यूपी के बागपत में जब राहुल गांधी संसद में माइक बंद करने का आरोप लगा रहे थे- मुझे लोकसभा में नेता 'प्रतिपक्ष' (कांग्रेस के नेता) अधीर रंजन चौधरी का गिरा हुआ, शर्मिंदा चेहरा याद आ गया. ज्यादा पुरानी बात नहीं. पिछले साल सौभाग्य से राहुल संसद में ही थे और तब उनकी माइक बंद नहीं हुई थी. उन्होंने कोविड, नागरिकता क़ानून और तमाम चीजों को लेकर कई सवाल किए थे. हालांकि यह प्रधानमंत्री का दुर्भाग्य है कि देश के सबसे जिम्मेदार नेता तक अपना जवाब नहीं पहुंचा पाए. प्रधानमंत्री, नेहरू-गांधी परिवार में इतिहास के सबसे योग्य वारिस को जवाब दे रहे थे- वह संसद से जा चुके थे. संसद की कार्रवाई कई बार तय नहीं रहती. स्वाभाविक है कि 'सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट' की वजह से राहुल गांधी जैसा अनुशासित व्यक्ति, जिसका एक-एक मिनट कीमती है- भला वहां कैसे बैठा रह सकता है?
और यह बात भी है कि भला उन्हें कोई कैसे कुछ सुना सकता है. उनपर बात करने का हक़ किसी को कैसे मिल सकता है? वह भी मोदी जैसे नेता को. फिर राहुल कैसे गांधी-नेहरू परिवार के वारिस हुए. बावजूद कि जब मोदी सवालों पर जवाब दे रहे थे उन्होंने राहुल गांधी की चुटकी ली. अधीर रंजन की तो जोरदार चुटकी ली. कांग्रेस नेता तक मस्त थे. अधीर की हालत यह थी कि वह मोदी के जवाब पर चूं-चा तक नहीं कर पाए. संसद में मोदी का कितना दिलचस्प काउंटर था कि जब भी राहुल और अधीर का चेहरा देखता हूं- मोदी की वह स्पीच याद आ जाती है.
मोदी ने कहा था- आपके नेता बिना कुछ जाने समझें आग लगाकर निकल जाते हैं. और देर-देर रात तक संसद की कार्रवाइयों में अधीर बाबू को झेलना पड़ता है. चाहे तो यहां नीचे पूरा भाषण सुन सकते हैं. वीडियो देख सकते हैं. या फिर सिर्फ हंसी मजाक के आदि हैं तो वीडियो में 35 मिनट के बाद का करीब 2-5 मिनट का हिस्सा जरूर देखें. राहुल के सांसद लपेटे जा रहे हैं और देश का नेतृत्व करने का ख्वाब देखने वाला वहां मौजूद नहीं है. बार-बार कहता हूं कि सड़क पर दिए गए नेताओं के बयान कोई मायने नहीं रखते. आप समझ नहीं पाएंगे कि आपका नेता असल में चाहता क्या...
यूपी के बागपत में जब राहुल गांधी संसद में माइक बंद करने का आरोप लगा रहे थे- मुझे लोकसभा में नेता 'प्रतिपक्ष' (कांग्रेस के नेता) अधीर रंजन चौधरी का गिरा हुआ, शर्मिंदा चेहरा याद आ गया. ज्यादा पुरानी बात नहीं. पिछले साल सौभाग्य से राहुल संसद में ही थे और तब उनकी माइक बंद नहीं हुई थी. उन्होंने कोविड, नागरिकता क़ानून और तमाम चीजों को लेकर कई सवाल किए थे. हालांकि यह प्रधानमंत्री का दुर्भाग्य है कि देश के सबसे जिम्मेदार नेता तक अपना जवाब नहीं पहुंचा पाए. प्रधानमंत्री, नेहरू-गांधी परिवार में इतिहास के सबसे योग्य वारिस को जवाब दे रहे थे- वह संसद से जा चुके थे. संसद की कार्रवाई कई बार तय नहीं रहती. स्वाभाविक है कि 'सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट' की वजह से राहुल गांधी जैसा अनुशासित व्यक्ति, जिसका एक-एक मिनट कीमती है- भला वहां कैसे बैठा रह सकता है?
