत जोड़ो यात्रा का कंसेप्ट भी महात्मा गांधी के दांडी मार्च से लिया गया है और भारत को जोड़ने की कोशिश बतायी जा रही है - ये सवाल अलग है कि क्या भारत को जोड़ने की जरूरत है? और क्या भारत को कन्याकुमारी से कश्मीर के किताबी दायरे में समेट कर रखा जा सकता है?
शुरू में यात्रा के संयोजक दिग्विजय सिंह की बातों से तो लगा था जैसे भारत जोड़ो यात्रा विपक्षी दलों को बीजेपी के खिलाफ जोड़ने की एक और कोशिश हो सकती है. निश्चित रूप से कांग्रेस के गठबंधन साथी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राहुल गांधी को कन्याकुमारी से रवाना किया, लेकिन उसके बाद तो कांग्रेस के अलावा कोई और नजर नहीं आया. अब यात्रा के दौरान योगेंद्र यादव की मौजूदगी को वैसे तो समझा नहीं जा सकता. ये ठीक है कि वो अपने पुराने पेशे से राजनीति में आ जाने के बाद स्थापित होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उनकी भूमिका हाफ-पॉलिटिकल ही लगती है.
2014 के बाद से ये देखने को मिल रहा है कि राहुल गांधी ही नहीं, बल्कि संघ और बीजेपी की तरफ से ठीक वैसे ही नेहरू और इंदिरा गांधी, यहां तक कि राजीव गांधी के योगदानों को खारिज किये जाने की कोशिशें जारी हैं.
राजनीतिक धारणा बनने और बनाने की बात और है, लेकिन तकनीकी पैमानों पर न तो 2014 से पहले की सरकारों के काम को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है, न ही अब ऐसी कोई उपलब्धि है जो पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. अब अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से दावा किया जाता है कि अब लोगों को भारत में पैदा होने पर गर्व होता है, या भारत के पासपोर्ट की वैल्यू पूरी दुनिया के लिए ग्रीन कार्ड जैसी हो गयी है - तो ये सब भी काले धन लाने और 15-15 लाख अकाउंट में डालने जैसे चुनावी जुमले ही लगते हैं.
अगर आज बीजेपी के शासन में 5G आया है तो कांग्रेस की सरकार में ही सूचना क्रांति की नींव रखी गयी थी. अगर मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक किया है तो इंदिरा गांधी के शासन में भारत पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध भी जीत चुका है, लेकिन कांग्रेस के पास फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जो लोगों को डंके की चोट पर ये बातें समझा सके - ट्विटर पर हर वोटर नहीं है, ये नहीं भूलना चाहिये.
ऐसा भी नहीं कि राहुल गांधी को एक नेता की जगह मजाक का पात्र बना देने के लिए सिर्फ संघ और बीजेपी का प्रचार तंत्र ही जिम्मेदार है. खुद राहुल गांधी भी गलती से मिस्टेक नहीं बल्कि ब्लंडर करते रहे हैं - और भरी संसद में लाइव टीवी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले पड़ कर आंख मार देना तो एक नमूना भर है.
अगर नेहरू-इंदिरा संघ और बीजेपी के निशाने पर बने रहते हैं और उनके शासन को नकारा और निकम्मा साबित करने की कोशिश होती है तो काफी हद तक राहुल गांधी भी उसके लिए जिम्मेदार हैं. जब तक देश में कांग्रेस का शासन था, बात और थी. जब सत्ता चली गयी, और कट्टर राजनीतिक विरोधी काबिज हो गये तो राहुल गांधी को गंभीर हो जाना चाहिये था. अगर वास्तव में सत्ता की राजनीति में दिलचस्पी नहीं रही तो जो कमिटमेंट अभी दिखा रहे हैं, पहले से दिखाना चाहिये था.
अपनी गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिये था. अगर उनके पास कोई समाधान नहीं होता तो वो क्यों हिमंत बिस्वा सरमा से बात करते रहे. ऐसी बात करने की क्या जरूरत थी जिसमें वो पिडि के साथ खेलते नजर आ रहे थे - और सिर्फ सरमा ही नहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर गुलाम नबी आजाद तक सभी की एक जैसी ही शिकायत है.
राहुल गांधी को नेहरू-इंदिरा की राजनीतिक विरासत से हटाकर महात्मा गांधी से नये सिरे से जोड़ने का एक फायदा तो तय है - कम से कम महात्मा गांधी को लेकर नेहरू-इंदिरा जैसी बातें तो कोई भी नहीं कर सकेगा.
'जैसे गांधी थे, वैसे राहुल हैं'!
कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव को लेकर सही तस्वीर तो अब जाकर सामने आयी है, लेकिन काफी पहले से ही इसकी झलक दिखाने की कोशिश होती रही है. ये प्रयास राहुल गांधी की तरफ से भी हुई है, और कांग्रेस नेताओं की ओर से भी - कैसे राहुल गांधी अध्यक्ष न होकर भी कांग्रेस के नेता बने रहेंगे.
