मेरे एक मित्र अभी अभी बिल्कुल हाल में भूटान घूमने गए थे. उन्होंने यात्रा संस्मरण में बताया कि वहां जाने के लिए कोई वीजा-पासपोर्ट नहीं लगता, मगर हरेक भारतीय को इमिग्रेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं. औपचारिकताओं में पहचान के लिए भारतीय नागरिकों से पासपोर्ट या फिर मतदाता कार्ड ही स्वीकार किए जाते हैं- आधार कार्ड और दूसरे पहचान पत्र नहीं. जबकि भूटान से हमारे यहां आने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसी औपचारिकताओं से गुजरना नहीं पड़ता. मेरे मित्र इसे न्यायपूर्ण नहीं मानते. आधार कार्ड को भले अभी भूटान में जाने के लिए पहचान के वैध दस्तावेज के रूप में ना स्वीकार किया जा रहा हो, बावजूद इस्मालिस्ट आतंकियों के लिए यह भी पहचान का एक वैध पत्र है.
लाइन ऑफ़ कंट्रोल के नजदीक राजौरी जिले के एक गांव डांगर में नए साल के पहले ही दिन दो नकाबपोश हथियारबंद इस्लामिस्ट- हिंदू घरों में घुसे. अपने ही लोग इस्लामिस्ट आतंकी अभियान का हिस्सा ना बन जाए, इसके लिए उन्होंने परिवारों से आधार कार्ड मांगे. पहले की निशानदेहियों के बावजूद उनकी धार्मिक पहचान मौके पर पुख्ता की गई. फिर बेतहाशा गोलियां बरसाकर चार लोगों की जान ली गई. कुछ जख्मी भी हैं. यह टारगेट किलिंग का वही सिलसिला है जो कश्मीर में पिछले एक हजार साल से जारी है. बस फर्क यही है कि हजार साल के 'बलात अनुवांशिक' बदलाव में हिंदुओं की हत्या अब किसी अफगानी/तुर्क हमलावर की बजाए- उन लोगों के हाथ हो रही है, अतीत में जिनके पूर्वज भी लगभग इसी तरह के हालात का शिकार बने थे. वीभत्स इतिहास का अंदाजा लगाया जा सकता है.
सेंस ऑफ़ इनटाइटलमेंट की अय्याशी में उपजी नाजायज संतति को सबकुछ हरा-हरा क्यों दिख रहा?
अभी पिछले साल जब 'द कश्मीर फाइल्स' आई थी- उसमें हिंदुओं पर टारगेट किलिंग को ही दिखाया गया था. उन किलिंग्स का धार्मिक मकसद साफ़ था. असल में वह कश्मीर में अनुवांशिकी बदल जाने के बाद वहां के इतिहास की सबसे निर्मम कार्रवाई थी. समूल सफाए कि निर्णायक कार्रवाई भी कह सकते हैं. 90 के दशक में उसका चरम था. मगर सेन्स ऑफ़...
मेरे एक मित्र अभी अभी बिल्कुल हाल में भूटान घूमने गए थे. उन्होंने यात्रा संस्मरण में बताया कि वहां जाने के लिए कोई वीजा-पासपोर्ट नहीं लगता, मगर हरेक भारतीय को इमिग्रेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं. औपचारिकताओं में पहचान के लिए भारतीय नागरिकों से पासपोर्ट या फिर मतदाता कार्ड ही स्वीकार किए जाते हैं- आधार कार्ड और दूसरे पहचान पत्र नहीं. जबकि भूटान से हमारे यहां आने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसी औपचारिकताओं से गुजरना नहीं पड़ता. मेरे मित्र इसे न्यायपूर्ण नहीं मानते. आधार कार्ड को भले अभी भूटान में जाने के लिए पहचान के वैध दस्तावेज के रूप में ना स्वीकार किया जा रहा हो, बावजूद इस्मालिस्ट आतंकियों के लिए यह भी पहचान का एक वैध पत्र है.
