मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को लेकर विवादों का सिलसिला कभी थमा नहीं - कभी उनके फैसलों और फरमानों को लेकर तो कभी बयानबाजी को लेकर, लेकिन पहली बार कोरोना संकट के दौरान वो अपनी नाकामियों के लिए सबके निशाने पर आ गये.
राजनीतिक विरोधियों की कौन कहे, योगी आदित्यनाथ के कैबिनेट साथी ही कोविड 19 महामारी के दौरान बदइंतजामी और अफसरों के रवैये पर सवाल उठाने लगे थे - नतीजा ये हुआ कि दिल्ली से संघ और बीजेपी दोनों के नेताओं ने लखनऊ पहुंच कर योगी आदित्यनाथ के चार साल के कामकाज को लेकर पहली बार अंदरूनी फीडबैक लिया है.
फीडबैक में क्या मिला ये तो नहीं मालूम, लेकिन ये संकेत तो मिलने ही लगा है कि कुछ खेमों में धधकती आग का जो धुआं रह रह कर निकलने लगा था, उसे मिल जुल कर बुझाने पूरी कोशिश हुई और काफी हद तक कामयाबी भी मिली है. मुकम्मल तो कोई कामयाबी भी नहीं होती या हो भी जाये तो तात्कालिक तौर पर ही हो पाती है.
हाथ के हाथ, एक बात और भी साफ हो चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी के भीतर, फिलहाल कम से कम उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय सरहद के भीतर, योगी आदित्यनाथ जितने ही ताकतवर 2017 में हिंदू युवा वाहिनी के बूते रहे, संगठन के करीब करीब फील्ड में निष्क्रिय हो जाने के बावजूद आज भी हैं - कोई योगी आदित्यनाथ को पसंद करे या न करे, लेकिन नजरअंदाज कर भी मनमर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकता. लगने तो ऐसा लगा है कि मोदी-शाह (Modi and Shah) भी नहीं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले (Dattatrey Hosabale) के अलावा, ये फीडबैक लेने बीजेपी के संगठन महासचिव बीएल संतोष के साथ उपाध्यक्ष और यूपी प्रभारी राधामोहन सिंह भी लखनऊ में कई दिन डेरा डाले रहे. दत्तात्रेय होसबले ने जहां 50 से ज्यादा संघ के लोगों से मुलाकात और कइयों से फोन पर बात की, वहीं बीएल संतोष और राधामोहन सिंह ने दोनों डिप्टी सीएम केशव मौर्य और दिनेश शर्मा सहित 15 मंत्रियों से भी विस्तार से बातचीत की. योगी आदित्यनाथ सरकार के कोरोना संकट के बीच...
मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को लेकर विवादों का सिलसिला कभी थमा नहीं - कभी उनके फैसलों और फरमानों को लेकर तो कभी बयानबाजी को लेकर, लेकिन पहली बार कोरोना संकट के दौरान वो अपनी नाकामियों के लिए सबके निशाने पर आ गये.
राजनीतिक विरोधियों की कौन कहे, योगी आदित्यनाथ के कैबिनेट साथी ही कोविड 19 महामारी के दौरान बदइंतजामी और अफसरों के रवैये पर सवाल उठाने लगे थे - नतीजा ये हुआ कि दिल्ली से संघ और बीजेपी दोनों के नेताओं ने लखनऊ पहुंच कर योगी आदित्यनाथ के चार साल के कामकाज को लेकर पहली बार अंदरूनी फीडबैक लिया है.
फीडबैक में क्या मिला ये तो नहीं मालूम, लेकिन ये संकेत तो मिलने ही लगा है कि कुछ खेमों में धधकती आग का जो धुआं रह रह कर निकलने लगा था, उसे मिल जुल कर बुझाने पूरी कोशिश हुई और काफी हद तक कामयाबी भी मिली है. मुकम्मल तो कोई कामयाबी भी नहीं होती या हो भी जाये तो तात्कालिक तौर पर ही हो पाती है.
हाथ के हाथ, एक बात और भी साफ हो चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी के भीतर, फिलहाल कम से कम उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय सरहद के भीतर, योगी आदित्यनाथ जितने ही ताकतवर 2017 में हिंदू युवा वाहिनी के बूते रहे, संगठन के करीब करीब फील्ड में निष्क्रिय हो जाने के बावजूद आज भी हैं - कोई योगी आदित्यनाथ को पसंद करे या न करे, लेकिन नजरअंदाज कर भी मनमर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकता. लगने तो ऐसा लगा है कि मोदी-शाह (Modi and Shah) भी नहीं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले (Dattatrey Hosabale) के अलावा, ये फीडबैक लेने बीजेपी के संगठन महासचिव बीएल संतोष के साथ उपाध्यक्ष और यूपी प्रभारी राधामोहन सिंह भी लखनऊ में कई दिन डेरा डाले रहे. दत्तात्रेय होसबले ने जहां 50 से ज्यादा संघ के लोगों से मुलाकात और कइयों से फोन पर बात की, वहीं बीएल संतोष और राधामोहन सिंह ने दोनों डिप्टी सीएम केशव मौर्य और दिनेश शर्मा सहित 15 मंत्रियों से भी विस्तार से बातचीत की. योगी आदित्यनाथ सरकार के कोरोना संकट के बीच कामकाज को लेकर पत्र लिखने वाले नेताओं से भी संपर्क किया.