मिसाल भी महात्मा गांधी की ही दी जा रही है. कांग्रेस नेताओं का कहना है, महात्मा गांधी भी तो एक बार ही कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे - और हमेशा ही कांग्रेस के नेता रहे. बेशक विकिपीडिया के पेज पर महात्मा गांधी की पॉलिटिकल पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस ही बतायी गयी है, लेकिन इसे अपनी अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से समझने की कोशिश की जाती रही है. एक बार सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह के महात्मा गांधी को लेकर चतुर बनिया वाले बयान से जोड़ कर भी देखने की कोशिश कीजिये.
राहुल गांधी भी बार बार अपनी तरफ से यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वो भारत जोड़ो यात्रा में सिर्फ हिस्सा ले रहे हैं - नेतृत्व तो कतई नहीं कर रहे हैं. यात्रा के दौरान ही महात्मा गांधी की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने की तस्वीर के साथ राहुल गांधी ट्विटर पर लिखते भी हैं, ‘आज गांधी जयंती पर... हम प्रण लेते हैं कि जिस तरह महात्मा गांधी ने देश को अन्याय के खिलाफ एकजुट किया था - वैसे ही अब हम भी अपना भारत जोड़ेंगे.’
राहुल और 'गांधी'?
राहुल गांधी की परवरिश और महात्मा गांधी की पृष्ठभूमि की तुलना करें तो कई चीजें कॉमन देखने को मिलती हैं. अगर राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री के परिवार में पले बढ़े तो मोहनदास करमचंद गांधी के पिता भी तो अंग्रेजों के जमाने में दीवान ही थे. जैसे मोहनदास गांधी को उनके पिता ने पढ़ाई के लिए विदेश भेजा था, राहुल गांधी के साथ भी वैसा ही हुआ - और दोनों ने बड़े एक सीमित दायरे से निकल कर भारत को करीब से जानने की कोशिश की है. ये बात अलग है कि कौन कितना सफल और असफल रहा. असफल तो शुरुआती दौर में मोहनदास गांधी भी रहे ही.
देखा जाये तो राहुल गांधी ने राजनीति जब शुरू की तो उनकी उम्र 34 साल थी. 2004 में वो पहली बार अमेठी लोक सभा का चुनाव जीत कर संसद पहुंचे थे - और महात्मा गांधी 1915 में जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो वो 46 साल के हो चुके थे.
महात्मा गांधी ने जब भारत में काम शुरू किया तब उनके पास दो दशक का अफ्रीका में काम करने का अनुभव था, और भारत जोड़ो यात्रा से पहले राहुल गांधी का राजनीतिक अनुभव भी करीब करीब आस पास ही है.
जो काम और अनुभव महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में हासिल किया वो राहुल गांधी भारत में ही करते आ रहे हैं - और दोनों की कोशिश अपने अपने हिसाब से भारत को समझने और उससे कनेक्ट होने की ही है.
सत्ता और दलगत राजनीति में जरा भी दिलचस्पी न होने की बात तो राहुल गांधी कई बार बता ही चुके हैं, कुछ समय पहले ही दोहराया था, मैं अपने देश से प्यार करता हूं - और भारत को जानना चाहता हूं. समझना चाहता हूं.
अपनी परवरिश और पृष्ठभूमि की तरफ ध्यान दिलाते हुए राहुल गांधी कहते हैं, 'मैं सत्ता के बीच में पैदा हुआ... बिल्कुल बीच में... और बड़ी अजीब सी बीमारी है कि मुझे उसमें इंटरेस्ट ही नहीं है... मैं सच में ये बात बोल रहा हूं.'
भारत को वो कैसे समझना चाहते हैं, राहुल गांधी ये भी बताते हैं, 'अपने देश को समझने की कोशिश करता हूं...सुबह उठता हूं तो भी यही करता हूं... मुझे देश से प्यार है... ये कोशिश वैसी ही है जैसे एक प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसे समझना चाहता है.'
ऐसा भी नहीं कि राहुल गांधी को अपनी असफलता नहीं याद रहती, कहते हैं - 'देश ने मुझे सिर्फ प्यार ही नहीं दिया है, जूते भी मारे हैं' - और फिर कहते हैं, मेरे देश ने जो मुझे प्यार दिया है, वो मेरे ऊपर कर्ज है... मैं सोचता रहता हूं कि इस कर्ज को कैसे उतारूं.'
हर किसी का 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' अलग अलग है. जवाहरलाल नेहरू ने उसे अपने तरीके से खोजा था, मोहनदास गांधी के खोजने का अपना तरीका रहा - और राहुल गांधी की अपनी अलग स्टाइल है, लेकिन भारत को समझने की कोशिश तो हो ही रही है - और यही सबसे खास बात है.
अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे राहुल गांधी के इर्द गिर्द भी ठीक वैसा ही औरा बनाने की कोशिश हो रही है, जैसा कल्ट संघ और बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए पहले ही गढ़ चुके हैं - ताकि एक दिन ऐसा हो जब मुकाबले को बराबरी पर पेश किया जा सके.
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