योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की मुश्किलें तो 2022 में बढ़ ही जानी हैं. तब भी, अगर वो यूपी चुनाव (P Elections 2022) जीत कर सत्ता में वापसी कर लेते हैं. अगर बहुमत नहीं ला पाये और हरियाणा जैसी स्थिति बनी तो मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए भी कड़ा संघर्ष करना होगा. 2029 में हरियाणा में बहुमत से दूर रह जाने पर बीजेपी को दुष्यंत चौटाली की पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जितनी बड़ी चुनौती बीजेपी के भीतर से मिलने वाली है, उसके मुकाबले विपक्षी खेमे के नेताओं से तो नहीं के बराबर ही लगता है. अभी तो संघ ने केशव प्रसाद मौर्या की नाराजगी समझा बुझा कर खत्म कर दी है - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने भी दिल्ली बुलाकर मथुरा के मुद्दे पर जरूरी खुराक पिला दी है, लेकिन 2022 के चुनाव बात के हालात बिलकुल अलग हो सकते हैं.
जिस जिद और ताकत के बूते योगी आदित्यनाथ मोदी और शाह को अरसे से आंख दिखाते आ रहे हैं, चुनावों में चूके तो मौका हाथ लगते ही बीजेपी नेतृत्व किनारे लगाने में जरा भी देर नहीं करने वाला है. अगर मोदी-शाह ने कोई फैसला ले ही लिया तो संघ भी हाथ डालने से रहा. अटल-आडवाणी के दौर में भी ऐसा हो चुका है - और मोदी-शाह की जोड़ी तो कहीं ज्यादा ही ताकतवर हो चुकी है.
ये बात तो जगजाहिर है कि योगी आदित्यनाथ धीरे धीरे मोदी-शाह के लिए ही मुसीबत बन चुके हैं, फिर तो ये भी मान कर चलना ही चाहिये कि क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम यहां भी लागू हो कर ही रहेगा - योगी आदित्यनाथ को भी ये इल्म तो होगा ही कि बीजेपी में बीएस येदियुरप्पा एक ही रहे हैं - और हर कोई तो हो भी नहीं सकता!
1. मोदी-शाह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए योगी आदित्यनाथ को बर्दाश्त करते रहना, करीब करीब वैसा ही है जैसे कृषि कानूनों के वापस लेने का फैसला. दिल पर पत्थर रख कर. बीजेपी राजनीति की खातिर - और जब भी वो कर्मयोगी कह कर बुलाते होंगे, उनका मन ही जानता होगा कि योगी कितने PYOGI हैं. रैलियों में चेहरे के भाव से मन की बात नहीं समझी जा सकती. जैसा भाव लोगों ने यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या के साथ मुलाकात की तस्वीरों में मोदी के चेहरे पर देखा था.
योगी और मोदी ही नहीं, शाह सहित तीनों नेता आपस में ही एक दूसरे के लिए बहुत बड़े चैलेंजर बनने वाले हैं!
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए योगी आदित्यनाथ पर हाथ डालने की बीजेपी नेतृत्व की भी हिम्मत नहीं हो रही होगी, लेकिन राम मंदिर तो वैसे भी अब बीजेपी को वोट नहीं दिलाने वाला लग रहा है - बस उसे चटनी अचार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तो झारखंड में चुनाव हो रहे थे - लेकिन जोर जोर से क्रेडिट लेने के बावजूद बीजेपी दिल्ली चुनाव भी हार गयी - 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले मंदिर मुद्दा ड्रॉप करने का आइडिया तो कारगर रहा ही.
2018 के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में हुई हार के बाद बीजेपी नेतृत्व को योगी आदित्यनाथ के बागी तेवर पर भरोसा बढ़ ही गया है, रही सही कसर मोदी के पसंदीदा नौकरशाह रहे अरविंद शर्मा को कैबिनेट में शामिल न करके योगी आदित्यनाथ ने पूरी कर ही डाली है.
योगी आदित्यनाथ 2022 के लिए बीजेपी नेतृत्व को जी भर एक्सप्लॉयट कर रहे हैं - और कभी कभी तो ऐसा भी लगता है जैसे बीजेपी नेतृत्व ही नहीं संघ भी योगी के इशारों पर नाचता फिर रहा हो.
अमित शाह खुलेआम मोदी के नाम पर योगी आदित्यनाथ के लिए वोट मांगने लगे हैं. ये भी एक बड़ा इशारा है. मोदी की यूपी में एक भी रैली नहीं होती जब वो योगी आदित्यनाथ के तारीफों के पुल न बांधते हों. ये जरूरी भी तो नहीं कि 2024 में मोदी के एहसानों का बदला योगी चुकायें भी. नीतीश कुमार मिसाल हैं. बगैर मोदी के 2020 में नीतीश कुमार का सीएम बनना नामुमकिन सा था, लेकिन कुर्सी पर बैठ जाने के बाद नीतीश का एक भी कदम ऐसा लगता है जिससे लगे कि वो मोदी के एहसानों तले दबा हुआ महसूस करते हों. नीतीश जिस तरह से लालू परिवार के साथ चिपकने की कोशिश कर रहे हैं - मौका मिलते ही फिर से कुलांचे भरने लगेंगे.
