मगहर में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कबीर टोपी न पहनने पर बवाल तो मचना ही था, सो मचा और पूरे जोर शोर से. किसी दौर में इसी तरह नरेंद्र मोदी के मुस्लिम टोपी पहनने से मना कर देने पर भारी शोर शराबा हुआ था.
योगी का टोपी न पहनना मोदी की कॉपी जैसा जरूर लगता है, लेकिन इसको लेकर उनके अपने रिजर्वेशन होंगे. मोदी तो खुद को फकीर बताते हैं, लेकिन योगी तो वैदिक रीति रिवाजों से दी गयी दीक्षा के बाद संन्यासी बने हैं. वो भगवा धारण करें. मुख्यमंत्री आवास की शुद्धि करायें. कुर्सी पर भी भगवा चादर डाल कर बैठें ये उनकी मर्जी है. कोई और भला कौन होता है योगी को टोपी पहनाने वाला.
टोपी पहनाने की हद तो तब पार होती लगती है जब गोशाला से लेकर टॉयलेट तक को भगवा रंग में रंग दिया जाता है. क्या ये टोपी पहनाने जैसा नहीं है?
टोपी पहनाने की तालीम भी कहीं मिलती है क्या?
टोपी पहनाना अनौपचारिक संवाद में बहुत ही लोकप्रिय मुहावरा है - और देश के हर इलाके के लोगों को दूसरों को टोपी पहनाने में उतना ही मजा आता है जितना मुफ्त की सलाह देने में. चाहे वो विराट कोहली के शॉट खेलने पर हो. चाहे माउथ अल्सर से निजात पाने के घरेलू नुस्खे या फिर घुटने के ऑपरेशन के खतरों की बातें हों. हर कोई दाती महाराज की तरह 'शनि शत्रु नहीं मित्र' है जैसी थ्योरी थमाने का कोई मौका नहीं चूकता.
क्या लोगों को टोपी पहनाने में 'घर वापसी' और 'लव जिहाद' की लड़ाई छेड़ने जितना मजा आता होगा?
ये तो नहीं मालूम कि टोपी पहनाना लोगों का पैदाइशी हुनर है या फिर ये लोग कहीं से कोई तालीम लिये हुए होते हैं? मगर, ये जानना जरूरी हो जाता है कि दिक्कत सिर्फ टोपी से होती है या जबरन टोपी पहनाये जाने से?
अक्सर देखने को मिलता है कोई भी...
मगहर में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कबीर टोपी न पहनने पर बवाल तो मचना ही था, सो मचा और पूरे जोर शोर से. किसी दौर में इसी तरह नरेंद्र मोदी के मुस्लिम टोपी पहनने से मना कर देने पर भारी शोर शराबा हुआ था.
योगी का टोपी न पहनना मोदी की कॉपी जैसा जरूर लगता है, लेकिन इसको लेकर उनके अपने रिजर्वेशन होंगे. मोदी तो खुद को फकीर बताते हैं, लेकिन योगी तो वैदिक रीति रिवाजों से दी गयी दीक्षा के बाद संन्यासी बने हैं. वो भगवा धारण करें. मुख्यमंत्री आवास की शुद्धि करायें. कुर्सी पर भी भगवा चादर डाल कर बैठें ये उनकी मर्जी है. कोई और भला कौन होता है योगी को टोपी पहनाने वाला.
टोपी पहनाने की हद तो तब पार होती लगती है जब गोशाला से लेकर टॉयलेट तक को भगवा रंग में रंग दिया जाता है. क्या ये टोपी पहनाने जैसा नहीं है?
टोपी पहनाने की तालीम भी कहीं मिलती है क्या?
टोपी पहनाना अनौपचारिक संवाद में बहुत ही लोकप्रिय मुहावरा है - और देश के हर इलाके के लोगों को दूसरों को टोपी पहनाने में उतना ही मजा आता है जितना मुफ्त की सलाह देने में. चाहे वो विराट कोहली के शॉट खेलने पर हो. चाहे माउथ अल्सर से निजात पाने के घरेलू नुस्खे या फिर घुटने के ऑपरेशन के खतरों की बातें हों. हर कोई दाती महाराज की तरह 'शनि शत्रु नहीं मित्र' है जैसी थ्योरी थमाने का कोई मौका नहीं चूकता.
