इंडिया टुडे के सर्वे में देश का मिजाज जानने की कोशिश हुई तो मालूम हुआ हर तरफ 'मोदी-मोदी' गूंज रहा है. हैरानी की बात तो ये है कि विपक्षी खेमे में भी मन की बात 'मोदी-मोदी' ही लग रही है. अगर ऐसा नहीं है तो मोदी के कट्टर विरोधी भी उन पर सीधे हमले से बचने क्यों लगे हैं? केजरीवाल खामोश हैं, राहुल गांधी के स्ट्रैटेजी बदलने की चर्चा है - और अब ममता ने तो लगता है जैसे हथियार ही डाल देने का फैसला किया है.
मोदी का आभामंडल!
आखिर मोदी ने कौन सा आभामंडल तैयार कर दिया है कि एक एक करके सारे विरोधी धड़ाधड़ उनके फैन होते जा रहे हैं. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल बाद 12 से 23 जुलाई को हुए सर्वे से पता चला कि अगर तत्काल चुनाव कराये जायें तो बीजेपी को 349 सीटें मिल सकती हैं. हालांकि, अमित शाह ने 2019 के लिए इससे कुछ ज्यादा का ही लक्ष्य निर्धारित किया है.
क्या ये नये जमाने के हिंदुत्व की राजनीति का असर है? क्या विपक्ष को लगने लगा है कि मोदी पर सीधे हमले का मतलब हिंदुत्व को लेकर भावनात्मक विचार वाले वोट बैंक से हाथ धोना हो सकता है? वैसे निजी हमलों का क्या खामियाजा होता है, इसके कम से कम दो स्पष्ट उदाहरण तो हैं ही - एक, दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के गोत्र पर बीजेपी नेताओं द्वारा सवाल खड़े करना - और दूसरा, बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नीतीश कुमार के डीएनए में खोट बताना. बार बार साबित हो चुका है कि ऐसे दाव उल्टे पड़ते हैं.
तो क्या विपक्ष को अब ये भी समझ आने लगा है कि उन सभी के मुकाबले नरेंद्र मोदी का संदेश लोगों तक सीधा पहुंच रहा है? फिर इसका तो मतलब यही हुआ कि मोदी को सीधे सीधे टारगेट करना अवाम की नजर में सीधे सीधे खलनायक बन जाना...
इंडिया टुडे के सर्वे में देश का मिजाज जानने की कोशिश हुई तो मालूम हुआ हर तरफ 'मोदी-मोदी' गूंज रहा है. हैरानी की बात तो ये है कि विपक्षी खेमे में भी मन की बात 'मोदी-मोदी' ही लग रही है. अगर ऐसा नहीं है तो मोदी के कट्टर विरोधी भी उन पर सीधे हमले से बचने क्यों लगे हैं? केजरीवाल खामोश हैं, राहुल गांधी के स्ट्रैटेजी बदलने की चर्चा है - और अब ममता ने तो लगता है जैसे हथियार ही डाल देने का फैसला किया है.
मोदी का आभामंडल!
आखिर मोदी ने कौन सा आभामंडल तैयार कर दिया है कि एक एक करके सारे विरोधी धड़ाधड़ उनके फैन होते जा रहे हैं. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल बाद 12 से 23 जुलाई को हुए सर्वे से पता चला कि अगर तत्काल चुनाव कराये जायें तो बीजेपी को 349 सीटें मिल सकती हैं. हालांकि, अमित शाह ने 2019 के लिए इससे कुछ ज्यादा का ही लक्ष्य निर्धारित किया है.
क्या ये नये जमाने के हिंदुत्व की राजनीति का असर है? क्या विपक्ष को लगने लगा है कि मोदी पर सीधे हमले का मतलब हिंदुत्व को लेकर भावनात्मक विचार वाले वोट बैंक से हाथ धोना हो सकता है? वैसे निजी हमलों का क्या खामियाजा होता है, इसके कम से कम दो स्पष्ट उदाहरण तो हैं ही - एक, दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के गोत्र पर बीजेपी नेताओं द्वारा सवाल खड़े करना - और दूसरा, बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नीतीश कुमार के डीएनए में खोट बताना. बार बार साबित हो चुका है कि ऐसे दाव उल्टे पड़ते हैं.
