बुआ के लिये सब सहेंगे, चाचा को ना ही कहेंगे
अखिलेश यादव की राजनीतिक जमीन अभी भी गीली है और मुलायम सिंह यादव भाई शिवपाल और बेटे अखिलेश के बीच सुलह करवाना चाहते हैं. पर अखिलेश मायावती के साथ गठबंधन कर सकते हैं, लेकिन शिवपाल का नहीं.
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देश के सबसे बड़े राजनीतिक राज्य यूपी में समाजवादी पार्टी की राजनीति हाशिये पर है. लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित हार के सदमे से समाजवादी नेता अभी पूरी तरह उबर नहीं पाये हैं. यूपी के सबसे चमकीले युवा नेता एवं सपा प्रमुख अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव में मिली हार और बसपा की बेवफाई के बाद कुछ ज्यादा कहने और करने के मूड और स्थिति दोनों में ही नहीं हैं. पत्नी और दो चचेरे भाईयों की हार, पार्टी के लचर प्रदर्शन से ज्यादा दुख अखिलेश को इस बात का है कि जिस बुआ से रिश्ते बनाने के लिये उन्होंने परिवार और पार्टी के लाख ताने सुनें, वही ‘राजनीतिक बुआ’ चुनाव नतीजों के बाद लाख तोहमतें लगाकर और नसीहतें देकर अपने रास्ते चल पड़ीं. गठबंधन में पड़ चुकी चौड़ी दरार के बावजूद अखिलेश बुआ के प्रति बदस्तूर सद्भावना दिखा रहे हैं.
वहीं दूसरी ओर घर में पिता मुलायम सिंह अपनी जमी-जमाई राजनीतिक जमीन को लुटते और बिखरते देख परिवार और पार्टी में ‘एका’ करवाने की कोशिशों में जुटे हैं. शायद पार्टी, परिवार और पुत्र के भविष्य की चिंता में पिछले दिनों उनकी तबीयत भी खराब रही. उनकी कोशिशों के बावजूद परिवार और पार्टी में ‘एका’ होता दिखाई नहीं देता. सबसे अचरज इस बात का है कि अपनी ‘राजनीतिक बुआ’ के लिये सब कुछ कुर्बान करने और कदम-कदम पर झुकने को तैयार अखिलेश अपने सगे चाचा शिवपाल के प्रति पहले की तरह ‘कठोर’ और ‘बेगाने’ क्यों बने हुए हैं? वास्तव में, अपने अहम और वहम से अपनी पिता की राजनीतिक विरासत और अपना भविष्य दांव पर लगा चुके अखिलेश पार्टी और परिवार में एका क्यों नहीं चाहते हैं, ये बड़ा सवाल है?
क्या बाहर वालों के सामने झुकने वाले अखिलेश को अपने चाचा के सामने झुकने में शर्म महसूस होती है या फिर वजह कुछ और है? क्या चाचा से उनके रिशते इस हद तक बिगड़े हैं कि वो दुश्मनों से हाथ मिला सकते हैं, लेकिन चाचा से नहीं? क्या झगड़ा पार्टी में वर्चस्व को लेकर है? क्या झगड़ा मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत को लेकर है? क्या शिवपाल के पार्टी में रहते हुये अखिलेश राजनीतिक तौर पर स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं? क्या अखिलेश के दिल में ये डर समाया है कि नेताजी के बाद पार्टी पर शिवपाल कब्जा कर लेंगे? क्या झगड़े की मुख्य वजह रामगोपाल यादव हैं? क्या अखिलेश शिवपाल सिंह को अपने से ज्यादा मजबूत और कद्दावर नेता समझते हैं? अगर हालात इस कदर बिगड़े हैं तो फिर मुलायम सिंह परिवार और पार्टी में ‘एकता’ की कोशिशों में क्यों जुटे हैं? क्या मुलायम सिंह को जमीनी हकीकत का पता नहीं है? क्या मुलायम सिंह केवल अपना बड़े होने का फर्ज निभा रहे हैं? क्या मुलायम सिंह बेटे और भाई दोनों की नजर में भला दिखना चाहते हैं?
