यूपी चुनाव में मुकाबला तो पहले भी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) में ही था - हां, अब फासले जरूर कम लगने लगे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य के योगी सरकार से इस्तीफे के बाद जो भगदड़ दिखायी पड़ रही है, उसमें नंबर ज्यादा मायने नहीं रखता. न तो अभी, न ही आगे. अचानक ऐसा हो जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है. असर भी इसी बात का ज्यादा होने वाला है.
अब भी कोई ये नहीं कह सकता कि बाजी बीजेपी के हाथ से निकल चुकी है. तब भी जबकि बेटी का दावे को दरकिनार करते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर चुके हैं. अभी तो ऐसा ही है, आगे की बात और है. लेकिन ये तो है कि मामला अब पूरी तरह एकतरफा नहीं रहा - और बीजेपी के रणनीतिकार भी मन ही मन ये सब स्वीकार कर रहे होंगे.
चुनाव की तारीखों की घोषणा के वक्त अखिलेश यादव जिन संसाधनों का रोना रो रहे थे, लगता है जैसे कुछ देर के लिए उनकी कोई अहमियत ही नहीं रही. संसाधनों के मामले में सबसे रईस बीजेपी अपने खिलाफ निगेटिव कैंपेन रोक पाने में असमर्थ साबित हो रही है - और अखिलेश यादव एंड उनकी बनायी नयी नयी गठबंधन कंपनी मुफ्त में वोटर तक अपना मैसेज पहुंचा रही है.
लड़ाई भी साफ है. ये सब गैर-यादव ओबीसी वोट हासिल करने की लड़ाई है. बीजेपी ऐसा करके अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को कमजोर करने रणनीति पर काम कर रही थी. तभी महत्वहीन लगने वाले अखिलेश यादव की रूटीन मुलाकातों के बीच ऐसा खेल शुरू हुआ कि समाजवादी पार्टी की चुनावों से पहले हैसियत में इजाफा होने लगा है.
ये तो अखिलेश यादव को भी मालूम है कि बगैर ओबीसी के नाम पर यादवों के नेता होने के तोहमत से उबरे और गैर-यादव ओबीसी का साथ लिये कुछ नहीं होने वाला. सत्ता तो दूर मजबूत विपक्षी दल बनना भी मुमकिन नहीं होगा. महज यादव-मुस्लिम के भरोसे कोई...
यूपी चुनाव में मुकाबला तो पहले भी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) में ही था - हां, अब फासले जरूर कम लगने लगे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य के योगी सरकार से इस्तीफे के बाद जो भगदड़ दिखायी पड़ रही है, उसमें नंबर ज्यादा मायने नहीं रखता. न तो अभी, न ही आगे. अचानक ऐसा हो जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है. असर भी इसी बात का ज्यादा होने वाला है.
अब भी कोई ये नहीं कह सकता कि बाजी बीजेपी के हाथ से निकल चुकी है. तब भी जबकि बेटी का दावे को दरकिनार करते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर चुके हैं. अभी तो ऐसा ही है, आगे की बात और है. लेकिन ये तो है कि मामला अब पूरी तरह एकतरफा नहीं रहा - और बीजेपी के रणनीतिकार भी मन ही मन ये सब स्वीकार कर रहे होंगे.
चुनाव की तारीखों की घोषणा के वक्त अखिलेश यादव जिन संसाधनों का रोना रो रहे थे, लगता है जैसे कुछ देर के लिए उनकी कोई अहमियत ही नहीं रही. संसाधनों के मामले में सबसे रईस बीजेपी अपने खिलाफ निगेटिव कैंपेन रोक पाने में असमर्थ साबित हो रही है - और अखिलेश यादव एंड उनकी बनायी नयी नयी गठबंधन कंपनी मुफ्त में वोटर तक अपना मैसेज पहुंचा रही है.
लड़ाई भी साफ है. ये सब गैर-यादव ओबीसी वोट हासिल करने की लड़ाई है. बीजेपी ऐसा करके अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को कमजोर करने रणनीति पर काम कर रही थी. तभी महत्वहीन लगने वाले अखिलेश यादव की रूटीन मुलाकातों के बीच ऐसा खेल शुरू हुआ कि समाजवादी पार्टी की चुनावों से पहले हैसियत में इजाफा होने लगा है.