तो क्या विपक्ष को अब ये भी समझ आने लगा है कि उन सभी के मुकाबले नरेंद्र मोदी का संदेश लोगों तक सीधा पहुंच रहा है? फिर इसका तो मतलब यही हुआ कि मोदी को सीधे सीधे टारगेट करना अवाम की नजर में सीधे सीधे खलनायक बन जाना होगा.
राहुल गांधी ने बदली रणनीति
नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी हमेशा ही तेज हमलावर रहे हैं. या कहें कि राहुल अपने निशाने पर मोदी स्थाई भाव में रखते हैं. हाल के दिनों में पहली बार देखने को मिला कि गोरखपुर मामले में राहुल गांधी के निशाने पर योगी सरकार रही - वरना, उनके सलाहकार उसके लिए भी मोदी का कोई न कोई कनेक्शन खोज ही डाले होते.
समय समय पर राहुल गांधी ने मोदी सरकार के खिलाफ कई मुहावरे भी पेश किये हैं जो काफी चर्चित भी हुए - मसलन, 'सूट-बूट की सरकार', 'फेयर एंड लवली सरकार', 'खून की दलाली'. अंग्रेजी अखबार मेल टुडे की रिपोर्ट के अनुसार राहुल गांधी अब अपनी स्ट्रैटेजी में बदलाव कर रहे हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार राहुल गांधी अब प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ सीधे हमले से बचेंगे. रिपोर्ट में बताया गया है कि वो अब बीजेपी को भी सीधे सीधे टारगेट नहीं करने वाले बल्कि अब उनके निशाने पर सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होगा. तो समझा जाना चाहिये कि राहुल गांधी अब संघ की आइडियोलॉजी पर हमला बोलेंगे और सरकार की तमाम गलतियों के लिए आगे से सिर्फ उसे जिम्मेदार ठहराएंगे.
वैसे इसकी एक झलक शरद यादव के शक्ति शो - 'साझी विरासत बचाओ सम्मेलन' में भी देखने को मिली. सम्मेलन में राहुल गांधी ने कई तरीके से समझाने की कोशिश की कि संघ संस्थाओं में अपने आदमी बैठाने की मुहिम चला रहा है. राहुल ने कहा था कि वो जानते हैं कि उनकी आइडियोलॉजी देश में चुनाव नहीं जीत सकती, इसलिए न्यायपालिका में, नौकरशाही में, सेना में और मीडिया में पैठ बनाना चाहते हैं और जिस दिन ये सब हो जाएगा ये देश उनका हो जाएगा. सम्मेलन में राहुल गांधी ने संघ पर बड़ा हमला बोला था - इन लोगों ने तिरंगे को सलाम करना भी सत्ता में आने के बाद सीखा.
केजरीवाल का 'नो-बवाल'
केजरीवाल तो लगता है राहुल गांधी से बहुत पहले ही मोदी पर हमले से नुकसान को भांप चुके थे. हो सकता है इसकी वजह पंजाब और गोवा चुनावों में मिली हार हो या फिर कपिल मिश्रा की भ्रष्टाचार के आरोपों से लैस मिसाइलें. देखा गया कि केजरीवाल और उनके टीम ने एमसीडी चुनाव के ऐन पहले मोदी पर निजी हमलों से परहेज करने लगे थे - और अब तो सोशल मीडिया पर कई बार लोग पूछ भी चुके हैं कि आखिर केजरीवाल को हो क्या गया है? लोग कह रहे हैं कि बहुत दिनों से केजरीवाल के मुहं से प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ कुछ बुरा भला सुनने को कान तरस गये हैं. वे पूछते हैं - सब खैरियत तो है ना?
