मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के साथ एक बार फिर उत्तर प्रदेश सरकार में केशव प्रसाद मौर्य डिप्टी सीएम बनाये गये हैं - सिराथू विधानसभा सीट से चुनाव हार जाने की वजह से मौर्य के मंत्रिमंडल में शामिल होने पर संदेह जताया जा रहा था. हालांकि, उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद ये संदेह कुछ कम जरूर हो गया था. असल में धामी भी अपना चुनाव हार गये थे.
ब्रजेश पाठक (Brajesh Pathak) को यूपी सरकार में नया डिप्टी सीएम बनाया गया है. योगी आदित्यनाथ की पहली पारी में डिप्टी सीएम रहे दिनेश शर्मा की जगह ही ब्रजेश पाठक को दी गयी है. ब्रजेश पाठक का प्रमोशन और दिनेश शर्मा की छुट्टी के भी कुछ खास कारण लगते हैं.
उत्तराखंड के राज भवन से बुलाकर चुनाव मैदान में उतारे जाने के बाद बेबी रानी मौर्य भी डिप्टी सीएम की पोस्ट की दावेदार समझी जा रही थीं, लेकिन लगता है चुनाव नतीजे ही उनकी राह में रोड़ा बन गये. चुनावों के दौरान उनकी बयानबाजी भी हो सकता है उनके खिलाफ गयी हो - और वो तीसरी डिप्टी सीएम नहीं बन पायी हों.
हैरानी की बात ये है कि अपने दोनों ही डिप्टी सीएम के साथ योगी आदित्यनाथ की पिछली पारी में बड़े ही तल्ख संबंध रहे हैं - केशव प्रसाद मौर्य की नाराजगी और कोरोना संकट के दौरान ब्रजेश पाठक का पत्र काफी चर्चित रहा है.
ऐसे में लगता नहीं कि योगी आदित्यनाथ ने मौर्य और पाठक दोनों को खुशी खुशी डिप्टी सीएम बनाया होगा - कुछ न कुछ मजबूरियां तो हर स्तर पर होती ही हैं और योगी आदित्यनाथ को भी बीजेपी नेतृत्व की बात माननी पड़ी होगी.
और योगी आदित्यनाथ की ऐसी सबसे बड़ी मजबूरी तो मंत्रिमंडल में पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा (Arvind Sharma) को शामिल किया जाना लगता है - माना जाता रहा है कि अरविंद शर्मा को बीजेपी नेतृत्व ने खास मकसद से वीआरएस दिलाकर लखनऊ भेजा था. अरविंद शर्मा के तभी डिप्टी सीएम तक बनाये जाने की जोरदार चर्चा रही, लेकिन योगी आदित्यनाथ को तब ये मंजूर न था.
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डिप्टी सीएम की कुर्सी को लेकर अपने नाम की चर्चा देख बेबी रानी मौर्य को कोई अरचज नहीं हो रहा होगा, लेकिन कैबिनेट में एक सामान्य मंत्री के तौर पर शामिल किये जाने से निराशा जरूर हुई होगी. यूपी चुनाव में बीजेपी का उम्मीदवार बनाये जाने से पहले बेबी रानी मौर्य उत्तराखंड की राज्यपाल हुआ करती थीं - और पार्टी नेतृत्व के कहने पर कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था.
बेबी रानी मौर्य को मलाल तो होगा ही: बेबी रानी मौर्य, दरअसल, दलित समुदाय की उसी जाटव तबके से आती हैं, जिससे मायावती हैं - और माना यही जा रहा था कि बीएसपी नेता को काउंटर करने के लिए बेबी रानी को मैदान में उतारा गया था.
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चुनाव नतीजों से तो ये साबित भी हो गया कि बेबी रानी मौर्या ने मायावती को अच्छे से काउंटर भी किया. मायावती ने अपने चुनाव कैंपेन की शुरुआत आगरा से की थी, जो बेबी रानी मौर्य का ही इलाका है. बेबी रानी मौर्य पहले आगरा की मेयर भी रह चुकी हैं.
