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Updated: 01 जून, 2016 06:04 PM
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2014 की मोदी लहर में हाशिये पर पहुंच चुके अजीत सिंह बारी बारी सबको आजमा रहे हैं. नीतीश कुमार से लेकर राहुल गांधी तक से मुलाकातों का दौर चल चुका है.

अजीत सिंह की ताजा डील समाजवादी पार्टी के साथ चल रही है. यूपी के विधानसभा चुनाव में अभी इतना वक्त तो है ही कि सौदा अपनी शर्तों पर हो सके.

शर्तें लागू हैं जी

राष्ट्रीय लोक दल का किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन होने में अजीत सिंह की शर्तें दीवार की तरह खड़ी हो जा रही हैं. नतीजा ये हो रहा है कि डील जहां से शुरू होती है, वहीं पहुंच कर खत्म भी हो जा रही है.

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश अजीत सिंह का गढ़ माना जाता रहा है. लोक सभा चुनाव में मिली शिकस्त के बाद से अजीत सिंह लगातार खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है.

जिस किसी के भी साथ अजीत सिंह की बातचीत शुरू होती है वो अपने लिए राज्य सभा की सीट और विधानसभा चुनाव में बेटे जयंत के लिए कोई बड़ी भूमिका की मांग रखते हैं. बातें और मुलाकातें तब तक चलती रहती हैं जब तक ये दोनों शर्तें नामंजूर नहीं हो जातीं.

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गठबंधन को तैयार पर शर्तें माननी होंगी

हाल तक अजीत सिंह की लंबी बातचीत नीतीश कुमार के साथ चली. यहां तक कि अजीत की पार्टी के जेडीयू में विलय की सहमति तक बन गई. ये चर्चा उस वक्त ज्यादा गंभीर हो गई थी जब यूपी की तीन विधानसभा सीटों पर उप चुनाव हो रहे थे. जब नतीजे आए तो बीजेपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने एक एक सीट बांट लिये - और अजीत को कुछ भी नहीं हासिल हुआ.

नीतीश के नेतृत्व में एक नई पार्टी बनाने की भी चर्चा है. उसमें भी अजीत सिंह अपने लिए केंद्र में बड़ा रोल और बेटे जयंत के लिए यूपी में सीएम या फिर कम से कम डिप्टी सीएम उम्मीदवार घोषित करने की मांग रखी थी.

वो डील टूट जाने की बात तब सामने आई जब मुलायम सिंह से अजीत सिंह की मुलाकात की खबर ब्रेक हुई. ताजा अपडेट ये है कि अजीत सिंह समाजवादी पार्टी की मदद से राज्य सभा जाने वाले हैं - और विधान सभा की करीब तीन दर्जन सीटें भी अपने लिये चाहते हैं.

फैसलों से फूट

समाजवादी पार्टी को लेकर मुलायम सिंह यादव के हाल फिलहाल के फैसलों से दो तरह की राय बन रही है. मामला चाहे अमर सिंह का हो या फिर अजीत सिंह का - मुलायम सिंह के दो भाइयों के विचार टकराने लगे हैं.

रामगोपाल यादव के बयान पर ध्यान दें तो पता चलता है कि उन्हें अजीत सिंह की विश्वसनीयता पर ही शक हो रहा है. उन्हें लगता है कहीं चुनाव तक अजीत सिंह का मन फिर न बदल जाए और वो किसी और से हाथ मिला लें.

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2002 में यूपी में मायावती के साथ रहे अजीत सिंह ने 2004 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और 2009 वो बीजेपी के साथ चुनाव लड़े. 2011 में वो यूपीए में शामिल हो गये. 2014 के लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस ने उनके लिए आठ सीटें छोड़ी थीं - लेकिन न तो उनकी सीट बची न बेटी की फिर बाकी नेताओं के लिए स्कोप बचता ही कहां है.

फिलहाल अजीत सिंह को मुलायम के भाई शिवपाल यादव का समर्थन हासिल है जो आरएलडी के साथ गठबंधन में कोई खतरा नहीं देख रहे हैं. हाल के दिनों में शिवपाल ही इस तरह की जिम्मेदारी निभा रहे हैं - चाहे वो बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी हो या अमर सिंह को राज्य सभा भेजे जाने की मंजूरी.

अजीत सिंह यूपी में सभी पार्टियों के साथ कभी न कभी साझेदारी कर चुके हैं - और यही बात उनके लिए मुसीबतें खड़ी कर रही है. पश्चिम यूपी में उनके सपोर्ट बेस के चलते उनकी अहमियत कभी खत्म नहीं होती. नई साझेदारी की कोई उम्र भी होगी, इसका जवाब किसी के पास नहीं होता. वैसे अजीत सिंह के पास अभी पूरा वक्त है चाहें तो हर किसी को ठोक बजा के आजमा सकते हैं. बस एक बात का ध्यान रखना होगा वक्त कितना भी लंबा नजर आये बीतते देर नहीं लगती.

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