ये तो अखिलेश यादव को भी मालूम है कि बगैर ओबीसी के नाम पर यादवों के नेता होने के तोहमत से उबरे और गैर-यादव ओबीसी का साथ लिये कुछ नहीं होने वाला. सत्ता तो दूर मजबूत विपक्षी दल बनना भी मुमकिन नहीं होगा. महज यादव-मुस्लिम के भरोसे कोई कितना आगे बढ़ सकता है. वो भी जब मुस्लिम वोटों को लेकर पहले से ही हिस्सेदारी की कवायद चल रही हो.
अब तक जो भी इस्तीफे हुए हैं उनकी भाषा और उसके आगे पीछे कि गतिविधियां सभी एक खास पैटर्न की तरफ इशारे करती हैं. सबसे बड़ी बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को पूरे मामले में घसीटने से परहेज किया जा रहा है. नाम बीजेपी का जरूर लिया जा रहा है, लेकिन निशाने पर योगी आदित्यनाथ की सरकार और उसके कामकाज की स्टाइल है - और यही योगी आदित्यनाथ के लिए सबसे बड़ा चैलेंज है.
योगी पर निशाना, मोदी से परहेज
यूपी की राजनीति में जो कुछ चल रहा है, उसे कुछ एक्सपर्ट एक बार फिर से मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के तौर पर देख रहे हैं. कुछ लोग इसे मोदी बनाम अखिलेश तक बताने लगे हैं - शायद इसलिए क्योंकि अमित शाह कुछ दिन पहले योगी आदित्यनाथ के लिए प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही वोट मांग रहे थे.
लेकिन क्या वाकई ऐसा ही है - क्या आपने ध्यान दिया? किसी ने भी मोदी सरकार या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल नहीं उठाया है. शायद किसी में भी यूपी के मोदी सपोर्टर को नाराज करने की हिम्मत नहीं हो रही है.
मोदी वैसे भी बीजेपी के ऑल इन वन मॉडल हैं - कट्टर हिंदूवादी नेता के साथ साथ पार्टी का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा भी हैं. योगी आदित्यनाथ इस खांचे से सीधे बाहर हो जाते हैं. ऊपर से उन पर ठाकुरवाद की राजनीति का आरोप भी लग जाता है.
स्वामी प्रसाद मौर्य और उनको फॉलो करने वाले सभी नेताओं के निशाने पर योगी आदित्यनाथ ही हैं. अगर उनकी नाराजगी नापने की कोशिश की जाये तो बीजेपी से ज्यादा योगी आदित्यनाथ से ही होगी.
ये खास पैटर्न भी काबिल-ए-गौर है
योगी सरकार से इस्तीफा देने वाले मंत्री और बीजेपी छोड़ने वाले विधायक - ज्यादातर गैर-यादव ओबीसी तबके से आते हैं. लगभग सभी के इस्तीफों की भाषा भी एक जैसी है और अखिलेश यादव की तरफ से होने वाला त्वरित रिएक्शन भी.
आपने भी ध्यान दिया होगा. योगी सरकार के मंत्री इस्तीफे टाइप कराते हैं. सोशल मीडिया और मीडिया के साथ शेयर करते हैं. ड्राफ्ट भी एक जैसा ही लगता है. ऐसी ही भाषा 2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ज्वाइन करने वाले नेताओं के मुंह से सुनने को मिलती रही. बीजेपी ज्वाइन करने वाला हर नेता तब अपनी अपनी पार्टी के पुलवामा हमले के बाद स्टैंड से खफा था - और पार्टी छोड़ कर बीजेपी में भगवा चोला धारण कर रहा था.
समाजवादी पार्टी की तरफ कदम बढ़ाने से पहले से ही ज्यादातर बीजेपी नेता अचानक 'वंचितों, पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों' की बात करने लगे हैं - अब ऐसे वोटर को अपने पाले में मिलाने की आतुरता तो सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी में ही है.
फिर देखिये. बीजेपी छोड़ कर जाने वाले की पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुलाकात की खबर आती है - और कुछ देर बाद अखिलेश यादव मुलाकात की तस्वीर शेयर करते हैं. साथ में ट्विटर पर बाइस में बदलाव वाला हैशटैग भी जोड़ देते हैं.
गलती किससे और कहां हुई है
बीजेपी खेमे से डबल मिस्टेक हुई है. ऐसा भी नहीं कि स्वामी प्रसाद मौर्या चुपके से निकल गये हों. वो अपनी बात उचित मंचों पर उठा भी चुके थे. और ऐसा भी नहीं कि बीजेपी नेतृत्व को भनक तक नहीं लगी. हो सकता है बीजेपी नेतृत्व बाकी चुनौतियों के बीच इस मुद्दे को तरजीह नहीं दे सका. ऐसा लगता है.
