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Updated: 28 जून, 2022 01:11 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में भाजपा के दिनेशलाल यादव 'निरहुआ' ने जिस तरह लगातार दूसरे प्रयास में समाजवादी पार्टी के अभेद्य दुर्ग ढहाने में कामयाबी पाई है- देशभर में उसकी चर्चा हो रही है. चर्चा होनी ही चाहिए. चुनाव से पहले निरहुआ को क्या-क्या नहीं कहा गया. किसी ने उन्हें भाजपा में होने की वजह भर से 'यादवद्रोही' करार दे दिया तो कुछ ने बाहरी और ज्यादातर विपक्ष ने उनके पेशे का भी मजाक बनाया. निरहुआ को नचनिया-गवैया बताया गया. विपक्षी नेताओं तक तो ठीक था. मगर कई पत्रकारों ने भी इसी बात पर निरहुआ के हार की कामना की, क्योंकि वह एक सफ़ल भोजपुरी अभिनेता हैं.

पत्रकारों को लगता है कि भोजपुरी भाषा में कोई कलाकार नहीं हो सकता. और राजनीति में कम से कम भोजपुरी अभिनेताओं को नहीं आना चाहिए. भले ही दक्षिण की क्षेत्रीय राजनीति की धुरी वहां के फिल्म उद्योग से निकले अभिनेता-लेखक बने थे जो आजतक कायम है. नतीजों से भाजपा में जबरदस्त उत्साह है. हालांकि निरहुआ के पक्ष में आजमगढ़ का जनादेश आ चुका है. मगर लोगों की नकारात्मकता अभी भी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. निरहुआ के हाथों चुनाव में पराजय का सामना करने वाले सपा के दिग्गज नेता और अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव का बयान भी गौर करने लायक है.

nirahua vs dharmendraयोगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव.

धर्मेंद्र को अपनी कमियां और निरहुआ की मेहनत के अलावा सबकुछ दिख रहा है

उन्होंने कहा- "हमने चुनाव में सिर्फ 12-14 दिनों तक मेहनत की और लोगों का समर्थन हासिल किया. मैं राज्य सरकार और भाजपा बसपा गठबंधन की वजह से चुनाव हार गया. 2024 में आजमगढ़ के लोग एक बार फिर सपा को जीत दिलवाएंगे." धर्मेंद्र की तरह ही सपा का काडर भी निरहुआ की जीत को इसी तरह कमतर आंकते हुए बेमतलब तर्क दे रहा है. सपा का काडर अपनी कमियों पर बात नहीं कर रहा. उसे ना तो ब्रांड निरहुआ का ज्ञान है और वह उनकी मेहनत समझने में भी असमर्थ दिख रहा है.

जबकि कायदे से सपा के लिए घोर शर्मनाक हार है और यह आत्ममंथन का विषय होना चाहिए. पार्टी नई लीडरशिप बनाने की बजाए कुनबे को ही लोकसभा भेजने की जद्दोजहद में दिख रही है. हैरान करने वाली बात यह भी है कि कोई नेता ऐसा सोच भी कैसे सकता है कि वह 12 से 14 दिन की मेहनत के जरिए एक अनजाने क्षेत्र में लोगों का भरोसा हासिल कर लेगा. एक ऐसा क्षेत्र जहां ना तो उसका जन्म से संबंध है ना तो कर्म से. अब धर्मेंद्र यादव सपा के दूसरे कार्यकर्ताओं से सवाल किया जाए कि रामपुर में तो बसपा-कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं उतारा था फिर पार्टी वहां कैसे हार गई? उनके पास कोई जवाब नहीं होगा.

निरहुआ को कोसने से पहले जान लीजिए कि अब पिकनिक पॉलिटिक्स के लिए समय नहीं है

धर्मेंद्र यादव को नहीं पता कि साल 2019 में जब पूर्व मुख्यमंत्री के हाथों निरहुआ पराजित हुआ था, उसने आजमगढ़ का पीछा नहीं छोड़ा. पीछा इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि पार्टी ने आजमगढ़ मिशन ले लिए उन्हें चुना ही था. निरहुआ आजमगढ़ के लिए जाना पहचाना चेहरा है- हालांकि वह भी बाहरी ही हैं. 2019 में चुनाव हारने के बाद से वे लगातार आजमगढ़ में नजर आते रहे हैं. पार्टी के लगभग सभी बड़े कार्यक्रमों में मौजूद रहे. उनके लिए आजमगढ़ में भाजपा ने पूरा जोर लगा दिया था. असल में यादव बहुल सीट पर निरहुआ के जरिए भाजपा को जीत का भरोसा था, लेकिन यह भी पता था कि बहुत मेहनत करनी होगी.

nirahuaनिरहुआ और नरेंद्र मोदी.