अब सवाल उठता है कि क्या मायावती कुछ और सीटें जीत लेतीं तो बेबी मौर्या को भी डिप्टी सीएम बनाया जा सकता था? और अब बेबी रानी को सिर्फ मंत्री इसलिए बनाया गया है कि बीजेपी उनको अपने प्रमुख दलित चेहरे के तौर पर पेश करती रहे.
क्या बीजेपी ने मान लिया है कि यूपी में अब मायवती की राजनीति प्रासंगिक नहीं रह गयी है - और क्या अमित शाह का मुस्लिम वोटों को लेकर बीएसपी की प्रासंगिकता वाला बयान भी महज एक चुनावी जुमला ही था?
योगी के नये डिप्टी सीएम: केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक दोनों ही अलग अलग वजहों से यूपी की बीजेपी सरकार में डिप्टी सीएम बनाये गये हो सकते हैं. पहली वजह तो जातीय समीकरणों को दुरूस्त करने की कोशिश हो सकती है.
योगी आदित्यनाथ अपने पहले कार्यकाल के दौरान राजनीति से लेकर नौकरशाही तक में ठाकुरवाद के आरोपों से घिरे रहे. बीजेपी ने कभी शिव प्रताप शुक्ला को लाकर तो कभी कोई और इंतजाम कर योगी आदित्यनाथ को लेकर ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी दूर करने की कोशिश भी की थी - तभी योगी आदित्यनाथ ने ठाकुर होने पर गर्व जता कर अपने समर्थकों को संदेश भेज दिया.
चुनावों के दौरान या अभी के लिए भी, हो सकता है ये योगी आदित्यनाथ की ठाकुरवादी छवि उनके पक्ष में जाती हो, लेकिन योगी के लिए भी मनोज सिन्हा की तरह जातिवादी राजनीति के दायरे से निकलना मुश्किल हो सकता है. याद रहे योगी आदित्यनाथ ने पांच साल पहले मनोज सिन्हा की जगह अपनी ताकत के बूते मुख्यमंत्री बन गये थे. 'आज के बाद कल आता है और कल के बाद परसों' - मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की ये बातें हर जगह लागू होती हैं.
बीएसपी से बीजेपी में आये ब्रजेश पाठक की ब्राह्मण नेता की छवि उनके प्रमोशन में मददगार साबित हुई है. हो सकता है स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बीएसपी से आये नेताओं के समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर लेने के बाद पाला बदलने या ऐसा करने की सोचने वाले नेताओं को कोई मैसेज देने की भी कोशिश हो.
चाहे वो बिकरू कांड का मामला हो या फिर लखीमपुर खीरी का ब्रजेश पाठक बड़ी ही मजबूती के साथ मोर्चे पर डटे नजर आये. गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर को लेकर जब राजनीति शुरू हुई तो ब्रजेश पाठक खुल कर सरकार का बचाव किया और लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद भी मोर्चे पर डटे नजर आये.
बीजेपी जब लखीमपुर खीरी हिंसा को लेकर बचाव की मुद्रा में आ गयी थी, बीजेपी कार्यकर्ताओं के अंतिम संस्कार में ब्रजेश पाठक ही पहुंचे थे. मारे गये कार्यकर्ता भी ब्राह्मण ही थे. ये तब की बात है जब अमित शाह भी अपने सहयोगी अजय मिश्रा टेनी को स्टेज पर खड़ा करने के बाद पीछे भेज देते रहे.
रही बात केशव मौर्य की तो ओबीसी समुदाय से होना उनका सबसे मजबूत पक्ष रहा. बीजेपी ने वैसे भी ओबीसी कोटे से खूब मंत्री बनाये हैं. भले ही वो आशीष पटेल या संजय निषाद जैसे सहयोगी दलों के ही नेता क्यों न हों.
