साल 2019 को शुरू हुए बमुश्किल एक हफ्ता ही हुआ है लेकिन लगता है जैसे यह साल बहुत कुछ नया करने वाला है. आखिरकार हिन्दुस्तान ने ऑस्ट्रेलिया से उनकी जमीं पर एक टेस्ट सीरीज जीत ली, जिसके आसार टीम के ऑस्ट्रेलिया जाने के समय कम ही लग रहे थे. जिन राज्यों में चुनाव परिणाम दिसंबर में आ गए थे वहां की सरकारें अब काम करने लगीं. लेकिन देश अपने सबसे बड़े चुनावी समर की दहलीज़ पर भी आ खड़ा हुआ है. पांच साल पहले जब चुनाव हुआ था तो भाजपा की विजय के बाद अगले कुछ महीनों तक तो यही लगता था कि यह चुनाव तो बस एक शुरुआत है और अब भाजपा के विजय रथ को अगले दशक तक रोकना बहुत मुश्किल है. अगले कुछ सालों में हुए विधानसभा चुनाव इसी पर मुहर लगाते दिखे और भाजपा अजेय स्थिति में दिखाई देती नजर आयी.
लेकिन साल 2018 के अंत में हुए राज्यों के चुनावों ने भाजपा के विजय रथ को रोक दिया और साल के शुरुआत से ही जो संभावनाएं हवा में तैर रही थीं, वह सामने नजर आने लगीं. 2019 का लोकसभा चुनाव जो एक साल पहले तक एक आसान सा मसला लग रहा था, वह अब भाजपा को ऑस्ट्रेलिया को उसके जमीं पर पराजित करने जैसा लगने लगा. वैसे तो भाजपा के पास कुछ आजमाए फार्मूले थे जिनके आधार पर वह पहले भी जीतती रही है जैसे राम मंदिर मुद्दा- जिसे चुनाव के आसपास जिन्दा किया जाता है और उसके बाद घर के बुजुर्गों की तरह एक किनारे धकेल दिया जाता है.
अब जो काम भारतीय टीम ने कुलदीप यादव से लिया जिसका तोड़ ऑस्ट्रेलियाई क्रिकटरों के पास नहीं था, वैसा ही काम भाजपा ने सवर्ण आरक्षण के मुद्दे को खड़ा करके किया. उनको यह उम्मीद है कि शायद ही किसी पार्टी के पास इस दांव का कोई काट होगा. लेकिन इस दांव ने एक नया प्रश्न भी खड़ा कर दिया है जिसके लिए अगले कई...
साल 2019 को शुरू हुए बमुश्किल एक हफ्ता ही हुआ है लेकिन लगता है जैसे यह साल बहुत कुछ नया करने वाला है. आखिरकार हिन्दुस्तान ने ऑस्ट्रेलिया से उनकी जमीं पर एक टेस्ट सीरीज जीत ली, जिसके आसार टीम के ऑस्ट्रेलिया जाने के समय कम ही लग रहे थे. जिन राज्यों में चुनाव परिणाम दिसंबर में आ गए थे वहां की सरकारें अब काम करने लगीं. लेकिन देश अपने सबसे बड़े चुनावी समर की दहलीज़ पर भी आ खड़ा हुआ है. पांच साल पहले जब चुनाव हुआ था तो भाजपा की विजय के बाद अगले कुछ महीनों तक तो यही लगता था कि यह चुनाव तो बस एक शुरुआत है और अब भाजपा के विजय रथ को अगले दशक तक रोकना बहुत मुश्किल है. अगले कुछ सालों में हुए विधानसभा चुनाव इसी पर मुहर लगाते दिखे और भाजपा अजेय स्थिति में दिखाई देती नजर आयी.
लेकिन साल 2018 के अंत में हुए राज्यों के चुनावों ने भाजपा के विजय रथ को रोक दिया और साल के शुरुआत से ही जो संभावनाएं हवा में तैर रही थीं, वह सामने नजर आने लगीं. 2019 का लोकसभा चुनाव जो एक साल पहले तक एक आसान सा मसला लग रहा था, वह अब भाजपा को ऑस्ट्रेलिया को उसके जमीं पर पराजित करने जैसा लगने लगा. वैसे तो भाजपा के पास कुछ आजमाए फार्मूले थे जिनके आधार पर वह पहले भी जीतती रही है जैसे राम मंदिर मुद्दा- जिसे चुनाव के आसपास जिन्दा किया जाता है और उसके बाद घर के बुजुर्गों की तरह एक किनारे धकेल दिया जाता है.