और यह बात भी है कि भला उन्हें कोई कैसे कुछ सुना सकता है. उनपर बात करने का हक़ किसी को कैसे मिल सकता है? वह भी मोदी जैसे नेता को. फिर राहुल कैसे गांधी-नेहरू परिवार के वारिस हुए. बावजूद कि जब मोदी सवालों पर जवाब दे रहे थे उन्होंने राहुल गांधी की चुटकी ली. अधीर रंजन की तो जोरदार चुटकी ली. कांग्रेस नेता तक मस्त थे. अधीर की हालत यह थी कि वह मोदी के जवाब पर चूं-चा तक नहीं कर पाए. संसद में मोदी का कितना दिलचस्प काउंटर था कि जब भी राहुल और अधीर का चेहरा देखता हूं- मोदी की वह स्पीच याद आ जाती है.
मोदी ने कहा था- आपके नेता बिना कुछ जाने समझें आग लगाकर निकल जाते हैं. और देर-देर रात तक संसद की कार्रवाइयों में अधीर बाबू को झेलना पड़ता है. चाहे तो यहां नीचे पूरा भाषण सुन सकते हैं. वीडियो देख सकते हैं. या फिर सिर्फ हंसी मजाक के आदि हैं तो वीडियो में 35 मिनट के बाद का करीब 2-5 मिनट का हिस्सा जरूर देखें. राहुल के सांसद लपेटे जा रहे हैं और देश का नेतृत्व करने का ख्वाब देखने वाला वहां मौजूद नहीं है. बार-बार कहता हूं कि सड़क पर दिए गए नेताओं के बयान कोई मायने नहीं रखते. आप समझ नहीं पाएंगे कि आपका नेता असल में चाहता क्या है. वहां वही बात होती है जो देश समाज चाहता है. अनर्गल प्रलाप नहीं. संसद में नेता क्या कहते सुनते पाए जाते हैं यह ज्यादा मायने रखता है. संसद में कही गई बातें दर्ज होती हैं. और संसद से ही नेताओं की छवि और उनकी गंभीरता का अंदाजा लग पाता है.
भारत राहुल के पुरखों की जागीर नहीं है, कब समझेंगे वे?
बावजूद नेता एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते हैं. उसमें सच भी होता है और झूठ का भी. राहुल गांधी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं. अब इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वे क्यों बड़े नेता हैं? यह उनकी पार्टी का अपना सवाल है. मगर देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में उनकी जवाबदारी देश के प्रति भी है. अगर वे समझें तो. पर उनके बयान साफ़ कर देते हैं कि वे कितने जिम्मेदार हैं- भले वह गांधी नेहरू के परिवार से ही हों. वे सिर्फ इसी बिना पर चाहते हैं कि भारत पर शासन करने का इकलौता हक़ सिर्फ उन्हीं का है. आज वे जिस भारत यात्रा पर मजबूरी में निकले हैं- अगर समय रहते ध्यान दिया होता तो शायद उन्हें इसकी जरूरत नहीं पड़ती. उनकी छवि कभी नहीं सुधर सकती है. सवाल है कि जो नेता संसद में रहता ही नहीं है वह- माइक बंद करने के अनर्गल आरोप लगाने का साहस भी कहां से जुटा लेता है?