अगर योगी 2024 के लिए ठीक नहीं लगे तो 2022 में ही सत्ता में वापसी के बावजूद बीजेपी नेतृत्व फैसला ले लेगा - और अगले आम चुनाव को लेकर मोदी-शाह के फैसले में संघ भी दखल नहीं देने वाला.
2. अरविंद शर्मा
यूपी चुनाव से पहले डिप्टी सीएम तो नहीं बन सके, लेकिन 2022 में चुनाव नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो जायें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये. मान कर चलना चाहिये कि मोदी को 2024 जीतने के लिए 2022 के बाद जितना जल्दी संभव हो सके - अरविंद शर्मा अच्छी पोजीशन में होने चाहिये.
अरविंद शर्मा को प्रधानमंत्री मोदी चाहें तो केंद्र में कभी भी ऐडजस्ट कर सकते हैं क्योंकि वो शर्मा में भी एस. जयशंकर, हरदीप पुरी या नौकरशाही की पृष्ठभूमि से आने वालों जैसी ही काबिलियत देखते हैं - और कोविड 19 को लेकर अरविंद शर्मा ने जो 'वाराणसी मॉडल' पेश किया उसके बाद तो कहने की जरूरत नहीं कि वो कितने काबिल हैं.
अरविंद शर्मा अभी नेपथ्य में जरूर हैं लेकिन मौसम मुफीद होते ही योगी आदित्यनाथ के लिए खतरा बन सकते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह बार बार कहे जा रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ ने कोरोना संकट के दौरान यूपी में बेहतरीन काम किया, लेकिन उनको भी मालूम है कि किसने बढ़िया काम किया - जिसने सब कुछ किया उसे तो क्रेडिट मिल नहीं रही है.
अरविंद शर्मा 2022 में योगी आदित्यनाथ के लिए जातिवादी राजनीति में भी चुनौती बन कर खड़े हो सकते हैं. योगी आदित्यनाथ के ठाकुरवाद से नाराज ब्राह्मणों को राहत दिलाने के लिए बीजेपी ने एक बार फिर गोरखपुर से आने वाले शिव प्रताप शुक्ला को आगे किया है - शुक्ला को बीजेपी की ब्राह्मण कमेटी का मुखिया बनाया गया है. हालांकि, ये उनको कोई मुख्यमंत्री बना देने का संकेत नहीं है - क्योंकि ऐसा हुआ तो नया ही संघर्ष शुरू हो जाएगा.
ऐसे में अरविंद शर्मा बेहतर विकल्प हो सकते हैं - न ठाकुर न ब्राह्मण, बल्कि भूमिहार समुदाय से आने वाले नेता हैं अरविंद शर्मा. अगर ऐसी कोई सूरत बनती है तो लोग अरविंद शर्मा में ही मनोज सिन्हा की छवि देखने लगेंगे. मऊ से आने वाले अरविंद शर्मा और मोहम्मदाबाद के मनोज सिन्हा के इलाके भी एक ही कहे जाएंगे.
3. केशव प्रसाद मौर्या
योगी आदित्यनाथ के लिए 2022 में चुनौती देने वालों की फेहरिस्त में केशव मौर्या के साथ ही बेबी रानी मौर्य का नाम भी अपनेआप ही जुड़ जाता है. दोनों ही नेताओं के जिम्मे एक ही तरह के टास्क मिले हैं.
योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद करने का आरोप लगता जरूर है, लेकिन कट्टर हिंदुत्व की राजनीति से बनी छवि के चलते योगी आदित्यनाथ का अपना जनाधार है - जबकि केशव प्रसाद मौर्या और बेबी रानी मौर्य की हैसियत जातीय राजनीति के चलते बन सकी है - और उसमें भी विपक्षी खेमे के दो नेताओं बड़े नेताओं अखिलेश यादव और मायावती को काउंटर करने के लिए बीजेपी दोनों मौर्य नेताओं को आगे किया है. केशव मौर्या भी तभी तक महत्वपूर्ण बने हुए हैं जब तक बीजेपी के पास कोई यादव ओबीसी चेहरा नहीं मिल जाता.
केशव प्रसाद मौर्या को अभी तो खामोश कर दिया गया है, लेकिन योगी आदित्यनाथ को ये नहीं भूलना चाहिये कि वो संघ की पृष्ठभूमि से आये हैं और वो भी कट्टर हिंदुत्व की ही राजनीति करते हैं - मथुरा पर ट्वीट एक बड़ा संकेत है.
