देश के प्रत्येक राज्य की अपनी पुलिस है जिसपर उसका एकाधिकार है. सिवाए दिल्ली के जहां केन्द्रीय गृह मंत्रालय पुलिस को संचालित करती है. इसके बावजूद देश के हर राज्य में पुलिस की हालत एक जैसी है. हर राज्य में पुलिस अंग्रेजों के जमाने के सिपाहियों द्वारा चलाई जा रही है.
ब्रिटिश राज में जनता की सुरक्षा के लिए तैयार की गई पुलिस को खाकी वर्दी और डंडा दिया गया. नगर, मोहल्ले और चौक-चौराहों पर गुलामी के दिनों से लेकर आजतक आपको हाथ में डंडा और शरीर पर खाकी वर्दी डाले पुलिस के जवान दिखाई देंगे. ऐसा इसलिए कि हुकूमत चाहे ब्रिटिश हो या मौजूदा दौर की लोकतांत्रिक सरकार, मानना यही है कि खतरा आम आदमी पर हो या आम आदमी से हो, उससे महज डंडों और वर्दी के दम पर निपट लिया जाएगा.
वहीं बात जब किसी सरकार में मंत्री या अधिकारी के सुरक्षा की हो तो आपको अत्याधुनिक हथियारों से लैस पुलिसबल दिखाई देगा. क्योंकि ये लोग आम आदमी नहीं हैं लिहाजा इनपर खतरा अप्रत्याशित है. मिसाल के तौर पर अगर किसी मंत्री जी जेड प्लस सुरक्षा दी गई है तो मान लीजिए कि अत्याधुनिक हथियारों और गैजटों से लैस तकरीबन 3 दर्जन जवान तैनात है. सुरक्षा में किसी तरह की चूक या लापरवाही न हो, इसके लिए इन जवानों की दिनचर्या का विशेष ध्यान रखा जाता है. इसके लिए सबसे अहम इन जवानों की महज 6-8 घंटे की शिफ्ट रहती है क्योंकि इनके लिए आराम करना बेहद अहम रहता है. ठीक किसी रेस के घोड़े की तरह. इनके खान-पान वर्दी और अन्य जरूरतों पर खर्च भी बिना किसी संकोच के किया जाता है. जाहिर है यह किसी आम आदमी की नहीं बल्कि एक विशेष आदमी की सुरक्षा में लगे हैं.
इसके उलट अब देश में उस पुलिसबल को देखिए जो आम आदमी के लिए तत्पर रहती है. दिन के 12 से 15 घंटे की नौकरी और महीने का वेतन इतना कि एक हफ्ते की जरूरत भी पूरी नहीं की जा सकती. ड्यूटी पर प्राय: अकेले तैनाती तो राइफल और पिस्तौल छोड़िए, बस डंडे से काम चलाना होता है. पुलिस मैन्युअल के मुताबिक असलहा तभी मिलेगा जब तैनाती गंभीर है और एक नहीं बल्कि दो सिपाही एक साथ...
देश के प्रत्येक राज्य की अपनी पुलिस है जिसपर उसका एकाधिकार है. सिवाए दिल्ली के जहां केन्द्रीय गृह मंत्रालय पुलिस को संचालित करती है. इसके बावजूद देश के हर राज्य में पुलिस की हालत एक जैसी है. हर राज्य में पुलिस अंग्रेजों के जमाने के सिपाहियों द्वारा चलाई जा रही है.
ब्रिटिश राज में जनता की सुरक्षा के लिए तैयार की गई पुलिस को खाकी वर्दी और डंडा दिया गया. नगर, मोहल्ले और चौक-चौराहों पर गुलामी के दिनों से लेकर आजतक आपको हाथ में डंडा और शरीर पर खाकी वर्दी डाले पुलिस के जवान दिखाई देंगे. ऐसा इसलिए कि हुकूमत चाहे ब्रिटिश हो या मौजूदा दौर की लोकतांत्रिक सरकार, मानना यही है कि खतरा आम आदमी पर हो या आम आदमी से हो, उससे महज डंडों और वर्दी के दम पर निपट लिया जाएगा.
वहीं बात जब किसी सरकार में मंत्री या अधिकारी के सुरक्षा की हो तो आपको अत्याधुनिक हथियारों से लैस पुलिसबल दिखाई देगा. क्योंकि ये लोग आम आदमी नहीं हैं लिहाजा इनपर खतरा अप्रत्याशित है. मिसाल के तौर पर अगर किसी मंत्री जी जेड प्लस सुरक्षा दी गई है तो मान लीजिए कि अत्याधुनिक हथियारों और गैजटों से लैस तकरीबन 3 दर्जन जवान तैनात है. सुरक्षा में किसी तरह की चूक या लापरवाही न हो, इसके लिए इन जवानों की दिनचर्या का विशेष ध्यान रखा जाता है. इसके लिए सबसे अहम इन जवानों की महज 6-8 घंटे की शिफ्ट रहती है क्योंकि इनके लिए आराम करना बेहद अहम रहता है. ठीक किसी रेस के घोड़े की तरह. इनके खान-पान वर्दी और अन्य जरूरतों पर खर्च भी बिना किसी संकोच के किया जाता है. जाहिर है यह किसी आम आदमी की नहीं बल्कि एक विशेष आदमी की सुरक्षा में लगे हैं.
