अगर आप फिल्मों के शौकीन हैं तो आपको अस्सी के दशक की मल्टीस्टारर फिल्मों का जमाना याद होगा. याद होंगे दीवारों पर लगे वो रंग-बिरंगे पोस्टर जिनमें सितारों की भरमार होती थी. सितारे के दो आगे सितारे, सितारे के दो पीछे सितारे, आगे सितारे, पीछे सितारे - बोलो कितने सितारे ?
तब शुरू में पोस्टर देख ही सिनेमा प्रेमी खुश हो जाते थे. ये गिन-गिन कर कि देखो इसमें ये भी है, वो भी है और अरे वाह- वो भी तो है !
ऐसी फिल्म बनाने वाली निर्माताओं की सोच बिल्कुल साफ थी कि अगर अगर हर हीरो-हीरोइन अपने अपने फैन्स की थोड़ी थोड़ी भीड़ भी अपने दम पर खींच लाए तो कुल मिलाकर हॉल हाउसफुल और फिल्म हिट.
क्रांति, अमर अकबर एंथनी, नसीब, जानी दुश्मन, नसीब और राजपूत - मल्टीस्टारर फिल्मों ने एक जमाने में लोगों के दिल पर राज किया और ऐसी ज्यादातर फिल्में हिट भी हुईं. लेकिन अस्सी दशक का खत्म होते होते ऐसी फिल्मों का जमाना लद गया और मल्टीस्टारर फिल्में बनना लगभग बंद हो गईं. क्योंकि दर्शक अब सितारों की भीड़ के बजाए दमदार कहानी और शानदार कलाकारी खोजने लगे.
अस्सी के दशक के ठीक पहले, यानि 1979 की बात है जब कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदखल होकर 27 सालों के लंबे वनवास में चली गयी. इस वनवास से पार्टी को निकालने की तमाम कोशिश हुईं. कई कलाकार बदले गए, कई स्क्रीप्ट आजमाई गई. खुद कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यूपी की धरती पर 2012 में खूब पसीना बहाया. कुर्ते की आस्तीन ऊपर कर-कर के, दूसरी पार्टियों के घोषणापत्र को फाड़ के, एंग्री यंग मैन का किरदार भी निभा कर देख लिया. लेकिन कांग्रेस का रंग- ढंग लोगों को जंचा नहीं और वो हर बार पिटती रही. एक के बाद एक फ्लॉप शो ही कांग्रेस की नियती बन गयी.
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अगर आप फिल्मों के शौकीन हैं तो आपको अस्सी के दशक की मल्टीस्टारर फिल्मों का जमाना याद होगा. याद होंगे दीवारों पर लगे वो रंग-बिरंगे पोस्टर जिनमें सितारों की भरमार होती थी. सितारे के दो आगे सितारे, सितारे के दो पीछे सितारे, आगे सितारे, पीछे सितारे - बोलो कितने सितारे ?
तब शुरू में पोस्टर देख ही सिनेमा प्रेमी खुश हो जाते थे. ये गिन-गिन कर कि देखो इसमें ये भी है, वो भी है और अरे वाह- वो भी तो है !
ऐसी फिल्म बनाने वाली निर्माताओं की सोच बिल्कुल साफ थी कि अगर अगर हर हीरो-हीरोइन अपने अपने फैन्स की थोड़ी थोड़ी भीड़ भी अपने दम पर खींच लाए तो कुल मिलाकर हॉल हाउसफुल और फिल्म हिट.
क्रांति, अमर अकबर एंथनी, नसीब, जानी दुश्मन, नसीब और राजपूत - मल्टीस्टारर फिल्मों ने एक जमाने में लोगों के दिल पर राज किया और ऐसी ज्यादातर फिल्में हिट भी हुईं. लेकिन अस्सी दशक का खत्म होते होते ऐसी फिल्मों का जमाना लद गया और मल्टीस्टारर फिल्में बनना लगभग बंद हो गईं. क्योंकि दर्शक अब सितारों की भीड़ के बजाए दमदार कहानी और शानदार कलाकारी खोजने लगे.