फर्ज कीजिये मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव बीजेपी में आ जाती हैं, तो केशव मौर्या की भी अहमियत कम हो जाएगी - क्योंकि बीजेपी के पास सबसे बड़ा ओबीसी फेस तो खुद प्रधानमंत्री मोदी हैं ही. जैसे ही ओबीसी और दलित का पूरा पैकेज बीजेपी के हिस्से में आ जाएगा - ऐसे किसी भी नेता की जरूरत नहीं रहेगी - मतलब, योगी आदित्यनाथ की भी नहीं.
फिर तो यूपी में भी संघ की पृष्ठभूमि वाला कोई गुमनाम नेता कमान संभाल लेगा - जैसे हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर की दूसरी पाली चल रही है. चाहे कोई कितने भी सवाल क्यों न उठाता रहे, फर्क कहां पड़ता है.
4. अखिलेश यादव
अखिलेश यादव तो अभी से योगी आदित्यनाथ के लिए चैलेंजर बन गये हैं, लेकिन तब और भी खतरनाक होते अगर मायावती साथ होतीं - और दोनों वोट ट्रांसफर पर मिलजुल कर काम कर रहे होते.
अखिलेश यादव बार बार गठबंधन के प्रयोग कर रहे हैं. 2017 में कांग्रेस के साथ, 2019 में मायावती के साथ - और अगले चुनाव के लिए जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर जैसे छोटे दलों के नेताओं के साथ. शिवपाल यादव के साथ गठबंधन के कंडीशन अलग लगते हैं.
योगी आदित्यनाथ को मालूम होना चाहिये कि 2022 के बाद अखिलेश यादव की भी नजर 2024 पर होगी - और अगर यूपी में मुख्यमंत्री नहीं बन पाते हैं तो वो केंद्र का रुख भी कर सकते हैं - आखिर फिर से पांच साल घर बैठे रहने से क्या फायदा. फिर तो मायावती का हाल हो जाएगा.
अगर अखिलेश यादव लोक सभा चुनाव पर फोकस करते हैं तो कुछ निश्चित सीटों पर तो जीत सुनिश्चित भी कर सकते हैं. 2014 में भी मुलायम सिंह का पूरा परिवार चुनाव तो जीता ही था, भले ही अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते बाकी समाजवादी पार्टी उम्मीदवार हार गये.
लोक सभा की तैयारी अखिलेश यादव 2022 में ही विधानसभा चुनावों के बाद शुरू कर देंगे - और जब बीजेपी नेतृत्व को लगेगा कि योगी 2024 के लिए मिसफिट हो रहे हैं, तत्काल प्रभाव से हटा दिये जाएंगे जैसे उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदले गये - वे सभी 2024 के हिसाब से ही बदले गये हैं.
5. प्रियंका गांधी वाड्रा
यूपी में न तो कांग्रेस की अपनी कोई हैसियत है, न ही यूपी चुनाव के बाद किसी को ऐसी कोई उम्मीद है. प्रियंका गांधी वाड्रा योगी आदित्यनाथ के लिए चुनौती इसलिए नहीं बन सकती हैं क्योंकि वो यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि वो 2024 में यूपी से कांग्रेस के लिए कुछ बड़ा करने की रणनीति पर चल रही हैं - और प्रधानमंत्री मोदी के लिए योगी आदित्यनाथ को जो टास्क मिलने वाला है उसमें प्रियंका ही रास्ते का रोड़ा हो सकती हैं.
2014 से ज्यादा नहीं तो अगले आम चुनाव में बीजेपी कम से कम उतनी सीटें तो हासिल करना चाहेगी. चूंकि पश्चिम बंगाल ने निराश किया है और विपक्षी एकजुटता की कोशिशें तेजी से चल रही हैं, इसलिए यूपी को सबसे ज्यादा मजबूत बनाने की कोशिश होगी. अभी तो प्रियंका गांधी की कोशिश 2024 में अमेठी में वापसी और रायबरेली का किला बरकरार रखने की ही लगती है.
योगी आदित्यनाथ के लिए तो प्रियंका गांधी वाड्रा डबल चैलेंज हैं - क्योंकि उनकी वजह से स्मृति ईरानी को आगे किया जाएगा, ताकि अमेठी के बाद उससे सटा हुआ रायबरेली भी बीजेपी हासिल कर सके.
और अब तो स्मृति ईरानी ने अमेठी में जमीन भी ले रखी है. घर बना कर बसने की भी तैयारी कर चुकी हैं. 2017 में जब बीजेपी नेतृत्व को मुख्यमंत्री पद को लेकर फैसला लेने में देर हो रही थी तो संभावितों की सूची में कई मीडिया रिपोर्ट में स्मृति ईरानी को भी जगह मिली था - क्या मालूम आगे चल कर वो जगह पक्की होने की संभावना बढ़ जाये.
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