आजकल मुझे आदमियों की बातें कम परेशान करती हैं. पितृसत्ता उनका घर है. वे ज़ाहिरन वैसी बात करेंगे जिनमें उन्हें सेफ़ इस्केप मिले. मुझे परेशान करती है पढ़ी-लिखी स्त्रियों की नासमझी (कूढ़मगजी अधिक उपयुक्त शब्द होता यहां पर तीख़ा होता)… उनकी ज़ुबान की दूसरी-तीसरी परतों में खिलती-हंसती औरत विरोधी कंडिशनिंग. आज दो पोस्ट दिखे. एक वरिष्ठ लेखिका के संवादों पर आधारित एक रपट भी दिखी. एक पोस्ट में बौद्धिक मित्र किसी पुरुष के द्वारा अपनी पत्नी को छोड़ने की वजह किसी अन्य स्त्री को बता रही हैं. वे कहती हैं स्त्री ने उक्त व्यक्ति पर अपनी पत्नी को छोड़ने का दवाब बनाया. वे इतनी स्वार्थी और बुरी थीं. मैं सोचती हूं, क्यों वह दूसरी स्त्री बुरी है?
कोई बाल-बच्चेदार वयस्क किसी अन्य स्त्री के साथ रहना चुन रहा है तो यह उस व्यक्ति की अपनी बात हुई ना. दो लोगों के सम्बंध में कभी भी और कैसे भी कोई तीसरा आता है तो समस्या उस तीसरे में नहीं होती, यह पहले और दूसरे व्यक्ति के बीच का कमज़ोर रिश्ता होता है.
हां समाज ज़रूर ऐसे रिश्ते में पत्नी को बेचारी, पति को भोला और उस दूसरी स्त्री को समस्या की जड़ बना देता है. कैसे भाएगा इस पुरुषवादी समाज को किसी पुरुष का दोषी होना?
वरिष्ठ लेखिका स्त्री-विमर्श को फ़ेक फ़ेमिनिस्टों के छपास का रोग क़रार देती हैं. मैं उनका मान करती हूं, कई बार उनकी और प्रग्रेसिव बातें भी सुनी हैं पर उनकी वर्तमान टिप्पणी पढ़ते हुए हतप्रभ हो जाती हूं. यह कैसी टिप्पणी है साथी लेखिकाओं के प्रति? क्या यह कोई कुंठा है या वही कंडिशनिंग? मुझे वरिष्ठ लेखिकाओं का यह पक्ष दर्द देने लगा है. कई महिलाएँ लिखती हैं मैं फ़ेमिनिस्ट नहीं हूं क्योंकि...
आजकल मुझे आदमियों की बातें कम परेशान करती हैं. पितृसत्ता उनका घर है. वे ज़ाहिरन वैसी बात करेंगे जिनमें उन्हें सेफ़ इस्केप मिले. मुझे परेशान करती है पढ़ी-लिखी स्त्रियों की नासमझी (कूढ़मगजी अधिक उपयुक्त शब्द होता यहां पर तीख़ा होता)… उनकी ज़ुबान की दूसरी-तीसरी परतों में खिलती-हंसती औरत विरोधी कंडिशनिंग. आज दो पोस्ट दिखे. एक वरिष्ठ लेखिका के संवादों पर आधारित एक रपट भी दिखी. एक पोस्ट में बौद्धिक मित्र किसी पुरुष के द्वारा अपनी पत्नी को छोड़ने की वजह किसी अन्य स्त्री को बता रही हैं. वे कहती हैं स्त्री ने उक्त व्यक्ति पर अपनी पत्नी को छोड़ने का दवाब बनाया. वे इतनी स्वार्थी और बुरी थीं. मैं सोचती हूं, क्यों वह दूसरी स्त्री बुरी है?
कोई बाल-बच्चेदार वयस्क किसी अन्य स्त्री के साथ रहना चुन रहा है तो यह उस व्यक्ति की अपनी बात हुई ना. दो लोगों के सम्बंध में कभी भी और कैसे भी कोई तीसरा आता है तो समस्या उस तीसरे में नहीं होती, यह पहले और दूसरे व्यक्ति के बीच का कमज़ोर रिश्ता होता है.
हां समाज ज़रूर ऐसे रिश्ते में पत्नी को बेचारी, पति को भोला और उस दूसरी स्त्री को समस्या की जड़ बना देता है. कैसे भाएगा इस पुरुषवादी समाज को किसी पुरुष का दोषी होना?
वरिष्ठ लेखिका स्त्री-विमर्श को फ़ेक फ़ेमिनिस्टों के छपास का रोग क़रार देती हैं. मैं उनका मान करती हूं, कई बार उनकी और प्रग्रेसिव बातें भी सुनी हैं पर उनकी वर्तमान टिप्पणी पढ़ते हुए हतप्रभ हो जाती हूं. यह कैसी टिप्पणी है साथी लेखिकाओं के प्रति? क्या यह कोई कुंठा है या वही कंडिशनिंग? मुझे वरिष्ठ लेखिकाओं का यह पक्ष दर्द देने लगा है. कई महिलाएँ लिखती हैं मैं फ़ेमिनिस्ट नहीं हूं क्योंकि मेरे पति, पिता, भाई अच्छे रहे हैं.
मैं इन टिप्पणियों पर पहले हंसती हूं, फिर दुखी होती हूं. पुरुषों से तो पार पा लेंगे हम… उन्हें समझा देंगे कि उनका अधिकार क्षेत्र वहीं तक है जहां से वे स्त्रियों और अन्य जेंडर के अधिकार क्षेत्र में दाख़िल ना होने लगें. इन स्त्रियों का क्या करेंगे? वे पढ़ी-लिखी प्रबुद्ध मानी जाती हैं फिर भी इतना स्त्री-विरोध बचा रखती हैं. क्यों?
मैं इन दिनों वैश्विक बहनापे का पता ढूंढ रही हूं, आपको मिले तो बताइएगा.
(पति-पत्नी के रिश्ते में किसी तीसरे से प्रेम को लेकर मेरी वर्तमान समझ कहती है प्रेम दोष नहीं होता. यह कभी भी किसी से भी हो सकता है. वैवाहिक रिश्ते में किसी तीसरे से प्रेम स्थान ले-ले तो व्यवस्था वैसी होनी चाहिए कि किसी का भी सामाजिक और मानसिक शांति का अधिकार अवरुद्ध ना हो… )
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