हैरानी तो इस बात की है कि ग्रीन एनर्जी की होड़ में दिख रहे लोकतांत्रिक, सभ्य और पढ़े-लिखे लेफ्ट लिबरल धड़े को भी यह सब नजर नहीं आ रहा. जो उनके पास जाए और कहें- ठीक है भैया. मान लिया कि आप पप्पू नहीं हो. लेकिन यार बंद करो. ये नेहरू गांधी और राजीव के जमाने का भारत नहीं है. यह मोदी, तेजस्वी, एकनाथ, अखिलेश, ममता, मायावती के जमाने भारत है. कुछ तो ख्याल रखो. मुझे नहीं पता कि यूपी में कांग्रेस सातवें नंबर की पार्टी है या फिर आठवें. मैं कई महीनों से चेक नहीं कर पाया. जरूरत ही नहीं पड़ी. मुझे बता देना आप. खैर, यूपी में यात्रा पहुंचने पर राहुल ने संसद में अपनी आवाज बंद करने का आरोप लगाया है. उन्होंने कहा कि वे जब बोलते हैं तो सरकार उनके माइक की आवाज बंद कर देती है. एक तरह से वे सरकार पर मनमाने तरीके से विपक्ष नहीं बल्कि राहुल की आवाज को बंद करने का आरोप लगा रहे थे. उन्होंने कहा- इसी वजह से जनता के साथ संवाद करने के लिए सड़क पर उतरे हैं. भारत जोड़ो यात्रा को लेकर.
भारत जोड़ो यात्रा के बावजूद पप्पू की छवि से क्यों मुक्त नहीं होंगे राहुल गांधी ?
चूंकि अभी कुछ ही दिन पहले संसद में राहुल की मौजूदगी को लेकर इंडियन एक्सप्रेस में छपी विधात्री राव की रिपोर्ट पढ़ने को मिली थी- अब राहुल के बयान से मैं निश्चित हो गया कि कुछ भी हो जाए डायनिस्टिक विरासत से निकला यह नेता आजन्म पप्पू की छवि से मुक्त नहीं हो सकता. संसद में राहुल की मौजूदगी राष्ट्रीय औसत से भी घटिया है. वह भी उस स्थिति में कि पिछले दो साल से यह नेता चुनावी जलसों में नहीं दिखता. सभाएं रैलियां ना के बराबर है. हिमाचल गुजरात में तो गया तक नहीं. पार्टी में किसी भी तरह के दायित्व से मुक्त है. उन्हें कभी पार्टी के लिए समीक्षा बैठक, कार्यकर्ताओं के साथ संवाद करते हुए भी नहीं देखा गया. अलबत्ता उन्हें छुट्टी मनाते और बार-बार विदेश यात्राओं पर बिना नागा जाते हुए देखा जाता है. मैं जिस रिपोर्ट की बात कर रहा हूं उसके मुताबिक़ लोकसभा में कांग्रेस नेता की मौजूदगी मात्र 53 प्रतिशत है. जबकि राहुल जिस राज्य से सांसद हैं अकेले वहां के सांसदों की औसत मौजूदगी 84 प्रतिशत है. अंदाजा लगा सकते हैं. फिर भी पिछली लोकसभाओं की तुलना में 17वीं लोकसभा में उनकी मौजूदगी बहुत बेहतरीन कह सकते हैं. तारीफ़ के काबिल.