भाजपा ने किया भी ऐसा. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर तमाम बड़े नेता निरहुआ के पक्ष में कैम्पेन करने पहुंचे. भोजपुरी इंडस्ट्री से भी सभी साथी कलाकार कैम्पेन करने आए. शायद ही कोई बड़ा कलाकार बचा हो. नतीजे निरहुआ के पक्ष में रहें. ये दूसरी बात है कि उनकी जीत का अंतर बेहद मामूली है. सीट बचाए रखने के लिए उन्हें भविष्य में और ज्यादा मेहनत करनी होगी. जीत का अंतर बता रहा कि अगर अखिलेश सपा उम्मीदवार के पक्ष में कैम्पेन करने आए होते तो शायद यादव बहुल सीट को बहुत आसानी से जीत लेते. लेकिन उनका नहीं आना साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वे पिकनिक पॉलिटिक्स में यकीन करते हैं.

निरहुआ को लेकर भाजपा की योजनाएं आम सेलिब्रिटी सांसदों जैसी नहीं होगी

आजमगढ़ में निरहुआ की जीत से एक बात तो साफ़ दिख रही है कि भाजपा की योजनाएं नवनिर्वाचित सांसद को लेकर कहीं बहुत ज्यादा है. हो सकता है कि आजमगढ़ जीत के बाद निरहुआ को लेकर मोदी-शाह की जोड़ी फिर चौंकाए. उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में भाजपा को सपा के खिलाफ एक यादव चेहरे की सख्त दरकार है. इसमें कोई बहस ही नहीं कि निरहुआ बड़ा चेहरा नहीं हैं. अगर भाजपा ने उन्हें ताकत दी तो वे ना सिर्फ पूर्वांचल बल्कि पार्टी के लिए बिहार में भी असर डाल सकते हैं. दोनों राज्यों में निरहुआ की जबरदस्त फैनफॉलोइंग है. अगर भाजपा में ही मनोज तिवारी के राजनीतिक करियर को देखें तो पार्टी ने उनका भी तो ऐसा ही इस्तेमाल करने की कोशिश की थी.

दिल्ली में मनोज तिवारी के जरिए भोजपुरी भाषी यूपी-बिहार के मतदाताओं को लुभाने के लिए मोर्चे पर लगाया गया था. उन्हें दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष के रूप में बड़ी जिम्मेदारी दी गई. ये दूसरी बात है कि अरविंद केजरीवाल के सामने मनोज तिवारी बेहतर नतीजे देने में नाकाम रहें. वैसे भी आजमगढ़ के नतीजे जिस तरह आए हैं- भाजपा को सीट बरकरार रखने के लिए निरहुआ के नाम को बड़ा और बेहतर करना होगा. हो सकता है कि मोदी आजमगढ़ को भाजपा का गढ़ बनाने के लिए उनके कद को बढ़ाएं. इसके तहत उन्हें संगठन या सरकार में ऐसा पद भी दिया जा सकता है जो एक नेता के रूप में उनकी लोकप्रियता में इजाफा करे.

भाजपा पहले भी ऐसा करती आई है. एक नेता के रूप में निरहुआ का लोकप्रिय होना भाजपा के लिए हर तरह से फायदे का सौदा है. विधानसभा चुनाव तो नहीं लेकिन लोकसभा के लिए यादव मतदाता भाजपा के पक्ष में वोट करते रहे हैं. यादव मतदाताओं को उनकी अपनी लीडरशिप देने की दिशा में पार्टी उन्हें प्रमोट कर सकती है. आजमगढ़ में मिली बढ़त को भाजपा गंवाना नहीं चाहेगी और इसके जरिए पूर्वांचल और बिहार में भी फायदा उठाने की कोशिश करेगी. भोजपुरी एक्टर का पार्टी चुनावों में खूब इस्तेमाल भी करती रही है. देखा जाए तो बिहार में भी लालू यादव के परिवार की चुनौती से निपटने के लिए पार्टी एक साथ कई यादव नेताओं को आगे बढ़ा ही रही है.

देखना होगा कि निरहुआ को मोदी-शाह की जोड़ी एक सेलिब्रिटी के तौर पर ट्रीट करती है या फिर नेता की तरह.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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