एक तरफ ये सब चल रहा था और दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ अपने कामकाज में लगे रहे. बीएल संतोष से तो उनकी भेंट भी हुई, लेकिन दत्तात्रेय होसबले तो बगैर मिले ही लौट गये - क्योंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ से बाहर थे.
योगी आदित्यनाथ की तारीफ में बीएल संतोष का ट्वीट आने के बाद बहुत सारी चर्चाओं पर तो विराम लग ही गया था. अब मीडिया में खबरें देने वाले सूत्रों ने भी साफ कर दिया है कि बीजेपी नेतृत्व अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले किसी बड़े बदलाव का जोखिम नहीं मोल लेने जा रहा है, हां - मामूली फेरबदल तो होते ही रहते हैं - ये मामूली फेरबदल की कवायद बीजेपी एमएलसी अरविंद शर्मा के इर्द गिर्द घूम रही है.
संघ सरकार्यवाह बैरंग क्यों लौट गये
योगी आदित्यनाथ को गोरक्षपीठ की गद्दी के साथ ही गोरखपुर संसदीय सीट की विरासत भी मिल गयी थी - और तभी से वो अपनी शर्तों पर राजनीति करते आये हैं - ये ठीक है कि पांच बार सांसद रहने के बावजूद बीजेपी नेतृत्व या संघ में किसी ने योगी आदित्यनाथ को मोदी कैबिनेट में राज्य मंत्री के लायक भी नहीं समझा, लेकिन जब उनका मुख्यमंत्री बनने का मन हुआ तो कोई रोक पाने की स्थिति में भी नहीं रहा.
ऐसा भी नहीं कि योगी आदित्यनाथ के यूपी के मुख्यमंत्री बनने की बात 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद शुरू हुई, पहले भी संघ की बैठकों में ऐसी चर्चाएं हो चुकी थीं - और गोरखपुर क्षेत्र में हुई ऐसी ही एक मीटिंग में तो करीब करीब आम सहमति ही बन चुकी थी.
ये भी सच है कि योगी आदित्यनाथ जिस तरीके से अपनी जिद पर अड़ियल बन जाते रहे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी सुहाता नहीं था. संघ को भी मालूम था कि योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी सिर्फ अपना जनाधार बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि बीजेपी और संघ के सामने अपनी ताकत का एहसास करान के लिए बनाये थे. 2002 में ही योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी बनायी थी और विधानसभा चुनाव में ये भी जता दिया कि वो क्या चीज हैं. दरअसल, 2002 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के विरोध के बावजूद बीजेपी ने शिवप्रताप शुक्ला को ही गोरखपुर से अपना अधिकृत उम्मीदवार बनाया, लेकिन योगी आदित्यनाथ ने अखिल भारत हिंदू महासभा की तरफ से राधा मोहन दास अग्रवाल को मैदान में उतार दिया. जम कर चुनाव प्रचार किया और बीजेपी उम्मीदवार शिवप्रताप शुक्ला हार गये. 2017 के यूपी चुनाव से पहले बीजेपी ने इलाके में ब्राह्मणों की नाराजगी से बचने के लिए शिवप्रताप शुक्ला को राज्य सभा भेजा और वित्त राज्य मंत्री भी बनाया था.
हालिया जोरआजमाइश में भी योगी आदित्यनाथ ने फिर से साबित कर दिया है कि उनकी ताकत अब भी वैसे ही बरकरार है - और इसे महज एक उदाहरण से समझा जा सकता है.
दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से गहन विचार विमर्श के बाद संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले लखनऊ पहुंचे तो बात और मुलाकातों का सिलसिला भी शुरू हो गया. मीटिंग भी हुई. मीटिंग में बीजेपी के संगठन मंत्री सुनील बंसल भी कई नेताओं के साथ शामिल हुए.
योगी आदित्यनाथ को ये बात बहुत बुरी लगी कि उनको मीटिंग में नहीं बुलाया गया. बुलाया तो यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह को भी नहीं गया था, लेकिन वो शांत रहे. योगी आदित्यनाथ फिर सोनभद्र के दौरे पर निकल गये. दत्तात्रेय होसबले लखनऊ में रुक कर संघ के नेताओं से संपर्क और फीडबैक लेते रहे. योगी आदित्यनाथ का दत्तात्रेय होसबले इंतजार करते रहे लेकिन वो लखनऊ नहीं लौटे. सोनभद्र से मिर्जापुर चले गये और फिर वहां से गोरखपुर रवाना हो गये.
मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि दत्तात्रेय होसबले ने योगी आदित्यनाथ के दफ्तर से संपर्क किया और पूछा कि वो रुकें या लौट जायें, लेकिन कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. आखिरकार दत्तात्रेय होसबले बगैर योगी आदित्यनाथ से मिले बगैर ही लौट गये.