स्वामी प्रसाद मौर्य के मामले में लापरवाही से काफी पहले, बड़ी गलती ओम प्रकाश राजभर को नजरअंदाज करना है. हालांकि, बीच में खबर आ रही थी कि यूपी बीजेपी उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह कई बार ओम प्रकाश राजभर से मिल चुके हैं. ओम प्रकाश राजभर ने मुलाकात की बात तो स्वीकार की, लेकिन बोले कि अपने लिए वो टिकट के लिए मिले थे. फिर ये भी खबर आयी कि स्वाती सिंह और दया शंकर एक ही सीट से बीजेपी टिकट चाहते हैं. दोनों पति-पत्नी हैं. मायावती के खिलाफ बयानबाजी को लेकर दयाशंकर सिंह को जेल जाना पड़ा और स्वाती सिंह को बीजेपी ने चुनाव लड़ा कर मंत्री बना दिया.
ओम प्रकाश राजभर की भी ज्यादा नाराजगी योगी आदित्यनाथ से ही रही है. हालांकि, आम चुनाव से पहले उनके आक्रामक अंदाज से अमित शाह भी खफा हो गये. ओपी राजभर तो पहले से ही योगी काबिलियत पर भी सवाल उठाते रहे. हो सकता है, चुनावी रैलियों के लिए अखिलेश यादव को क्लू भी उसी से मिला हो - 'योगी चाहिये या योग्य मुख्यमंत्री... बाबा को लैपटॉप चलाने नहीं आता.' आखिर राजभर के भी योगी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल होते थे - नौकरशाही के भरोसे चलते हैं.
देखा जाये तो पूरे प्रकरण में ओम प्रकाश राजभर ही अखिलेश यादव के बहुत बड़े संबल बने हैं - और स्वामी प्रसाद मौर्य को समझाने के मामले में भी उनकी मिसाल दी गयी होगी. स्वामी प्रसाद मौर्य के कदम बढ़ाने के फैसले के पीछे भी राजभर ही मिसाल बने होंगे, ऐसा लगता है.
जयंत चौधरी से तो अखिलेश यादव के हाथ मिलाने की बात पक्की थी, लेकिन खुल कर मजबूत गठबंधन साथी के तौर पर राजभर ही सामने आये - और अखिलेश यादव की रोजाना की मुलाकातें चलती रहीं.
बीजेपी नेतृत्व को लगा था कि दूसरे राजभर नेताओं से काम चला लेंगे. बीजेपी ने अनुप्रिया पटेल की नाराजगी खत्म कर दी - और संजय निषाद को अपनी शर्तों पर राजी कर लिया, लेकिन राजभर को एक बार नजरअंदाज किया तो फिर कभी घास नहीं डाली.
स्वामी प्रसाद के प्रहार का असर ये हुआ है कि अनुप्रिया पटेल को भी बोलने का मौका मिल गया है - वो भी सम्मान की बात करने लगी हैं. संजय निषाद भी सीटों की डिमांड बढ़ाने लगे हैं.
मुलाकात हुई, क्या बात हुई - चौकन्ना तो बीजेपी को इन सब से होना चाहिये था, लेकिन बीजेपी शायद बेपरवाह रही. योगी आदित्यनाथ भी 2018 के गोरखपुर उपचुनाव की तरह. अखिलेश यादव अपने खेल में लगे रहे. मौका मिलते ही खेल कर भी दिया.
स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा ज्वाइन करने के बाद अखिलेश यादव बोले भी, 'बाबा फेल हो चुके... कितने भी दिल्ली वाले आयें... अब कुछ नहीं होगा... इस बार हमारे नेताओं की स्ट्रेटेजी भी समझ नहीं पाये.'
बीजेपी का डैमेज कंट्रोल
बैकडोर मैनेजमेंट के अलावा बीजेपी मंत्रियों और विधायकों की बगावत पर दो रास्ते अख्तियार किये हुए है. एक केशव मौर्य के जरिये. प्यार से. दूसरा सिद्धार्थनाथ सिंह जैसे नेताओं के माध्यम से. चले जाने वालों की अहमियत खारिज करके.
डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य नाराज नेताओं को मनाने की कोशिश कर रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान को लेकर भी मौर्य के ट्वीट एक जैसे ही रहे, लेकिन सिद्धार्थ नाथ सिंह ऐसे नेताओं के बीजेपी में रह कर मलाई खाने की बात कर रहे हैं. मुहावरे भी कई बार लिटरल लगने लगते हैं.