इसके उलट अब देश में उस पुलिसबल को देखिए जो आम आदमी के लिए तत्पर रहती है. दिन के 12 से 15 घंटे की नौकरी और महीने का वेतन इतना कि एक हफ्ते की जरूरत भी पूरी नहीं की जा सकती. ड्यूटी पर प्राय: अकेले तैनाती तो राइफल और पिस्तौल छोड़िए, बस डंडे से काम चलाना होता है. पुलिस मैन्युअल के मुताबिक असलहा तभी मिलेगा जब तैनाती गंभीर है और एक नहीं बल्कि दो सिपाही एक साथ हो.
मथुरा विवाद में आला पुलिस अधिकारी की मौत |
देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस को मान लीजिए कि सभी राज्यों में सबसे अमुख पुलिस है. पैसा केन्द्रीय खजाने से जो आता है. इसके बावजूद उन्हें 12-15 घंटे की नौकरी करनी पड़ती है क्योंकि तैनाती लगाने वाले बड़े सिपाही के पास इतने लोग नहीं रहते जितने यहां मुहल्ले, चौराहे और चौक हैं. ऊपर से वीआईपी इलाकों और संवेदनशील स्थानों पर एक की जगह दो सिपाही जोड़े जाते हैं जिससे वह अपने-अपने असलहों की सुरक्षा कर सकें. अब दिल्ली से दूर देश का सिलिकन वैली कहा जाने वाले बंगलुरू की कर्नाटक पुलिस का हाल देख लीजिए. 12 घंटे की नौकरी यहां भी गोल्डन रूल है. लंबे अर्से से यहां पुलिस रिफॉर्म के नाम पर सिपाही मांग कर रहे हैं कि उनसे महज 8 घंटे की शिफ्ट कराई जाए लेकिन सरकार की कान में जूं नहीं रेंग रही. अब नौबत यहां तक आ चुकी है कि राज्य के पुलिसकर्मी राज्यव्यापी हड़ताल की धमकी दे रहे हैं. देखिए कब होते हैं ये रिफॉर्म, लेकिन तबतक पुलिस का काम यूं ही चलता रहेगा.
अब इन हालातों में नौकरी कर रही पुलिस बल के लिए मथुरा जैसी घटना कोई पहली बार नहीं हुई. इससे पहले भी आपने मुंबई में पाकिस्तान से आए कसाब और गैंग की लाइव तस्वीर देखी होगी. शहर में घूम-घूमकर ताबड़तोड़ गोलीबारी. सैकड़ों को गोली लगी और सैकड़ों मारे गए. हमले की जगहों पर तैनात पुलिस वाले को ऐसे आतंकियों से निपटने के लिए प्लास्टिक की कुर्सी और ईंट-पत्थर का इस्तेमाल करना पड़ा. वायरलेस पर हमले की सुचना आला पुलिस अधिकारियों को देने वाले सिपाहियों की घटना की तीव्रता से हांथ-पांव फूल गए. इस घटना में भी कुछ बड़े अधिकारी वायरलेस पर ऐसी एक अधपकी सूचना पाकर घटनास्थल पर पहुंच गए लेकिन इससे पहले कि वह हालात को समझते गोलियां उनके सीने के आर-पार हो गई.
अब मथुरा में ही इस सरकारी जमीन पर कब्जे का मामला को रातो-रात नहीं पैदा हुआ. दो साल पहले इसपर कब्जा किया गया. बीते एक साल से मामला इलाहाबाद के हाईकोर्ट में चल रहा था. इसके बावजूद जब कोर्ट के फैसले पर पुलिस बल वहां जमीन खाली कराने पहुंची तो उसे अंदाजा भी नहीं था कि वहां इतनी गोलियां चलेंगी. जाहिर है इस दबिश के पहले कुछ डंडेवाले सिपाहियों को ही रेकी पर लगाया गया होगा. इन सिपाहियों को जितना समझ आया उन्होंने अपने कप्तान के लिए उतना संदेश भेज दिया. अब ऐसी स्थिति में कप्तान अगर उपद्रवियों की गोली का शिकार होता है तो सवाल उन सिपाहियों पर उठना लाजमी हैं जिन्होंने रेकी कर मौका-ए-वारदात की सूचना आगे बढ़ाई थी. लेकिन मुंबई हमलों के बाद हमने सिपाहियों की इस स्थिति को अगर समझ लिया होता तो शायद मथुरा में एक कप्तान और एक एसएचओ की जिंदगी बचाई जा सकती थी. खैर, अभी भी देर नहीं हुई है. सभी सरकारों को समझ लेना चाहिए कि आज आतंकवाद जैसे कई दैत्य हमारे बीच में हैं और खतरा आम आदमी पर बढ़ चुका है. लिहाजा, हमारी चौकसी के लिए 24/7 काम करने वाले इस पुलिसबल पर ध्यान देने की जरूरत है और उन्हें मौजूदा चुनौतियों के लिए तैयार करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए. क्योंकि जब तक कोई कप्तान अंग्रेजों की मानसिकता से आम आदमी की सुरक्षा महज डंडे और वर्दी से कराता रहेगा तब तक उसकी अपनी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रहेगी.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.