संसद में मौजूदगी के पिछले विवरण तो और भी औसत और भी घटिया नजर आते हैं. 16वीं लोकसभा में राष्ट्रीय औसत 80 प्रतिशत के मुकाबले राहुल की मौजूदगी मात्र 52 प्रतिशत है. उन्होंने सिर्फ 14 डिबेट में हिस्सा लिया. इससे पहले 15वीं लोकसभा में जब उनकी सरकार थी- उनकी मौजूदगी मात्र 43 प्रतिशत है. जो राष्ट्रीय औसत 76 प्रतिशत से लगभग आधा है. उन्होंने मात्र 2 डिबेट में हिस्सा लिया. सिर्फ 2 डिबेट. राहुल तब अमेठी से सांसद थे. समझ नहीं आता कि बिना जिम्मेदारी के आखिर वे व्यस्त कहां रहें? उनकी जो मौजूदगी दिखती है उसका भी आलम यह है कि संसद में कभी-कभार स्टंटबाजी के लिए पहुंचते हैं. सवाल दागते हैं और फिर निकल आते हैं. पार्टी सांसदों को अकेला छोड़कर. ठीक वैसे ही जैसे खबर आती है कि राहुल किसी विदेश यात्रा पर निकल गए हैं और उनकी पार्टी जूझ रही है. उनके इसी ट्रेंड को लेकर शुरू में ही ऊपर अधीर वाले मामले में जिक्र किया गया है. अब सवाल है कि जब राहुल गांधी संसद में मौजूद ही नहीं रहते हैं तो भला कैसे सरकार ने उनकी माइक बंद कर दी? और माइक बंद होती तो वो सवाल कैसे पूछते थे, जिस पर प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री जवाब देते हैं मगर वे संसद में होते ही नहीं. दिल्ली में ही होते हैं पर कहां और क्या करते हैं- किसी को नहीं पता.
बनना प्रधानमंत्री है मगर वोट-ताकत दूसरे का हो, अब कैसे हो सकता है यह?
अपनी लोकसभा सीट तक गंवा चुके हैं. मगर बनना प्रधानमंत्री है. और कैसे बनना है? कोई अखिलेश यादव कोई तेजस्वी यादव, कोई मायावती आए और कह दें कि राहुल तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं. राहुल जी देश बदल चुका है. राजनीति बदल चुकी है. अब दरी बिछाने वाले नहीं रहे. उन्हें उनकी योग्यता के हिसाब से हिस्सेदारी चाहिए. राहुल और उनका पीआर दस्ता विपक्षी नेताओं पर भी सवाल उठा रहा है. जैसे चुनाव में मुसलमान मतदाताओं को लेकर सपा के खिलाफ नैरेटिव चलाया. सिर्फ इसलिए कि भाजपा के खिलाफ राहुल की बजाए कहीं अखिलेश को बड़ा एज ना मिल जाए. अखिलेश को उसका बहुत नुकसान हुआ. बावजूद अभी भी कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता कह रहे हैं कि अखिलेश-मायावती जैसे नेता यात्रा में इसलिए शामिल नहीं हो रहे कि वे सरकार से डर रहे हैं? चेक कर लीजिए. नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है. ताज्जुब इस बात का है कि विपक्षी नेता भी राहुल और उनके दरबारियों को कायदे से जवाब नहीं दे पा रहे हैं.
क्या राहुल चाहते हैं कि विपक्ष भी गांधी नेहरू को अब भी डिफेंड करता रहे, जैसे करते-करते बर्बाद हो गया. राममनोहर लोहिया जैसे विचारक जीवनपर्यंत नेहरू-जिन्ना की राजनीति का विरोध करते रहे. उन्होंने ना जाने कितनी मर्तबा कहा कि भारत राम-कृष्ण-गौतम के बिना पूर्ण नहीं हो सकता. मगर सामजिक न्याय और समाजवाद बचाने के लिए निकले नेताओं ने सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने भर के लिए कांग्रेस की जमीन चुनी और लोहिया को सिर्फ पोस्टर पर जगह दी. उनके विचार का प्रसार करने की बजाए नेहरू और जिन्ना के पक्ष में तर्क गढ़ते रहें. उनकी छवि ही चमकाते रहें और जाने अनजाने वोट बैंक की सुरक्षित राजनीति के चक्रव्यूह में फंस गए. अखिलेश वगैरह को समझना चाहिए.
राहुल कितना भी कोशिश कर लें- सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट की वजह से उनका डूबना तय है. सनम लेकर भी डूबेंगे. अब सनम कौन-कौन होगा यह देखने वाली बात है. बाकी भाई बहन की चुम्मी-सुम्मी से कुछ होने वाला नहीं. यह राजनीति है. राहुल जितना प्यार करते हैं, हर कोई अपनी बहन से करता है.
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