अखिलेश पिछले दो चुनावों में दो बड़ी गलतियां कर चुके हैं, कांग्रेस और बसपा से गठबंधन करके
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन अखिलेश की बड़ी राजनीतिक भूल माना गया. लेकिन अभी बड़ी भूल होनी बाकी थी, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन के तौर पर सामने आयी. इस भूल का नतीजा सबके सामने है. सपा और बसपा का गठबंधन किसी अनहोनी से कम नहीं था. इस गठबंधन की कल्पना किसी राजनीतिक पंडित ने नहीं की थी. सपा-बसपा का गठबंधन कर अखिलेश खुद को राजनीति का मास्टर मांइड, गेम चेंजर और किंग मेकर मानने का वहम पाल बैठे. चूंकि गठबंधन की सारी पहल और प्रयास अखिलेश की ओर से थे, इसलिये मायावती ने फूंक-फूंककर कदम रखा और अपने नफे-नुकसान के हिसाब से दोस्ती को आगे बढ़ाया. मामला चाहें सीटों की संख्या का हो या सीटों के चयन का मायावती ने हर कदम ‘अव्वल माल’ अपने पास रखा. अखिलेश अपना बड़ा समाजवादी दिल ही दिखाते रह गये और महफिल बसपा लूटकर ले गयी.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवपाल सिंह की समाजवादी पार्टी संगठन और सरकार पर मजबूत पकड़ थी. असल में अखिलेश और शिवपाल सिंह के रिशतों में खटास उसी दिन से पड़ गयी जब शिवपाल ने अखिलेश के सीएम बनने के प्रस्ताव का विरोध किया था. वो अलग बात है कि मुलायम सिंह तमाम विरोधों और आलोचनाओं के बावजूद अपने निर्णय पर अड़े रहे और अखिलेश सीएम बने. नेताजी चाचा और भतीजे के रिश्ते में संतुलन साधे रहे. लेकिन 2016 आते-आते अखिलेश ने पार्टी और सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत करने की नीयत से कई ऐसे काम किये, जो सीधे तौर पर शिवपाल को नागवार गुजरे. 2016 की सर्दियों तक हालात इस कदर बिगड़ चुके थे कि पार्टी के नेता और कार्यकर्ता दो गुटों में बंटकर एक दूसरे के आमने-सामने दुश्मनों की भांति खड़े थे.
मुलायम सिंह ने चाचा और भतीजे के रिश्तों में आई खटास दूर करने की तमाम कोशिशें उस समय की, लेकिन सब बेनतीजा रही. शिवपाल सिंह अपने वफादार नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ सपा से अलग हो गये. इसमें कोई दो राय नहीं है कि लड़ाई की सारी जड़ पार्टी पर वर्चस्व और मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत है. अखिलेश नहीं चाहते कि इस पर कोई दूसरा नजर गड़ाए या उन्हें चुनौती दे, भले ही वो सगा चाचा ही क्यों न हो.
अखिलेश को राजनीति विरासत में मिली है तो शिवपाल सिंह ने भाई के साथ कंधे से कंधा मिलकार राजनीतिक का ककहरा सीखा है. शिवपाल बड़े भाई मुलायम सिंह के हर सुख-दुख के साथी रहे हैं. वो नेता जी को पिता, बड़ा भाई और अपना नेता सब कुछ मानते हैं. लेकिन कई मौकों पर भतीजे अखिलेश के हाथों अपनी इज्जत खराब करवा चुके चाचा शिवपाल का मन भी शायद ‘समझौते’ को तैयार नहीं है. शिवपाल जमीनी हकीकत और राजनीति के साथ भतीजे की महत्वकांक्षा, अहम और वहम को बखूबी पहचानते-जानते और समझते हैं. शिवपाल को पता है कि बड़े भाई मुलायम सिंह के दिल में उनके लिये प्रेम का एक कोना है. जो समय-समय पर उछाल मारता है. लेकिन नेताजी का राजनीतिक वारिस राजनीतिक नुकसान के बावजूद आज अपने पिता की बात सुनने, समझने और मानने को तैयार नहीं है. पिछले दो वर्षों में शिवपाल तमाम राजनीतिक उठापटक, अपमान, तिरस्कार और उपेक्षा से आहत होकर अपनी नयी राजनीतिक पारी शुरू कर चुके हैं. समाजवादी पार्टी में विलय की अफवाहों पर वो मीडिया के सामने ‘फुलस्टाप’ लगाकर 2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं.