लाइन ऑफ़ कंट्रोल के नजदीक राजौरी जिले के एक गांव डांगर में नए साल के पहले ही दिन दो नकाबपोश हथियारबंद इस्लामिस्ट- हिंदू घरों में घुसे. अपने ही लोग इस्लामिस्ट आतंकी अभियान का हिस्सा ना बन जाए, इसके लिए उन्होंने परिवारों से आधार कार्ड मांगे. पहले की निशानदेहियों के बावजूद उनकी धार्मिक पहचान मौके पर पुख्ता की गई. फिर बेतहाशा गोलियां बरसाकर चार लोगों की जान ली गई. कुछ जख्मी भी हैं. यह टारगेट किलिंग का वही सिलसिला है जो कश्मीर में पिछले एक हजार साल से जारी है. बस फर्क यही है कि हजार साल के 'बलात अनुवांशिक' बदलाव में हिंदुओं की हत्या अब किसी अफगानी/तुर्क हमलावर की बजाए- उन लोगों के हाथ हो रही है, अतीत में जिनके पूर्वज भी लगभग इसी तरह के हालात का शिकार बने थे. वीभत्स इतिहास का अंदाजा लगाया जा सकता है.
सेंस ऑफ़ इनटाइटलमेंट की अय्याशी में उपजी नाजायज संतति को सबकुछ हरा-हरा क्यों दिख रहा?
अभी पिछले साल जब 'द कश्मीर फाइल्स' आई थी- उसमें हिंदुओं पर टारगेट किलिंग को ही दिखाया गया था. उन किलिंग्स का धार्मिक मकसद साफ़ था. असल में वह कश्मीर में अनुवांशिकी बदल जाने के बाद वहां के इतिहास की सबसे निर्मम कार्रवाई थी. समूल सफाए कि निर्णायक कार्रवाई भी कह सकते हैं. 90 के दशक में उसका चरम था. मगर सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट की अय्याशी में नाजायज तरीके से पैदा हुआ और 'सेकुलरिज्म खैरात' पर पलने वाले 'हरामखोर' लिबरल्स को 'द कश्मीर फाइल्स' में दिखे टारगेट किलिंग के दृश्य प्रोपगेंडा नजर आए. हजारों भुक्तभोगियों की आपबीती में झूठा प्रचार दिखा. उन्हें फिल्म के जरिए धार्मिक बंटवारे की कोशिश नजर आई. लिबरल्स ने तर्क दिए कि इस्लामी आतंकियों ने तो तब घाटी में मुस्लिमों की भी हत्याएं की थीं, भला यह कैसे धार्मिक आधार पर की गई हत्याएं कहीं जा सकती हैं? कश्मीरी गैर मुस्लिम रोते चिल्लाते रहें, बार-बार दिल्ली ने उन्हें झूठा कहके भगा दिया और हुर्रियत के आतंकियों की अगवानी भारत के तमाम प्रधानमंत्री करते रहे.
लेकिन भारत के लिबरल यह बताना भूल गए कि वहां जिन मुस्लिमों की हत्या की गई असल में वह कौन थे? उन्हें किस आधार पर चिन्हित किया गया था? उन्हें भी तो चिन्हित ही किया गया था? ऐसे महान लिबरलों को जान लेना चाहिए कि वह भी टारगेट किलिंग ही थी. उन्होंने कश्मीर पर अब्दुल्लाओं को क्लीन चिट देते हुए किताबें लिखीं और बताया कि कैसे स्टेट की क्रूरताओं के खिलाफ घाटी में लोगों ने हथियार उठाए.
बहरहाल, राजौरी में जो हुआ- या फिर अफगानिस्तान में राजनीतिक बदलाव देखने को मिला. पाकिस्तान अफगानिस्तान में संघर्ष या फिर घाटी में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के पहुंचने से पहले, इस तरह की घटनाओं का जो सिलसिला बढ़ा है- अगर नहीं बढ़ता तो हैरानी होती. भारत विरोधी विचार और सेंस ऑफ़ इनटाइटलमेंट के नशे में चूर फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती तो एक लंबे वक्त से धमका रही हैं कि घाटी में 90 जैसे हालात आने वाले हैं. लोगों को मजबूर कर दिया गया है. हमारे सब्र का बांध टूट चुका है. बावजूद कि फारुख ने अभी ठीक एक हफ्ता पहले कहा था कि कश्मीरी (हिंदू भी) भारत का हिस्सा नहीं हैं. वह हमारे हैं और अतीत में उनके साथ जो हुआ भविष्य में नहीं होने देंगे, बावजूद कि फारुख के पूर्ववर्ती बयान सच होते दिखे हैं कि घाटी में जो जलजला उठेगा, सेना सरकार रोक नहीं पाएगी.
