राकेश टिकैत के आंसुओं पर हंसना इंसानियत के दायरे में नहीं आता... लेकिन!
आंदोलनकारी किसानों द्वारा दिल्ली में गणतंत्र दिवस (Republic Day) पर की गयी पुलिसिया कर्रवाई करे बाद किसान नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) के आंसू छलक गए हैं. जैसा हम भारतीयों का स्वाभाव है टिकैट के आंसुओं ने कहीं न कहीं हमें भी अंदर से झकझोर दिया है.
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किसी का भी रोना कभी हंसने का विषय नहीं हो सकता. किसी का भी. चाहें वो बड़े से बड़ा नेता हो या छोटे से छोटा किसान, किसी के आंसुओं पर हंसना कम से कम इंसानियत के दायरे में तो नहीं आता. मगर समस्या हंसने और रोने की बाद में है, पहले उस हंसने या रोने की वजह से बने नरेटिव की है. कोई हंस रहा है तो वो ग़लत है और जो रो दिया वो भगवान का दूत हो जाता है. इस हंसने और रोने के बीच अगर कुछ ज़्यादा इम्पॉर्टेन्ट है तो वो है फैसला. अगर आप सोचते हैं कि फैसला सही-ग़लत देखकर, नियम कायदे कानून के चलते लिया जाता है तो आपकी जानकारी अधूरी है. फैसला बहुमत तय करता है या बहुमत द्वारा फैसला करने के लिए बैठा शख्स करता है. फैसला उसी का होता है, भले ही मुंह और आवाज़ और किसी की हो जाए.
जो 26 जनवरी को बन्दरपना हुआ वो सरासर क्राइम था, नियम और वायदों का उलंघन था लेकिन उसके समर्थन में और उसे भी डिफेंड करने वाले लोग मौजूद हैं तो ये उनका मत है. जब एक आदमी क्राइम करता है तब ही वो क्राइम होता है.
राकेश टिकैत के आंसुओं ने पूरे देश को भावुक कर दिया है
बहुत सारे लोग मिल भीड़ बना करें तो वो अराजकता कहलाने लगती है और यही काम अगर प्रशासन करे, तो ये लॉ कहलाता है. 26 जनवरी पर हुए नंगनाच के पक्ष और विपक्ष में हम ऐसे उलझ गए हैं कि असल मुद्दा किनारे हो गया है. असल मुद्दा क्या था? किसान बिल. वो किसान बिल जिसके ख़िलाफ़ मुट्ठी भर लोग हैं और समर्थन में आधा देश.
तराजू के दोनों पड़लों की कोई तुलना ही नहीं है. फिर भी जो मुट्ठी भर लोग हैं वो हावी लग रहे हैं. क्यों? क्योंकि आधा देश चुप है या इतनी धीमी आवाज़ में बोल रहा है कि उसके ख़ुद के दूसरे कान तक नहीं पहुंच रही है. टिकरी बॉर्डर पर कुछ ग्रामीणों ने 27 जनवरी को ड्रामा मचा दिया कि ये सड़क खाली करो, हमें नहीं मतलब तुम कौन हो, किसान हो की भांड हो बस ये रास्ता खाली करो क्योंकि हमारा धंधा वाकई ठप्प हो रहा है. हमें आने जाने तक का मार्ग नहीं मिल रहा है, हम भी किसान हैं, जो उगा रहे हैं उसे बेचेंगे नहीं तो जियेंगे कैसे?
पर उनकी आवाज़ बताया न, इतनी धीमी है कि किसी के कान में नहीं पड़ी. किसान बिल इस कद्र काला कानून है मानों इसे पास करते ही कालेपानी की सज़ा मिल जायेगी. मुझे इस देश में प्रोटेस्ट करते लोगों से कई बार बहुत सहानुभूति होती है. ये मोदी सरकार के किसी भी बिल में ऐसे कमियां गिनाते हैं, ऐसी मुश्किलें बताते हैं जैसे सरकार नसबंदी बिल पास कर रही हो. इन हल्ला मचाने वाले ढोंगियों के सपोर्ट में देश के जो नौजवान बच्चे उलझ जाते हैं उनपर भी दया आती है कि ये कतई नहीं जानते ये किस ट्रैप में फंस रहे हैं.
इन्हें बुरे बुरे में इतना बुरा दिखाया जा रहा है कि एक दिन ये ख़ुद को निकम्मा समझ डिप्रेशन से मर न जाएं. एक रोज़ मैं अपने महानिगेटिव दोस्त के साथ था, हम बाइक पर थे. मैं चला रहा था. अचानक बारिश होने लगी. वो सड़ के बोला 'हुंह, बारिश होने लगी' ठीक उसी पल एक रिक्शे वाला, कोई 60 के आसपास की उम्र का वृद्ध बोला 'वाह! बारिश होने लगी'
मैं खेती किसानी के बारे में किताबों तक ही जानता हूं लेकिन अख़बारों में आती ख़बरों से इतना ज़रूर देखता आ रहा हूं कि किसान पिछले 20 साल रो रहा है, आत्महत्या कर रहा है, दयनीय लग रहा है. अब जहां हालत इतनी ख़राब हो वहां किसी बदलाव से डर कैसा? जिस तरफ सुधार की ज़रूरत है वहां बदलाव किए बिना कैसे सुधार होगा? बाकी हम भावुक लोग हैं, आंसू किसी के भी बहें, हम भावनाएं बहा देते हैं, भले ही चंद रोज़ बाद पछताने लगें लेकिन किसी की बहती आंखें हमसे सही न जाती हैं.
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