मायावती पर बयान देकर जेल की हवा तक खा चुके दयाशंकर सिंह को आखिरकार मंत्री पद मिल ही गया. अभी नतीजे भी नहीं आये थे कि बलिया में एक एसएचओ का दयाशंकर सिंह को कैबिनेट मंत्री बनने की बधाई देते वीडियो वायरल हुआ था. योगी आदित्यनाथ सरकार में दयाशंकर सिंह को कैबिनेट दर्जा तो नहीं लेकिन स्वतंत्र प्रभार वाला राज्य मंत्री जरूर बनाया गया है. पिछली सरकार में दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह को मंत्री बनाया गया था, लेकिन इस बार बीजेपी ने उनका टिकट ही काट दिया था.
और मंत्री बन ही गये शर्माजी
अरविंद शर्मा को चुनावों से पहले जब योगी आदित्यनाथ मंत्री बनाने को राजी नहीं हुए तो संगठन में भेज दिया गया था. लंबे समय तक गुजरात और फिर दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के भरोसेमंद नौकरशाह रहे अरविंद शर्मा यूपी चुनाव से करीब साल भर पहले वीआरएस लेकर लखनऊ पहुंचे. भगवा धारण करते ही उनको बीजेपी ने फटाफट विधान परिषद भेज कर मंत्री बनाये जाने योग्य बना दिया था लेकिन योगी आदित्यनाथ ने पेंच फंसा दिया.
तब से लेकर जब तक योगी आदित्यनाथ को अपने मन मुताबिक मंत्रिमंडल विस्तार की खुली छूट बीजेपी नेतृत्व ने नहीं दी, वो टालते ही रहे. अरविंद शर्मा का मुद्दा कई बार उठा और एक बार तो योगी आदित्यनाथ को दिल्ली तक तलब किया गया. दिल्ली में योगी आदित्यनाथ ने अमित शाह, जेपी नड्डा और प्रधानमंत्री मोदी सभी से मुलाकात की - और ट्विटर पर सभी से मार्गदर्शन मिलने की बात भी लिखी.
अरविंद शर्मा को कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान कहर को कंट्रोल करने का टास्क सौंपा गया था. वो लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय के संपर्क में रहे, लेकिन योगी आदित्यनाथ को उनका अलग से एक्टिव होना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा. अरविंद शर्मा के कोरोना कंट्रोल को वाराणसी मॉडल के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया और प्रधानमंत्री मोदी ने गुजराज जाकर भी वाराणसी मॉडल की तारीफ की.
यहां तक अरविंद शर्मा को लेकर योगी आदित्यनाथ की जिद को प्रधानमंत्री मोदी के आदेश की अवहेलना के तौर पर भी लिया गया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुए. योगी की जिद के चलते मोदी-शाह ने कदम पीछे खींच लिये और उसके साथ ही वाराणसी मॉडल की चर्चा होनी भी बंद हो गयी.
अरविंद शर्मा से योगी आदित्यनाथ की चिढ़ की वजह ये रही कि उनको दिल्ली की आंख, नाक और कान माना जा रहा था. योगी आदित्यनाथ की प्रशासनिक क्षमता पर भी सवाल उठाये जाते रहे और एक नौकरशाह को कैबिनेट सहयोगी के तौर पर वो शायद इसलिए भी खतरा मानते रहे हों - अब तो पांच साल सरकार चला कर दोबारा सत्ता में वापसी भी कर चुके हैं. कामयाबी तो हर तरह के सवालों का जवाब होती है - और योगी तो अब ये हासिल भी कर चुके हैं.
लेकिन सवाल तो अब भी ये बना हुआ है कि क्या योगी आदित्यनाथ आगे से अरविंद शर्मा पर आंख मूंद कर भरोसा कर पाएंगे? क्योंकि जिस दबाव में योगी आदित्यनाथ को अरविंद शर्मा को मंत्री बनाना पड़ा है, कुछ नापसंद आने पर हटाना भी मुश्किल होगा.