लोकसभा चुनाव नतीजों से विचलित मुलायम सिंह चाहते हैं कि परिवार और पार्टी दोनों में एका हो जाए. असल में नेताजी को आने वाले समय की राजनीतिक मुश्किलें और चुनौतियों का बखूबी इल्म है. अखिलेश अपनी प्रतिद्वंद्वी बसपा को पुनः जीवित कर चुके हैं. कांग्रेस भी घायल शेरनी की भांति कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है. भाजपा तो सबसे बड़ी मजबूत दीवार बनकर उसके सामने खड़ी ही है. ऐसे में अखिलेश को वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अपनी जगह बनाने के लिये मजबूत व अनुभवी साथियों की जरूरत है. जो सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखते हों. नेताजी को शिवपाल सिंह में ये सब गुण दिखाई देते हैं. वो जानते हैं कि शिवपाल ही अखिलेश को इस राजनीतिक भंवर और बुरे समय से बाहर निकाल सकते हैं. लेकिन आज पार्टी और शायद परिवार में भी उनकी भूमिका मार्गदर्शक की है. अब वो केवल सलाह दे सकते हैं. मानना न मानना सामने वाले पर निर्भर है.
2017 के विधानसभा और 2019 का लोकसभा चुनाव सपा ने पूरी तरह अखिलेश के नेतृत्व में लड़ा था. दोनों चुनावों में उनका गठबंधन का दांव उलटा पड़ा. जिसका नुकसान सीधे तौर पर उनकी व्यक्तिमगत छवि और पार्टी दोनों को हुआ. नौसिखए अखिलेश तमाम अपरिपक्व निर्णयों के बावजूद शायद किसी दूसरी ही दुनिया में विचर रहे हैं. उनके आगे-पीछे चमचों और जमीन से कटे नेताओं की भीड़ है. जो उनकी हां में हां ही मिलाती है. शायद अखिलेश का मालूम ही नहीं है कि जिस पार्टी ने 2012 में यूपी में पूर्णबहुमत की सरकार बनाई थी, आज उसके हालत क्या है. उसका बेस वोट बैंक खिसक चुका है. उसका वोट प्रतिशत दिन-ब दिन कम हो रहा है. आज उसकी अपना मजबूत गढ़ माने जाने वाली सीटें विरोधियों के कब्जे में हैं. आज उनकी छवि एक अपरिपक्व, बड़बोले और अदूरदर्शी नेता के तौर पर उभरी है.
इन तमाम जमीनी सच्चाईयों की या तो अखिलेश को जानकारी नहीं है या फिर वो जानबूझकर आंखें बंद किये हैं. राजनीतिक वर्चस्व, विरासत और पार्टी पर पकड़ की जो लड़ाई पिछले दो साल से अखिलेश लड़ रहे हैं, उसमें अब तक उनके सारे दांव उलटे ही पड़े हैं. अहम और वहम उनके व्यक्तित्व पर हावी हो चुका है. और राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते वो अपनों के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं. अब ये आने वाला वक्त ही बताएगा कि अखिलेश अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभाल पाते हैं या फिर वो वन टाइम वंडर बनकर रह जाएंगे.
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