ये क्या बात हुई. बीजेपी में भी ऐसा होता है क्या? प्रधानमंत्री मोदी तो कहते हैं कि 'न खाएंगे और न खाने देंगे', तो क्या ये योगीराज का राज है? मलाई खाने का इंतजाम होने लगा था - ये लोग अगर मलाई खा रहे थे तो बीजेपी कर क्या रही थी?
योगी सरकार में मंत्री और सिद्धार्थ नाथ सिंह, 'विधायकों के बीजेपी छोड़ने के कई कारण हैं... कुछ लोग निजी फायदे के लिए पार्टी छोड़ रहे हैं... कुछ लोगों को डर है कि उनकी पसंद की विधानसभा सीट से टिकट नहीं दिया जाएगा - इन लोगों ने पांच साल तक बीजेपी के साथ रहकर मलाई खाने का काम किया है.'
बीजेपी छोड़ने वाले विधायकों के पिछड़ों और दलितों का मुद्दा उठाने पर कहते हैं, 'पिछड़ों और दलितों को गुमराह किया जा रहा है... बीजेपी छोड़ने वाले विधायक पिछड़ों और दलितों के लिए समाजवादी पार्टी द्वारा चलाई गई 10 योजनाओं के नाम बताकर देखें... समाजवादी पार्टी केवल मुसलमानों और यादवों के लिए काम करती है.'
योगी करें तो क्या करें
सीटों पर सौदेबाजी होगी: बीजेपी के लिए सहयोगी दलों से डील करना मुश्किल होगा. मौके की नजाकत समझते हुए वे ज्यादा सीटों के लिए बीजेपी से मांग करेंगे - मतलब, लखनऊ की नहीं चलने वाली, सीधे से दिल्ली हॉटलाइन पर सीटों की सौदेबाजी होगी. ऐसा हुआ तो योगी आदित्यनाथ कमजोर होंगे, लिहाजा कुछ तो करना ही पड़ेगा.
टिकट देने में कमजोर पड़ेंगे योगी: बीजेपी के भीतर भी टिकट देना बड़ी चुनौती होगी. ये खबर भी आने लगी है कि कम ही विधायकों के टिकट काटे जाएंगे. पहले ये संख्या 100 तक बतायी जा रही थी. फिर 45 हुई और अब और भी कम लग रही है.
पार्टी के भीतर टिकट बंटवारे में भी योगी आदित्यनाथ को बीजेपी नेतृत्व की बात माननी पड़ेगी. जिन विधायकों का टिकट काटने का योगी मन बना चुके होंगे, मन मसोस कर रह जाना पड़ सकता है.
संघ की नाराजगी भी भारी पड़ेगी: योगी आदित्यनाथ के लिए अब सिर्फ जैसे तैसे बहुमत हासिल करना जरूरी नहीं रहा. हर हाल में ज्यादा सीटें लाना होगा - और बीजेपी में अपने समर्थक विधायकों का नंबर ज्यादा रखना होगा. ताकि चुनाव बाद जीत की स्थिति में भी विधायक दल का नेता चुना जाना आसान हो.
योगी को इस बार संघ का भी पांच साल पहले जैसा साथ नहीं मिलने वाला है. अब तो मंदिर भी बन ही रहा है - और संघ के सह कार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के लखनऊ दौरे में योगी का जो व्यवहार रहा वो शायद ही कभी भूल पायें. जो ऐंठन योगी ने दिखायी थी, बीजेपी के ऊपर के कुछ नेताओं को छोड़ कर संघ के प्रति ऐसे व्यवहार की हिम्मत शायद ही किसी में होती हो.
मोदी-शाह को तो मौके की तलाश है: पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा प्रकरण के बाद से मोदी-शाह पहले से ही योगी आदित्यनाथ से खफा हैं - किसी भी मोड़ पर कमजोर पड़े तो समझ लें काम हो गया.
रास्ता क्या है: चुनाव नतीजे आने के बाद अगर सहयोगी दल फैल जायें कि वो बीजेपी को तभी सपोर्ट करेंगे जब योगी के अलावा किसी और नाम पर विचार हो - ऐसी मुहिम योगी आदित्यनाथ तभी न्यूट्रलाइज कर पाएंगे जब चुनाव बाद भी बीजेपी में मजबूत बने रहें - या फिर बीजेपी छोड़ कर अलग पार्टी बना लेने का माद्दा रखते हों.
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