अग्निपथ योजना मोदी सरकार के 'ख़राब पब्लिक कम्युनिकेशन' का एक और नमूना है!
नरेंद्र मोदी की सरकार में सामूहिक फैसले करने की परम्परा के बदले कुछ नेता मंत्री ही महत्वपूर्ण फैसले में शामिल होते हैं जिस कारण कई नेता, मंत्री में जानकारी का अभाव भी साफ़ तौर पर दिखता है. अब कारण चाहे जो भी हो मगर आगे से मोदी सरकार को यह जरूर ध्यान रखना होगा कि ऐसे किसी भी योजना में जिसमें विवाद की संभावना हो उसमें सरकार अपनी बात बेहतर ढंग से आम लोगों के बीच में रखे.
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14 जून को केंद्र सरकार ने सेना में जवानों की भर्ती के लिए अग्निपथ योजना की घोषणा की. योजना के तहत साढ़े 17 से 21 साल के युवाओं को सेना के तीनों अंगों में शामिल किया जाएगा. चार साल की सेवा पूरी होने पर 25 प्रतिशत को नियमित सेवा में रखा जाएगा. वहीं 4 में से 3 अग्निवीर आगे सेवा जारी नहीं रख पाएंगे. उनके लिए सरकार शिक्षा, नौकरी व कारोबार के लिए कई अन्य विकल्प पेश कर रही है. हालांकि चार साल के लिए सेना में नियुक्ति की इस योजना को लेकर देश के कई राज्यों के युवा नाराज़ हैं और सड़कों पर उतर आए हैं. बीतें दिनों बिहार, उत्तर प्रदेश और तेलंगाना में युवाओं ने 14 रेलगाड़ियों को आग के हवाले किया और कई जगहों पर रेलवे के दफ्तरों में तोड़फोड़ की. इस मसले को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, नेताओं के बीच बयानबाजी भी चल ही रही है और राजस्थान, तमिलनाडु, पंजाब, केरल समेत कुछ राज्य सरकारों ने केंद्र से इस योजना को वापस लेने की भी अपील की है. रविवार को तीनों सेनाओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात का एलान किया गया कि अग्निपथ के वापसी की कोई योजना नहीं है. यानि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार एक बार फिर अपनी स्कीम को लेकर घिरती नजर आ रही है और इसका सबसे बड़ा कारण सरकार के ख़राब कम्युनिकेशन सिस्टम को माना जा सकता है.
अग्निपथ योजना के विरोध में आगजनी और हिंसा पर उतर आए युवा
हर सरकारी योजना की तरह ही अग्निपथ योजना के पक्ष और विपक्ष में कई तरह के तर्क दिए जा सकते हैं. मगर इस योजना ने एक बार मोदी सरकार के उस कमी को उजागर कर दिया है जहां सरकार अपनी योजना के लाभ और इसके पीछे के मकसद को बेहतर ढंग से जनता के बीच नहीं रख सकी. यह कोई पहला मौका नहीं है जब सरकार ऐसा करने में चूक गई हो, बल्कि नरेंद्र मोदी के आठ सालों के कार्यकाल में ऐसे कई मौके आये जब सरकार को अचानक से लिए गए अपने फैसलों और नयी योजनाओं को जनता के बिच ठीक ढंग से ना रख पाने के कारण किरकिरी झेलनी पड़ी है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण तीन कृषि कानूनों को माना जा सकता है.
साल 2020 में जब नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि सुधारों के दिशा में सबसे बड़े कदम के रूप में तीन कृषि कानूनों को संसद से पास कराया तो कई जानकारों ने इसे किसानों के लिए बेहतर कदम बताया. यहां तक की सरकार के कई धूर विरोधियों ने भी दबे जबान इन कानूनों के लिए सरकार की प्रशंसा की, मगर सरकार कृषि कानूनों के लाभ को किसानों तक नहीं पंहुचा सकी और इसके परिणाम स्वरुप किसानों ने लगभग 14 महीनों तक दिल्ली की सडक़ों पर इन कानूनों का विरोध किया.
अंततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन कानूनों की वापसी का ऐलान करना पड़ा. कृषि कानूनों के विरोध के समय मोदी सरकार के हर मंत्री यही तर्क देते नजर आये कि सरकार किसानों को अपनी बात नहीं समझा पा रहा है या विपक्ष किसानों को बरगला रहा है. हालांकि जब केंद्र में कोई सरकार इतनी बड़ी बहुमत के साथ बैठी हो वहीँ दूसरी तरफ विपक्ष खुद में बंटा दिख रहा हो, ऐसे में क्या विपक्ष किसी योजना का इतना दुष्प्रचार कर पाने में सक्षम है कि देश भर में उसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे?