ये वही केजरीवाल हैं जो सर्जिकल स्ट्राइक पर मोदी से सबूत मांग रहे थे. ये वही मुख्यमंत्री हैं जो प्रधानमंत्री को 'मनोरोगी' से लेकर 'कायर' तक बता चुके हैं. अप्रैल की शुरुआत में केजरीवाल एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी की रैली को संबोधित कर रहे थे जिसमें उन्होंने मोदी के समर्थकों को भी पागल बता डाला.
रैली में कुछ लोग जब मोदी-मोदी के नारे लगाने लगे तो केजरीवाल बोले, "इन लोगों से पूछिए मोदी-मोदी के नारे लगाने से क्या उनका हाउस टैक्स माफ हो जाएगा? क्या मोदी ने उनके बिजली के बिल कम किये? अगर ऐसा है तो मैं भी मोदी-मोदी चिल्लाऊंगा."
फिर केजरीवाल ने कहा, "मोदी-मोदी करने से पेट नहीं भरता... कुछ लोग पागल हो गये हैं."
ऐसे में जबकि नीतीश कुमार भी अपनी पार्टी जेडीयू के साथ एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं, केजरीवाल की खामोशी काफी अटपटी लगती है. लेकिन उससे भी ज्यादा हैरानी होती है - मोदी के प्रति ममता बनर्जी के रुख में आये बदलाव को देख कर.
ममता का नया पैंतरा
विपक्षी एकजुटता में ममता बनर्जी की सक्रियता से लगने लगा था कि वो धीरे धीरे नीतीश की जगह लेने का प्रयास कर रही हैं. ममता ने विपक्षी खेमे से केजरीवाल को दूर रखने का मसला भी उठाया है और कांग्रेस नेतृत्व को उनके नाम पर जिद छोड़ने की सलाह दी है. लेकिन ममता का ताजा बयान तो लगता है कि वो वास्तव में नीतीश की ही राह पर तेजी से बढ़ने लगी हैं. शायद वही राह जिसकी मंजिल फिलहाल एनडीए कहा जाने लगा है. हालांकि, ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना अभी जल्दबाजी भी लगती है.
चाहे वो नोटबंदी का मसला रहा हो या फिर जीएसटी का, ममता ने आगे बढ़ कर मोदी विरोध का झंडा उठाया है. नोटबंदी पर तो केजरीवाल के साथ उन्होंने दिल्ली में भी विरोध जताया और नीतीश को भी उनकी आवाज ठीक से सुनाई दे इसलिए पटना रैली करने पहुंच गयीं.
ममता का ताजा पैंतरा काफी कुछ राहुल गांधी जैसा ही लगता है. जिस तरह राहुल गांधी की रणनीति में मोदी और बीजेपी से परहेज और निशाने पर संघ है, उसी तरह ममता का मोदी पर हमले से परहेज और शाह पर निशाना समझ में आ रहा है.
ये बात ममता के एक बयान से ही साफ हो जाती है - "मैं प्रधानमंत्री मोदी का तो फेवर करती हूं, शाह का नहीं. मैं प्रधानमंत्री को दोष नहीं देती. मैं उन्हें दोष क्यों दूं? उनकी पार्टी को इसका ध्यान रखना चाहिए."
लगता है ममता का निशाना मोदी से हट कर शाह की ओर शिफ्ट हो गया है. ममता कहती हैं, "देश में सुप्रीम तानाशाही का वातावरण है, जिसमें एक पार्टी अध्यक्ष सरकारी मामलों में दखल कर रहे हैं."
मोदी के प्रति ममता के इस सॉफ्ट कॉर्नर को बीजेपी सरकार की गरीबों की पक्षधर नीतियों पर इकबालिया बयान बताने की कोशिश कर रही है. ममता का ये स्टैंड विपक्ष के लिए ताज्जुब की बात तो है, लेकिन लगे हाथ ममता बीजेपी को कन्फ्यूज भी कर रही हैं, "आप एक नीतीश कुमार के बारे में सोच रहे हैं, लेकिन मैं 100 शरद यादव, 100 लालू प्रसाद, 100 अखिलेश यादव के बारे में सोच रही हूं."
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