आम आदमी पार्टी के लिए कुनबा बचाने की चुनौती
एमसीडी चुनावों में बेहतर प्रदर्शन न कर पाने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए असली चुनौती अब शुरू हुई है. एमसीडी चुनावों में हार के बाद आम आदमी पार्टी के भीतर इस्तीफों का सिलसिला शुरू हो गया है.
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एमसीडी चुनावों के परिणाम वैसे ही रहे जैसा चुनाव के पहले ही उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली की जनता ने एक बार फिर से एमसीडी को चलाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को चुना, जबकि पहली बार चुनावों में उतरी आम आदमी पार्टी 2015 चुनाव के कारनामे को दोहराने में कामयाब नहीं रही. एमसीडी चुनावों में बेहतर प्रदर्शन न कर पाने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए असली चुनौती अब शुरू हुई है. एमसीडी चुनावों में हार के बाद आम आदमी पार्टी के भीतर इस्तीफों का सिलसिला शुरू हो गया है, और दूसरी ओर पार्टी हार की कारणों को लेकर भी एकमत नहीं दिखती.
जहां अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया जैसे नेता पार्टी के हार के लिए अभी भी ईवीएम को ही जिम्मेदार मान रहे हैं तो, भगवंत मान, कपिल मिश्रा और अलका लम्बा ने पार्टी की हार के लिए ईवीएम को जिम्मेदार मानने से इंकार करते हुए हार के लिए जिम्मेदार कारणों के मंथन पर बल दिया है. वहीं एक तरफ आज अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के नवनिर्वाचित पार्षदों को एक वीडियो के माध्यम से आम आदमी पार्टी को न छोड़ने की नसीहत देते दिखे तो इसके विपरीत पार्टी के पंजाब के पार्टी प्रभारी संजय सिंह और दिल्ली यूनिट के संयोजक दिलीप पांडे ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. वहीं हाल तक पार्टी के अहम सदस्यों में से एक रहे कुमार विश्वास भी समय समय पर सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकालते रहते हैं.
वैसे चुनावों में हार के बाद किसी भी पार्टी में सामान्य तौर पर इस्तीफों का दौर देखने को मिलता ही है, मगर आम आदमी पार्टी के लिहाज से इन इस्तीफों के मायने अलग हैं. चुनाव के पूर्व ही ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि पार्टी के भीतर सबकुछ ठीक ठाक नहीं है, पार्टी में कई मुद्दों को लेकर आपसी सहमति नहीं है और पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र भी कुछ एक लोगों के आस पास ही सिमट कर रह गया है. ऐसे में इन इस्तीफों को केवल हार के बाद की प्रक्रिया के रूप में नहीं देखा जा सकता.
वैसे देखा जाय तो आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल अरविन्द केजरीवाल का अड़ियल रवैया भी है, पिछले एक सालों से आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता ढ़लान पर है, पार्टी इस दौरान किसी भी चुनाव में आशातीत सफलता पाने में नाकामयाब रही, बावजूद इसके केजरीवाल इसका आत्ममंथन करने के बजाय दूसरे को दोष देते ही नजर आये. केजरीवाल और उनके लोग कभी भी ईमानदारी से अपने हार को स्वीकार करते नहीं दिखे. पार्टी के चार साल के सफर में ही कई वरिष्ठ सदस्यों ने पार्टी का दामन छोड़ दिया और साथ ही साथ सभी लोगों ने कहीं न कहीं केजरीवाल की कार्यशैली पर सवाल भी खड़े किये, बावजूद इसके पार्टी ने ना तो इसकी विवेचना की और ना ही अपनी कार्यशैली में सुधार.
अब एमसीडी चुनावों के परिणाम के बाद भी पार्टी उसी कार्यसंस्कृति को आगे बढ़ाते दिख रही है जहां अपने कामों के विश्लेषण के बजाय पार्टी दूसरों पर दोषरोपण को ज्यादा तवज्जो देती दिखाई दे रही है. मगर इस बार पार्टी के अंदर विरोध के स्वर को दबा पाना थोड़ा मुश्किल होगा, और यही पार्टी के भविष्य के लिए भी बेहतर होगा. क्योंकि अभी भी अगर आम आदमी पार्टी केजरीवाल के इशारों को ही आंख मूंद कर मानती रही तो वो दिन दूर नहीं होगा जब सबसे चमकदार पार्टी के रूप में उभरी आम आदमी पार्टी बहुत ही कम समय में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाये.
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