कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस गंगोपाध्याय को अपने द्वारा सुनवाई किए जा रहे मामले पर साक्षात्कार देने की कीमत चुकानी पड़ी है. लेकिन सवाल है कि समस्या साक्षात्कार देने में है या विचाराधीन मामलों पर टिप्पणी करने में? निःसंदेह साक्षात्कार से कोई समस्या नहीं है. कई जज अक्सर साक्षात्कार देते रहते हैं. पिछले दिनों ही स्वयं चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ मीडिया से मुखातिब हुए थे और कलीजियम सिस्टम से लेकर सोशल मीडिया पर जजों की ट्रोलिंग, कोर्ट की लंबी छुट्टियों, जजों पर फैसला देते वक्त सरकार की तरफ से किसी तरह के दबाव और न्यायपालिका की स्वतंत्रता तक तमाम सवालों का जवाब दिया था. हां , विचाराधीन मामले पर किसी भी जज से कोई भी टिप्पणी कदापि अपेक्षित नहीं है. साक्षात्कारों में विचाराधीन मामलों पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए और कोई जज अगर ऐसा करता है तो वह आम लोगों के मन में अपनी और अदालत की निष्पक्षता पर संदेह के जन्म का कारण बनता है. वैसे भारत में जजों के लिए कोई आचार संहिता नहीं है.
हां, कुछ दिशा निर्देश वगैरह जरूर हैं मसलन संविधान के तीसरे शिड्यूल में दी गई सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा ली जाने वाली शपथ, रीस्टटेमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ जुडिशल लाइफ (1999) और बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट (2002) आदि. हालांकि जस्टिस गंगोपाध्याय के जिस साक्षात्कार पर अब संज्ञान दिलाया गया है, जज महोदय ने वह बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट का हवाला देते हुए दिया था.
इसमें यह तो लिखा है कि जजों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार होता है लेकिन यह भी लिखा है कि जजों को सार्वजनिक तौर पर ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिससे किसी व्यक्ति या किसी मुद्दे की न्यायसंगत सुनवाई पर असर पड़े. सो जस्टिस गंगोपाध्याय की दूरदर्शिता काबिले तारीफ है चूंकि उन्हें पता था कि वे जो कह रहे हैं, उसपर विवाद होगा.
तो मुनासिब सवाल उठता है कि क्या उन्होंने न्याय के दायरे में रहकर उवाचा? पारिभाषिक रूप में कहा जा सकता है जस्टिस गलत थे जब साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा कि तृणमूल कांग्रेस...
कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस गंगोपाध्याय को अपने द्वारा सुनवाई किए जा रहे मामले पर साक्षात्कार देने की कीमत चुकानी पड़ी है. लेकिन सवाल है कि समस्या साक्षात्कार देने में है या विचाराधीन मामलों पर टिप्पणी करने में? निःसंदेह साक्षात्कार से कोई समस्या नहीं है. कई जज अक्सर साक्षात्कार देते रहते हैं. पिछले दिनों ही स्वयं चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ मीडिया से मुखातिब हुए थे और कलीजियम सिस्टम से लेकर सोशल मीडिया पर जजों की ट्रोलिंग, कोर्ट की लंबी छुट्टियों, जजों पर फैसला देते वक्त सरकार की तरफ से किसी तरह के दबाव और न्यायपालिका की स्वतंत्रता तक तमाम सवालों का जवाब दिया था. हां , विचाराधीन मामले पर किसी भी जज से कोई भी टिप्पणी कदापि अपेक्षित नहीं है. साक्षात्कारों में विचाराधीन मामलों पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए और कोई जज अगर ऐसा करता है तो वह आम लोगों के मन में अपनी और अदालत की निष्पक्षता पर संदेह के जन्म का कारण बनता है. वैसे भारत में जजों के लिए कोई आचार संहिता नहीं है.