संघ और बीजेपी के रिश्तों को ध्यान से देखें तो ये कोई मामूली वाकया नहीं है. बीजेपी के किसी भी मौजूदा मुख्यमंत्री की इतनी हिम्मत नहीं है कि वो संघ के सीनियर पदाधिकारी को ऐसे नजरअंदाज करे - दत्तात्रेय होसबले तो एक तरह से प्रशासिनक प्रमुख हैं. सरसंघचालक का पद तो अभिभावक जैसा और दार्शनिक तरीके का होता है. सरसंघचालक अभी मोहन भागवत हैं और यूपी को लेकर अभी उनके साथ भी एक मीटिंग होनी है.
तो अरविंद शर्मा को जो मिलेगा वो योगी की कृपा से
बीजेपी ने बड़े आराम से उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदल दिया था. त्रिवेंद्र सिंह रावत को अचानक हटा कर बीजेपी नेतृत्व ने तीरथ सिंह रावत को कुर्सी पर बिठा दिया. लगा जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो. असम में भी सर्बानंद सोनवाल के नेतृत्व में बीजेपी ने चुनाव जीत कर सत्ता में वापसी की और बाद में हिमंत बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया.
अब तो जो कुछ यूपी में चल रहा है उसमें चुनाव बाद बीजेपी के जीतने की स्थिति में योगी आदित्यनाथ के ही मुख्यमंत्री बनने पर सवालिया निशान लग जा रहा है!
जाहिर है ये सवाल तो योगी आदित्यनाथ के भी मन में होगा ही. खासकर, उनके समानांतर अरविंद शर्मा के गढ़े जा रहे कद और काबिलियत के साये में. जिस तरह से न सिर्फ यूपी बल्कि बाहर भी कोरोना कंट्रोल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद वाराणसी मॉडल की कामयाबी का जिक्र कर रहे हैं, योगी आदित्यनाथ अगर ऐसा सब सोचते हैं तो गलत भी नहीं होगा.
जनवरी में ही जब वीआरएस लेकर लखनऊ पहुंचे अरविंद शर्मा विधान परिषद के लिए नामांकन भर रहे थे, यूपी कैबिनेट में उनको कोई बड़ी भूमिका मिलने के कयास लगाये जाने शुरू हो गये थे. कोरोना संकट के बहाने ही सही, जून शुरू हो गया है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका है.
न तो अरविंद शर्मा को कैबिनेट में जगह मिली और न ही कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी ही. ये जरूर है कि वाराणसी मॉडल की तर्ज पर कोविड 19 कंट्रोल का काम देख रहे हैं - और इस काम में पूर्वांचल के 17 जिलों के जिलाधिकारी उनके परोक्ष रूप से रिपोर्ट भी करते हैं, औपचारिकताओं के तहत रिपोर्ट की एक कॉपी मुख्यमंत्री कार्यालय को भी भेजी जाती है.
सत्ता के गलियारों में हो रही चर्चायों के जरिये मीडिया में खबरें तो यहां तक आ रही थीं कि अरविंद शर्मा को डिप्टी सीएम भी बनाया जा सकता है, लेकिन अब तो उसके भी संकेत जाते रहे हैं. आखिर ये सब क्यों हो रहा होगा - योगी आदित्यनाथ ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहते होंगे इसीलिए तो.
बीबीसी की हाल की एक रिपोर्ट में इस सवाल का जवाब भी ढूंढा जा सकता है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बीबीसी से कहते हैं, 'मुख्यमंत्री ने साफ तौर पर कह दिया है कि अरविंद शर्मा को कोई महत्वपूर्ण विभाग तो छोड़िये, कैबिनेट मंत्री भी बनाना मुश्किल है. राज्य मंत्री से ज्यादा वो उन्हें कुछ भी देने को तैयार नहीं हैं.' ये हाल तब है जब दिल्ली से सिर्फ अमित शाह की कौन कहे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी अरविंद शर्मा को लेकर विशेष दिलचस्पी है. पहले गुजरात और फिर दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ अरविंद शर्मा का काम का बरसों का अनुभव रहा है और वो मोदी के करीबी और भरोसेमंद अफसरों में माने जाते रहे हैं. आज भी वाराणसी मॉडल का दिल खोल कर मोदी का तारीफ करना भी तो यही बताता है.
अब अगर योगी आदित्यनाथ की कोई जिद है कि वो अरविंद शर्मा को ज्यादा कुछ नहीं देने वाले, तो क्या समझा जाये - साफ साफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जाना ही तो समझा जाएगा.
खबर तो यही है कि अरविंद शर्मा को यूपी सरकार में कोई बड़ी भूमिका दिये जाने की तैयारी है. मान लेते हैं ऐसा होता भी है. जो भी होगा वो तो ऐसा ही लगता है जैसे अरविंद शर्मा को जो कुछ भी मिल सकता है वो योगी आदित्यनाथ की कृपा से ही मुमकिन है - मोदी है तो मुमकिन है, ऐसा यूपी में क्यों नहीं हो पा रहा है?
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