अस्सी के दशक के ठीक पहले, यानि 1979 की बात है जब कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदखल होकर 27 सालों के लंबे वनवास में चली गयी. इस वनवास से पार्टी को निकालने की तमाम कोशिश हुईं. कई कलाकार बदले गए, कई स्क्रीप्ट आजमाई गई. खुद कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यूपी की धरती पर 2012 में खूब पसीना बहाया. कुर्ते की आस्तीन ऊपर कर-कर के, दूसरी पार्टियों के घोषणापत्र को फाड़ के, एंग्री यंग मैन का किरदार भी निभा कर देख लिया. लेकिन कांग्रेस का रंग- ढंग लोगों को जंचा नहीं और वो हर बार पिटती रही. एक के बाद एक फ्लॉप शो ही कांग्रेस की नियती बन गयी.
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उम्मीद की जा रही थी कि प्रियंका के जादू और पीके की स्क्रीप्ट के साथ इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पास नई सोच, नई कहानी और नई धार होगी. लेकिन रविवार को जब कांग्रेस की नई टीम धूमधाम के साथ लखनऊ की सरजमीं पर उतरी तो ऐसा लगा जैसे कांग्रेस 'सुल्तान', 'मदारी' और दंगल के जमाने में मल्टीस्टारर की चकाचौंध बिखेर कर ही हिट होना चाहती है. 'हाउसफुल' की उम्मीद में कांग्रेस ने 'पोस्टर-फुल' को ही अपना हथियार बना लिया.
लखनऊ के मॉल एवेन्यू में कांग्रेस मुख्यालय के इर्द-गिर्द बैनर पोस्टरों की ऐसी भरमार थी जैसे आज शीला दीक्षित मु्ख्यमंत्री पद की उम्मीदवार के तौर पर नहीं बल्कि सीधा दिल्ली से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने ही आई हों. पोस्टरों पर कांग्रेस के सितारों की वैसी ही भरमार जैसी अस्सी के दशक में मल्टीस्टारर फिल्मों में होती थीं. और इनमें तमाम सितारे ऐसे, जिनके सितारे गर्दिश में गए जमाना बीत गया है.
लेकिन मल्टीस्टारर फिल्मों की एक खासियत हमेशा रही है. फिल्म बाद में हिट हो या फ्लॉप, लेकिन शुरुआत में भीड़ खींच ही लाती है. इस हिसाब से कांग्रेस की इस नयी टीम का लखनऊ में फर्स्ट डे, फर्स्ट शो दबरदस्त तरीके से हाउस फुल था.
यूपी के 'दंगल' में कांग्रेस के 'मल्टीस्टार' |
साढ़े बाहर बजे जब कांग्रेस के नये प्रदेश अध्यक्ष और अपने जमाने के मशहूर अभिनेता राज बब्बर और शीला दीक्षित अपनी नयी टीम के साथ दिल्ली से पहुंचे तो एयरपोर्ट पर बंदूा-बांदी के बाद भी जनसैलाब उमड़ रहा था. रास्ते में स्वागत- सत्कार का आलम ऐसा कि एयर पोर्ट से कांग्रेस ऑफिस के 16 किलोमीटर के सफर को तय करने में ही करीब चार घंटे लग गए. न तो पिछले कई सालों में कांग्रेस के नेताओं ने उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए ऐसी भीड़ देखी होगी और न ही लोगों ने कांग्रेस के इतने नेताओं को एक साथ कंधे से कंधे मिलाकर राहुल- सोनिया जिंदाबाद के नारे लगाते देखा होगा.
लेकिन नेताओं और कार्यकर्ताओं का ये जोश, अव्यवस्था में बदलते देर नहीं लगी. एयरपोर्ट से रास्ते में आते वक्त ही पुलिस वालों के साथ धक्का मुक्की हुई, ट्र्क पर बने मंच पर इतने लोग लद गये कि मंच ही धराशायी हो गया और शीला दीक्षित, राज बब्बर गिरते गिरते बचे. शीला दीक्षित को तो हल्की चोट भी लगी. जब कांग्रेस दफ्तर पहुंचे तो फोटो खींचाने, माला पहनाने को लेकर ही कार्यकर्ता आपस में भिड़ गए.