ऐसा ही सवाल योगी आदित्यनाथ के लिए केशव मौर्य और ब्रजेश पाठक को लेकर भी बना रहेगा?
जिस तरीके से केशव मौर्य ने चुनावों से पहले मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर सस्पेंस बनाने की कोशिश की. जिस तरीके से मथुरा का मुद्दा उछाल कर अपनी पोजीशन मजबूत करने की कोशिश की - और जिस तरीके से नाराजगी की चर्चाओं को हवा दी, योगी आदित्यनाथ के सामने ये चुनौतियां तो बनी ही रहेंगी.
ब्रजेश पाठक ने कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान एक तरह से सरकार के कामकाज पर ही सवाल उठाया था. भले ही इतिहासविद योगेश प्रवीण रो एंबुलेंस न मिलने के चलते हुई मौत के लिए ब्रजेश पाठक ने अफसरों पर सवाल उठाया हो, लेकिन वो सब खिलाफ तो योगी आदित्यनाथ के ही खिलाफ रहा - अब भला योगी आदित्यनाथ कैसे ब्रजेश पाठक पर भी पूरी तरह भरोसा कर पाएंगे?
जो काम नहीं करेगा, वो मंत्री नहीं बन सकता: योगी आदित्यनाथ कैबिनेट के जरिये बीजेपी नेताओं को एक खास सबक देने की कोशिश भी लगती है. यूपी चुनाव के आखिरी दौर में प्रधानमंत्री मोदी को जितनी मेहनत करनी पड़ी थी, उसकी जरूरत नहीं होती अगर विधायकों की छवि खराब नहीं होती.
केशव मौर्य को चुनाव हार जाने के बावजूद डिप्टी सीएम बनाया जाना और वाराणसी के शहर दक्षिणी विधानसभा सीट से नीलकंठ तिवारी के चुनाव जीतने के बाद भी दोबारा मंत्रिमंडल में जगह नहीं दिया जाना आखिर बीजेपी की तरफ से अपने नेताओं को दिया गया संदेश ही तो है.
प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र से तीन नेताओं को मंत्री बनाया गया है - दयाशंकर मिश्रा, अनिल राजभर और रविंद्र जायसवाल. नीलकंठ तिवारी और रविंद्र जायसवाल दोनों ही की जीत को लेकर बीजेपी में शक रहा और मोदी को रोड शो के साथ साथ तीन दिन तक शहर में डेरा जमाये रखना पड़ा था.
रविंद्र जायसवाल को तो फिर से मंत्री बनाया गया है, लेकिन नीलकंठ तिवारी की जगह ब्राह्मण चेहरे दयाशंकर मिश्रा को ही तरजीह दी गयी है. वाराणसी से ही अनिल राजभर भी मंत्री बनाये गये हैं.
जैसे 2017 में बीजेपी अध्यक्ष रहे केशव मौर्य को डिप्टी सीएम बना दिया गया था, इस बार यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह भी मंत्रिमंडल में शामिल हो गये हैं, लिहाजा अब बीजेपी को संगठन के लिए एक नये नेतृत्व की तलाश होगी. 2019 से पहले तो केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय को चुनावों तक यूपी बीजेपी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गयी थी - अब कौन अध्यक्ष बनता है देखना होगा.
जिस तरह से मंत्रिमंडल के जरिये जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश की गयी है, ये तो नहीं लगता कि बीजेपी को यूपी में किसी दलित या ब्राह्मण नेता को कमान सौंपने की जरूरत है - मायावती को तो बीजेपी ने किनारे लगा ही दिया है अब अगर अखिलेश यादव को जैसा बनाना है तो किसी यादव को पार्टी चाहे तो यूपी की कमान दे सकती है.
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