क्या लोगों को टोपी पहनाने में 'घर वापसी' और 'लव जिहाद' की लड़ाई छेड़ने जितना मजा आता होगा?
ये तो नहीं मालूम कि टोपी पहनाना लोगों का पैदाइशी हुनर है या फिर ये लोग कहीं से कोई तालीम लिये हुए होते हैं? मगर, ये जानना जरूरी हो जाता है कि दिक्कत सिर्फ टोपी से होती है या जबरन टोपी पहनाये जाने से?
अक्सर देखने को मिलता है कोई भी नेता कहीं जाता है तो लोगों से सीधे सीधे और गहराई तक जुड़ने के लिए उनका सांस्कृतिक जामा खुशी खुशी ओढ़ लेता है. चाहे मोदी हों या योगी, टोपी से भले ही इन्हें परहेज हो लेकिन साफा, पगड़ी और ऐसी ऐसी चीजें पहने नजर आते हैं कि क्या कहा जाये! क्या पगड़ी, साफा और दूसरे ऐसे उपकरणों में टोपी से अलग एहसास होता होगा?
क्या टोपी पहनाने वालों की तरह साफा और पगड़ी पहनाने वालों को भी कोई खास तरह का लुत्फ हासिल होता होगा?
टोपी से अपनी सुरक्षा स्वयं करें
अगर टोपी पहनने से परहेज है तो लोग जीवन में ऐसे खतरे से बचने के लिए एहतियाती उपाय क्यों नहीं करते? हर वो नेता जिसे ऐसी चीजों से परहेज हो, उसे तो अपने सुरक्षाकर्मियों को ही पहले से हिदायत दे देनी चाहिये. अगर पहले से दी गयी हिदायत सुरक्षाकर्मियों के दिमाग से उतर जाये तो किसी खास वेन्यू के लिए निकलते वक्त या दाखिल होते वक्त भी तो सुरक्षाकर्मियों को याद दिलायी जा सकती है - 'जैसे ही टोपी देखो फौरन जब्त कर लेना'.
ये टोपी पहनाने वाले लोग पहले से ऐसा करने का फैसला कर चुके होते हैं या ऐन वक्त पर?
आयोजनों में अक्सर देखा जाता है कि अंतिम वक्त तक कुछ न कुछ छूटा ही रहता है. कर्मकांडी पुजारियों के सामने तो ऐसा कभी होता ही नहीं कि कोई न कोई सामान न घट जाये और सुनने को न मिले - 'कोई बात नहीं मानस पूजा कर लेंगे.' तड़ाक से एक श्लोक जड़ भी देते हैं.
कैसे होते हैं टोपी ये पहनाने वाले
सवाल ये भी उठता है कि टोपी पहनाने का फैसला बिलकुल उन्हीं का होता है जो स्टेज पर नजर आते हैं या वे किसी और की सलाह, निर्देश या निवेदन पर ऐसा कार्यों को अंजाम देने की नाकाम कोशिश करते हैं.
ये भी अजीब बात है - मकसद में नाकाम टोपी पहनाने वाले होते हैं और खिंचाई उसकी होती है जो टोपी पहनने से इंकार कर देता है.
क्या ऐसा भी कभी होता होगा कि कुछ उत्साही लोग तमाम सिक्योरिटी से छिपा कर टोपी लेकर मंच पर पहुंच जाते हैं और घात लगाकर मौके का इंतजार करते हैं? मौका मिला नहीं कि ऐसा लगता है जैसे पलक झपकते ही टोपी पहना देंगे - और उन्हें इसरो और नासा के वैज्ञानिकों की तरह रॉकेट लांच होने या सैटेलाइट के कक्षा में फिट हो जाने जैसा सुख मिलता होगा. ऐसा भी तो होता होगा कि सारी तैयारियां पूरी करने के बावजूद टोपी पहनाने का मौका ही न मिल पाता हो.
थोड़े लिखे को ज्यादा समझें. ज्यादा समझने के लिए राही मासूम रजा का वो उपन्यास पढ़ सकते हैं जिसे वो खुद अश्लील बताते हैं, जीवन की तरह - 'टोपी शुक्ला'.
जो सवाल राही मासूम रजा ने मुल्क को आजादी मिलने के 28 साल बाद और देश में इमरजेंसी लागू होने से छह साल पहले उठाये थे - वे आज भी मौजूं लगते हैं.
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