मंच पर चढ़ने की ऐसी मारामारी मची कि सेवा दल के लोग भी सेवा करना भूलकर किनारे हो लिए. बहुत जल्दी से साफ हो गया कि खचाखच भीड़ भले ही कांग्रेस की लगती हो लेकिन ये असल में ये हर नेता का अपना इंजताम था ताली और जिंदाबाद के नारों के लिए. सबको कोई न कोई रोल दे देने से शायद ऐसी ही फिल्म बनती है.
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कांग्रेस की इस मल्टीस्टारर फिल्म में सितारों की ऐसी भरमार की कई कि नेता को खुद ये नहीं मालूम कि चुनाव में उनका रोल असल में होगा क्या. शीला दीक्षित मुख्यमंत्री का चेहरा, तो राजबब्बर यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष, निर्मल खत्री स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष तो प्रमोद तिवारी कोऑडिनेशन कमेटी के. संजय सिंह कैम्पेन कमेटी के अध्यक्ष तो गुलाम नबी आजाद यूपी के प्रभारी.
गुलाम नबी आजाद दिल्ली में संसद सत्र को लेकर बुलाई गयी मीटिंग की वजह से लखनऊ नहीं आ सके वर्ना उन्होंने देखा होता कि यहां पार्टी में अनुशासन लाना कश्मीर में शांति बहाल करने से कम बड़ी चुनौती नहीं है. मंच पर कुर्सिंयां ठसाठस भरी थीं और बची खुची खाली जगह पर बचे खुचे नेता घुसने को बेताब .
कुर्सियों पर राजबब्बर और शीला दीक्षित के साथ पीएल पुनिया, आरपीएन सिंह, रीता बहुगुणा जोशी, निर्मल खत्री, राजीव शुक्ला, जितिन प्रसाद, इमरान मसूद, संजय सिंह, मोहसिना किदवई, प्रदीप माथुर, अरूण कुमार सिंह मुन्ना, श्रीप्रकाश जयसवाल समेत करीब समेत दो दर्जन नेता मौजूद थे. सबसे ज्यादा तालियां बटोरी प्रमोद तिवारी और राज बब्बर ने. शीला दीक्षित तो ऐसा लग रहा था कि मंच टूटने से सदमे से ही नहीं उबर पायीं हों. शायद सोच रही होंगी कि यूपी में आते ही कदम लड़खड़ना आखिर कैसा शगुन है .
लेकिन राजबब्बर का भाषण राजनैतिक कम, रामलीला का मंचन ज्यादा लग रहा था. वो शायद भूल गए कि ये कांग्रेस का मंच है सिनेमा का सेट नहीं. शब्दों को चबा चबा कर, दांत पीस पीस कर उन्होंने जो फिल्मी अदा दिखाई उससे लोगों का मनोरंजन तो खूब हुआ, कांग्रेस का कितना भला हुआ पता नहीं. राजबब्बर ने नरेन्द्र मोदी की खिल्ली उडाते हुए उन्हें एक नंबर का तालीबाज कहा जो देश में ताली नहीं मिलने पर विदेश जाकर ताली बजवा रहे हैं. उन्होंने अमित शाह को भारी भरकर डील डौल वाला तड़ीपार नेता बताया तो शिवपाल यादव को हल्के वजन का पहलवान जो परिवार में ही कुश्ती लड़ रहा है.
लेकिन राज बब्बर ने माना कि कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए उनके पास कोई जादू कि छड़ी नहीं है. और जिस प्रियंका को कांग्रेस के कार्यकर्ता जादू की छड़ी मानते हैं, चुनाव में उनकी भूमिका के बारे में पूछने पर राजबब्बर ने गोल मोल जवाब देकर जान छुड़ाने में ही भलाई समझी. शीला दीक्षित और राजबब्बर समेत कांग्रेस के तमाम सितारे रविवार को अपनी चमक दिखाकर कुछ ही घंटों बाद दिल्ली लौट गए क्योंकि सोमवार से संसद का सत्र शुरू होना है.
लेकिन मल्टीस्टारर फिल्म के पहले शो कि तरह, रविवार के हाउस-फुल प्रर्दशन दम पर अभी से कांग्रेस के लिए कुछ भी कहना बहुत जल्दबाजी होगी. इसलिए कह सकते हैं कि पिक्चर अभी बाकी है.
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