राहुल भी भारत जोड़ो यात्रा लेकर कुछ दिन में पहुंचने ही वाले हैं. लिबरल्स को छोड़ भी दिया जाए- लगा रहा कि भारत का मीडिया तक राजौरी की घटना को क़ानून-व्यवस्था की मामूली खामी ही समझ रहा. क्या ही कहा जाए जब कश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा तक कह जाते हैं कि कश्मीर की ऐसी चीजों को धार्मिक आधारों पर ना देखा जाए. अब सवाल है कि भारत में भी ना देखा जाए तो कहां देखा जाए? भारत में इस्लामिस्ट जिन्हें मारते हैं उसके पीछे कोई भी वजह हो सकती है पर ऐतिहासिक रूप से वजहें हिंदू नहीं हो सकती. तो क्या यह धार्मिक विभाजन पाकिस्तान में देखा जाए?
भीलनी क्षत्राणी की घटना से पता चलता है कि हिंदू पाकिस्तान में हैं भारत में नहीं
अभी हाल ही में पाकिस्तान में एक भील महिला के साथ गैंगरेप हुआ और बेरहमी से उसकी हत्या की गई. जानते हैं कैसे? 42 साल की महिला को अगवा किया गया. उस पर कई लोगों ने रेप किया. क्या यह किसी महिला पर रेप भर था? मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा- बिल्कुल भी नहीं. अगर रेप होता तो उसके स्तन क्यों काटे गए? उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया गया. उसकी खाल तक उधेड़ी गई. रेप की ऐसी घटनाएं कहां दिखती हैं? मैंने बिसरा रिपोर्ट नहीं देखा मगर दावे से कह सकता हूं कि उस बहादुर भील क्षत्राणी की हत्या से पहले उसका स्तन काटा गया होगा और शरीर की खाल निकाली गई होगी. बिल्कुल आखिर में उसका गला काटा गया होगा. वो भले तड़प-तड़प के मरी होगी, मगर उसने सिद्ध कर दिया कि वह विस्पला की ही बेटी है. वह छत्रपति संभाजी का ही खून है और जिस माता के स्तन से दूध पीकर महाराणा प्रताप ने जीवन पर्यंत संघर्ष किया- उसी माता का दूध उसकी रगों में खून बनकर बह रहा था.
उसके खिलाफ हुई भयावहता साफ़ बताती है कि उसी खून का आख़िरी कतरा बह जाने तक उसने जरूरी संघर्ष किया होगा? नाजायज प्रलोभनों को खारिज करते हुए. बेशक उसे 72 हूरों में से एक बनाने का भी प्रलोभन दिया गया होगा. वह बदल जाए, कोशिश जरूर हुई होगी. लेकिन मैंने नहीं देखा कि नाजायज पैदाइश वाले एक भी लिबरल की नजर उस घटना पर पड़ी हो.आपने देखा होगा तो मुझे भी बता देना. और तो और प्रज्ञा ठाकुर के पीछे पड़ा गोदी मीडिया भी खामोश रहा. बावजूद उस क्षत्राणी को लोगों ने आदिवासी की बजाए हिंदू ही कहा. चलो कम से कम पाकिस्तान में तो हिंदू पाए जाते हैं, और उत्पीडन भी झेलते हैं. धार्मिक हिंसा का शिकार भी होते हैं. दुर्भाग्य से कश्मीर से केरल तक हिंदू नहीं मिलते. बस उनके फिरके दिखते हैं. लेकिन आदि पिता बिरसा मुंडा की तरह जैसे ही कोई आदिवासी छत्तीसगढ़ में एक मनमाने चर्च पर हमला करते दिखता है- उसकी पहचान हिंदू निकलकर आती है. भगवा पर बेशरम रंग का विरोध उन्हें हिंदू विरोध नजर आने लगता है.