अब जो काम भारतीय टीम ने कुलदीप यादव से लिया जिसका तोड़ ऑस्ट्रेलियाई क्रिकटरों के पास नहीं था, वैसा ही काम भाजपा ने सवर्ण आरक्षण के मुद्दे को खड़ा करके किया. उनको यह उम्मीद है कि शायद ही किसी पार्टी के पास इस दांव का कोई काट होगा. लेकिन इस दांव ने एक नया प्रश्न भी खड़ा कर दिया है जिसके लिए अगले कई महीने देश में लम्बी चौड़ी बहस चलती रहेगी. इस आरक्षण के समर्थक जो सबसे बड़ा और एक तरह से ठीक तर्क दे रहे हैं वह यही है कि आरक्षण से मूलतः कमजोर वर्गों को फायदा मिलना चाहिए चाहे वह किसी भी जाती के हों. इस तरह की व्यवस्था लागू करने के प्रयास पहले भी हुए हैं लेकिन वह सफल नहीं हुए. बहरहाल असली मुद्दा यह है कि क्या आरक्षण हो और अगर हो तो किस तरह से हो. अगर हम ज्यादा दूर न जाकर बगल के देश बांग्लादेश को ही देखें तो पाएंगे कि वह भी आरक्षण को ख़त्म करने के लिए सोच सकता है. छात्रों के हड़ताल और प्रदर्शन ने उसकी तरफ सोचने के लिए सरकार को मौका तो दिया लेकिन कहीं न कहीं सरकार के पास इसके लिए इच्छा शक्ति भी होनी चाहिए जिसे बांग्लादेश ने दिखाया.
आरक्षण का मूल कारण उन जातियों या वर्गों को समाज में आर्थिक और सामाजिक रूप से आगे ले आना था जो सदियों से शोषित और प्रताड़ित थे. इस सोच में कहीं कोई कमी नहीं थी लेकिन इसके साथ-साथ जो सबसे खराब बात हमें नजर आती है, वह यह है कि आजादी के इतने साल बीतने के बाद भी आरक्षण से बहुत कम प्रतिशत लोगों को ही लाभ हुआ है. एक परिवार जिसकी एक पीढ़ी को इस सुविधा का लाभ एक बार मिला और वह गरीबी से बाहर निकल आयी, उसकी अगली पीढ़ियों को भी इसका लाभ मिलता गया. जबकि होना यह चाहिए था कि जो परिवार एक बार इसका फायदा लेकर आगे बढ़ गया, उसे दोबारा इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए था. आज की तारीख में अगर हम देखें तो गांव के एक घर में जिसे आरक्षण के चलते नौकरी मिली, उसके परिवार की अगली पीढ़ी को भी यही लाभ मिला और वह आगे बढ़ती गयी. वहीं बगल के सौ परिवार जो इसका फायदा नहीं उठा पाए, वह आज भी उसी हालत में जी रहे हैं.
अगर आरक्षण को सही मायने में लागू करना ही है तो इसका एक तरीका तो यह हो सकता है कि एक बार जिस परिवार को इसका लाभ मिल गया, उसकी अगली पीढ़ियों को इससे बाहर कर दिया जाए. इससे बहुत से परिवार आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बेहतर हो जाएंगे जो आज नहीं हो पाए हैं. दूसरी बात कुछ प्रतिशत उन गरीबों के लिए भी रखा जाए जो पिछड़ी नहीं बल्कि तथाकथित ऊंची जाति से आते हैं. आर्थिक आधार पर बराबरी करने के लिए इससे बेहतर आरक्षण का कोई विकल्प नहीं सूझता.
खैर अब सरकार ने पलीते में आग लगा दी है तो कुछ दिन तक यह तमाशा चलेगा ही. शायद ही यह बिल पास हो पाए लेकिन सरकार अपनी मंशा में पास हो गई लगती है.
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