यह कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता, हां यह जरूर सरकार के उस कमी को उजागर करती है जहां सरकार स्पष्ट तरीके से अपनी बात रख पाने में असक्षम हो. अगर पिछले आठ सालों में मोदी सरकार के कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर नजर दौड़ाएं तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है. दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के समय भी कुछ ऐसा ही नजारा दिखा था जब देश के कई हिस्सों में विरोध शुरू हो गया. देश के कई शिक्षण संस्थानों के छात्रों ने युनिवर्सिटी कैंपस से लेकर सड़कों तक इस कानून का विरोध किया।
पूर्वोत्तर का राज्यों से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक इस कानून के विरोध में प्रदर्शन हो रहा था. पिछले साल जब देश में कोरोना का कहर अपने चरम था तब देश में इसे लेकर एक असमंजस की स्थिति थी कि आखिर कोरोना की वैक्सीन किसे मिलेगी और किसे नहीं. असमंजस इस बात को लेकर भी थी कि आखिर वैक्सीन मुफ्त मिलेगी या इसके लिए पैसे देने होंगे.
हालांकि सरकार के तरफ से अलग अलग समय पर आये बयान ने इस असमंजस को कम करने के बजाय इसे और गहरा ही दिया, आखिरकार वैक्सीनेशन शुरू होने के पांच महीने के बाद इस मामले को लेकर एक स्पष्ट पॉलिसी की घोषणा की गयी. कुछ ऐसा ही हाल 2016 में घोषित नोटबंदी का भी था, जब प्रधानमंत्री ने अचानक से ही 500 और 1000 के नोटों को रातों रात अमान्य घोषित कर दिया.
नोटबंदी की घोषणा के बाद सरकार के तरफ से इसके कई तरह के फायदे भी बताये गए, नोटबंदी में लक्षित फायदों में से कितने हासिल किये गए इसका जवाब अब सरकार के पास भी नहीं है. कोरोना बीमारी के आने के बाद लॉकडाउन की भी घोषणा आनन फानन में ही की गयी थी, इस फैसले में सरकार को बेनिफिट ऑफ़ डाउट दिया जा सकता क्योंकि उस समय तक कोरोना को लेकर विश्व भर में काफी कम जानकारी थी और विश्वभर में सरकारें इस तरह के कड़े फैसले ले रही थी.
साल 2019 में भी नई एजुकेशन पॉलिसी के कुछ प्रावधानों को लेकर भी सरकार की किरकिरी हुई थी, नई एजुकेशन पॉलिसी के ड्राफ्ट में त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर उठे विवाद के बाद केंद्र ने हिंदी की अनिवार्यता वाले प्रावधान को हटा दिया था. प्रस्तावित ड्राफ्ट में हिंदी भाषा की अनिवार्यता को लेकर दक्षिण भारतीय राज्यों ने तीखा विरोध किया था और कहा था कि यह हम पर हिंदी को थोपने जैसा है.
तमिलनाडु में डीएमके और अन्य दलों ने नई शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा फॉर्मूले का विरोध किया था और आरोप लगाया था कि यह हिन्दी भाषा थोपने जैसा है. जिस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो, जिन्हे वर्तमान में भारत के सबसे बेहतरीन वक्ताओं में गिना जाता, उनकी सरकार आखिर अपनी कई योजनाओं को क्यों आम जनता के बिच मजबूती से नहीं रख पा रही है?
इसका सीधा जवाब यह हो सकता है कि वर्तमान दौर की भारतीय जनता पार्टी में बहुत कम ही ऐसे राजनेता बचे हैं जो जनता की नब्ज को जानते हों और उनसे सीधा संवाद करने की क्षमता रखते हों, नतीजन वर्तमान बीजेपी बेहतर कम्युनिकेशन के लिए नरेंद्र मोदी पर बहुत ज्यादा निर्भर रहती है.
इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार में सामूहिक फैसले करने की परम्परा के बदले कुछ नेता मंत्री ही महत्वपूर्ण फैसले में शामिल होते हैं जिस कारण कई नेता, मंत्री में जानकारी का अभाव भी साफ़ तौर पर दिखता है. अब कारण चाहे जो भी हो मगर आगे से मोदी सरकार को यह जरूर ध्यान रखना होगा कि ऐसे किसी भी योजना में जिसमें विवाद की संभावना हो उसमें सरकार अपनी बात बेहतर ढंग से आम लोगों के बीच में रखे.
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