हां, कुछ दिशा निर्देश वगैरह जरूर हैं मसलन संविधान के तीसरे शिड्यूल में दी गई सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा ली जाने वाली शपथ, रीस्टटेमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ जुडिशल लाइफ (1999) और बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट (2002) आदि. हालांकि जस्टिस गंगोपाध्याय के जिस साक्षात्कार पर अब संज्ञान दिलाया गया है, जज महोदय ने वह बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट का हवाला देते हुए दिया था.
इसमें यह तो लिखा है कि जजों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार होता है लेकिन यह भी लिखा है कि जजों को सार्वजनिक तौर पर ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिससे किसी व्यक्ति या किसी मुद्दे की न्यायसंगत सुनवाई पर असर पड़े. सो जस्टिस गंगोपाध्याय की दूरदर्शिता काबिले तारीफ है चूंकि उन्हें पता था कि वे जो कह रहे हैं, उसपर विवाद होगा.
तो मुनासिब सवाल उठता है कि क्या उन्होंने न्याय के दायरे में रहकर उवाचा? पारिभाषिक रूप में कहा जा सकता है जस्टिस गलत थे जब साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा कि तृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी को यह कहने के लिए तीन महीने की जेल की सजा होनी चाहिए कि 'न्यायपालिका का एक धड़ा बीजेपी से मिला हुआ है'.
और वे कल भी टेक्निकली गलत ही थे जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को निर्देश दिया कि वे मध्य रात्रि तक इंटरव्यू की ट्रांस स्क्रिप्ट कॉपी, जो उनके खिलाफ दाखिल की गई है, उनके सामने प्रस्तुत करें. परंतु इस पूरे घटनाक्रम ने कई सवालों को जन्म दिया है. और सबसे महत्वपूर्ण है सितंबर 2022 में न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय द्वारा एबीपी आनंदा टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार का अभिषेक बनर्जी द्वारा आज एक्सप्लॉइट किया जाना जब 13 अप्रैल 2023 को जज गंगोपाध्याय ने ईडी और सीबीआई से कहा कि उन्हें जल्द ही बनर्जी से पूछताछ करनी चाहिए.
उन्होंने यह भी आदेश दिया कि इस घोटाले की जांच कर रहे ईडी और सीबीआई के किसी भी अधिकारी के खिलाफ किसी भी पुलिस स्टेशन के अधिकारियों को एफआईआर नहीं लिखनी चाहिए. माननीय शीर्ष अदालत ने तब स्वतः संज्ञान क्यों नहीं लिया था जब जज ने साक्षात्कार दिया था ? और जब तब नहीं लिया तो आज बनर्जी द्वारा ग्राउंड बनाये जाने पर उस साक्षात्कार पर आपत्ति क्यों ?
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने जस्टिस गंगोपाध्याय के साक्षात्कार की तस्दीक कराते हुए बंगाल शिक्षक भर्ती घोटाले के गंभीर मामले में आगे की सुनवाई किसी दूसरे जज के नेतृत्व वाली पीठ को सौपे जाने का आदेश दे दिया है, जबकि ध्यान देने योग्य बात ये है कि बंगाल के जस्टिस की टिप्पणी मामले पर थी ही नहीं. उनकी टिप्पणी तो अभिषेक बनर्जी के हाई कोर्ट के जजों पर दिए गए आपत्तिजनक बयान पर थी. और उनके 13 अप्रैल के आदेश को साक्षात्कार से जोड़ कर देखना और वह भी तब जब लिप्त शख्स मंशा जाहिर करे, कितना उचित है ?
दरअसल जजों को उनके फैसले के लिए निशाना बनाने का चलन बन गया है. खासतौर पर तब जब जज किसी विशेष व्यक्ति की इच्छा के अनुसार फैसला नहीं सुनाते. टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी का तो कथित रूप से जजों को धमकाने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है.
हालांकि सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्होंने मामले के सिर्फ प्रशासनिक पक्ष को देखा है और कार्यवाही को किसी अन्य न्यायाधीश को स्थानांतरित करने का एकमात्र कारण साक्षात्कार का ट्रांसक्रिप्शन है और कुछ नहीं. लेकिन इतना तो कहना बनता ही है कि अभिषेक बनर्जी का तात्कालिक मकसद पूरा हुआ.
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