तो भूटान जाने वाले मेरे मित्र को जो चीज अन्यायपूर्ण दिखी, मुझे लगता है कि उसी ने भूटान की आत्मा को अभी भी बचाए रखा है. उन्हें अपने नियमों में ज्यादा छूट नहीं देनी चाहिए. मेरा तो ये मानना है कि उन्हें अब सिर्फ भारतीय पासपोर्ट को ही पहचानपत्र के रूप में स्वीकार करना चाहिए. पासपोर्ट तमाम तरह की जांच के बाद ही किसी को दिए जाते हैं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि भारत में नागरिक के तौर पर सिर्फ भारतीय ही नहीं रहते. यहां नाना प्रकार के बहरुपिए हैं. जो शायद किसी इंतज़ार में बैठे हैं. मेरे मित्र को बुरा नहीं मानना चाहिए. उन्हें नेपाल को भी देखना चाहिए. नेपाल ने तमाम ढीलें दीं, जैसा मेरे मित्र शायद भूटान के मामले में चाहते हैं. नेपाल का अंजाम देख लीजिए. सीमांचल की गंदगी उसकी नस में जहर बनकर घुलने लगी है. सीमांचल से सटी सीमा पर नेपाल के रास्ते भारत विरोधी तस्करी का सबसे बड़ा प्रवेशद्वार है. काश कि हजार साल पहले अपनी अनुवांशिकी बचाने के लिए भूटान की तरह भारत ने भी कुछ कड़े इंतजाम किए होते.
राजौरी में मारे गए लोगों के लिए सर्जिकल स्ट्राइक का साहस किसी में नहीं
राजौरी में जो लोग आधार कार्ड चिन्हित कर मारे गए उनकी कोई पहचान नहीं है. उनको कोई पूछने वाला नहीं है. वैसे ही जैसे पाकिस्तान में मारी गई महिला को पूछने वाला कोई नहीं हैं. बावजूद कि यह युद्ध है. एक ऐसा युद्ध जिसमें हम जाने-अनजाने शामिल हैं. वह युद्ध जिसमें हजार साल से एक दिन के लिए भी सीजफायर नहीं दिखता. राजौरी में जिन लोगों का खून बहा है वह पानी है. वह लोकतंत्र की ऐसी भेड़-बकरियां हैं जिनका भारत के लोकतंत्र में कोई निर्णायक योगदान नहीं है. उनमें सरकार बनाने बिगाड़ने की क्षमता नहीं है. भले ही उसे आतंकियों ने मारा हो, लेकिन उनके लिए कोई मोदी कोई शाह भी सर्जिकल स्ट्राइक करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते. भारत तुम खुद पर शर्म क्यों नहीं करते?
कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल, असम, पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जिस तरह नाबालिग बच्चे गैर मुस्लिमों को काटने की सलाह दे रहे हैं- यह अलर्ट होने का समय है. फारुख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और ओवैसी जिस तरह धमका रहे हैं- यह होशियार हो जाने का समय है. और एक लिहाज से साध्वी प्रज्ञा ठीक ही कह रही थीं. आत्म रक्षार्थ लोगों को अपनी सुरक्षा के लिए खुद मुस्तैद होना पड़ेगा. कश्मीर पर पीछे जाने की जरूरत नहीं है. जो किताबें हों- उन्हें जला दीजिए. क्योंकि इसे किसी ने सरकारी टीवी का सम्पादक बनने के लिए लिखी है, किसी ने जेएनयू में प्रोफ़ेसर बनने के लिए. किसी ने राजदूत बनने के लिए लिखी है. कोई ऐसी ही लिखावटो से बॉलीवुड का बड़ा चेहरा बना है. कश्मीर पर आई अब तक कि तमाम किताबों पर आधार कार्ड से पहचान कर मारे गए लोगों की दास्ताँ ही काफी है.
देख लीजिए- अतीत में आपके कश्मीर के साथ क्या हुआ था?
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