EVM Fraud Allegation: आरोपों की झड़ी के सहारे आखिर अखिलेश यादव करना क्या चाहते हैं?
यूपी चुनाव नतीजे (UP Election Results) आने से पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने अचानक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ईवीएम फ्रॉड (EVM Fraud Allegation) और वोटों की चोरी जैसे आरोपों की झड़ी लगाकर लोगों को चौंका दिया है. क्योंकि, अखिलेश यादव शुरू से ही अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे थे.
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यूपी चुनाव 2022 को लेकर तमाम एग्जिट पोल (Exit Poll) में भाजपा की बहुमत से सत्ता में वापसी के अनुमान लगाए गए हैं. एग्जिट पोल के सामने आने के बाद से शांत नजर आ रहे समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने अचानक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई. और, आरोपों की झड़ी लगाते हुए सबसे पहला निशाना ईवीएम पर साधा. हालांकि, इसे ये कहना ज्यादा उचित होगा कि अखिलेश यादव की पूरी बातचीत ईवीएम फ्रॉड (EVM Fraud Allegation) पर ही टिकी रही. अखिलेश यादव ने लोकतंत्र की आखिरी लड़ाई, ईवीएम फ्रॉड, वोटों की चोरी, बदलाव के लिए क्रांति, आंदोलन जैसे शब्दों के सहारे एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़ों को खारिज करने में अपनी पूरी जान लगा दी. उन्होंने समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के कार्यकर्ताओं से वोटों को बचाने की अपील की. इसके साथ ही अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भाजपा की ओर से मतगणना में धांधली की आशंका भी जाहिर की. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आरोपों की झड़ी के सहारे आखिर अखिलेश यादव करना क्या चाहते हैं?
अखिलेश यादव के सामने खुद को 2027 तक राजनीति में बनाए रखने की चुनौती मुंह बाए खड़ी है.
कांग्रेस की तरह न हो जाए, समाजवादी पार्टी का हाल
10 मार्च को यूपी चुनाव नतीजे 2022 सामने आ जाएंगे. जो तय कर देंगे कि जनता ने लखनऊ की कुर्सी के लिए सीएम योगी आदित्यनाथ पर भरोसा जताया है या अखिलेश यादव को मौका दिया है. लेकिन, इन चुनावी नतीजों से पहले जारी हुए एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़ों में सीएम योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा को मिल रही स्वीकार्यता को आसानी से पचा पाना समाजवादी पार्टी के लिए मुश्किल हो रहा है. क्योंकि, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यूपी चुनाव 2022 से पहले जाति से लेकर धर्म तक सारे सियासी समीकरणों को साधने के लिए गठबंधन और दल-बदल करने वाले नेताओं को प्रमुखता जैसे उपायों से साधने का इंतजाम किया था. इतना ही नहीं, किसान आंदोलन, बेरोजगारी, आवारा पशु, महंगाई, कोरोना और यादव-मुस्लिम मतदाताओं के गठजोड़ जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द ही अखिलेश यादव ने भाजपा को घेरने का सियासी व्यूह रचा था. इसके बावजूद एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़ों में भाजपा को मिल रही बढ़त ने अखिलेश यादव की पेशानी पर बल ला दिया है.
2014 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद से अब तक कांग्रेस के दर्जनों बड़े नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़कर सत्ताधारी भाजपा का दामन थामा है. राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक कांग्रेस अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को भाजपा में शामिल होने से रोकने में कामयाब नहीं हो सकी है. भले ही कांग्रेस आलाकमान इसे अवसरवादिता, संघी सोच जैसे शब्दावलियों से खारिज करने की कोशिश करे. लेकिन, कांग्रेस नेताओं का पलायन बदस्तूर जारी है. अगर यूपी चुनाव के नतीजे अखिलेश यादव के अनुमान के मुताबिक नहीं आते हैं, तो यही संकट समाजवादी पार्टी के सामने खड़ा हो सकता है. क्योंकि, उत्तर प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव तक राजनीति की दिशा और दशा क्या रहेगी, इसका अंदाजा लगाना समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक के लिए आसान नहीं होगा. वैसे, अखिलेश यादव की चिंता को बीते साल हुए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव नतीजों से भी समझा जा सकता है. जहां किसी जमाने में दशकों तक सत्ता पर काबिज रहने वाले वाम दलों को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हो सकी थी. और, कांग्रेस भी यहां शून्य पर ही रही थी.
वाराणसी में EVM पकड़े जाने का समाचार उप्र की हर विधानसभा को चौकन्ना रहने का संदेश दे रहा है। मतगणना में धांधली की कोशिश को नाकाम करने के लिए सपा-गठबंधन के सभी प्रत्याशी और समर्थक अपने-अपने कैमरों के साथ तैयार रहें। युवा लोकतंत्र व भविष्य की रक्षा के लिए मतगणना में सिपाही बने!
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) March 8, 2022
चुनाव नतीजे अस्वीकार कर मतदाताओं को साथ बनाए रखने की कवायद
दर्जनों मुद्दों और सत्ता विरोधी लहर पर सवार अखिलेश यादव लगातार अपनी जीत का दावा कर रहे हैं. लेकिन, ईवीएम फ्रॉड और वोटों की चोरी जैसे आरोपों के जरिये कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी के साथ आए मतदाताओं को आगे भी बनाए रखने का दांव खेल रहे हैं. इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के आंकड़ों को देखें, तो जहां भाजपा को 46 फीसदी वोट शेयर मिलने की संभावना जताई गई है. वहीं, समाजवादी पार्टी को भी 36 फीसदी वोट शेयर मिलने का अनुमान जताया गया है. 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें, तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को कुल 28 फीसदी वोट शेयर मिला था. जो समाजवादी पार्टी को 2012 में मिले 29.29 फीसदी के करीब ही था. इसमें से समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 21.8 फीसदी थी. इस बार समाजवादी पार्टी गठबंधन को वोट शेयर में अच्छी-खासी बढ़त मिलती नजर आई है. जो निश्चित तौर पर अखिलेश यादव के सियासी समीकरणों को साधने की कवायद पर मुहर लगा रहा है.
इस स्थिति में चुनाव नतीजों को पहले से ही अस्वीकार करने का माहौल बनाकर अखिलेश यादव की सबसे पहली कोशिश इन मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखने की ही होगी. अगर ये मतदाता बेस समाजवादी पार्टी से छिटकता है, तो सीधे तौर पर भाजपा को ही फायदा होगा. क्योंकि, बसपा और कांग्रेस जैसे सियासी दल एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़ों में पूरी तरह से हाशिये पर आ चुके दिखाई पड़ते हैं. हालांकि, बसपा सुप्रीमो मायावती का काडर वोट बैंक अभी भी उनके साथ बना हुआ दिखाई पड़ता है. लेकिन, ये पहले की तरह उतना मजबूत नहीं रहा है. और, इसमें भी सेंध लगने की तस्दीक एग्जिट पोल के आंकड़े कर रहे हैं. 2017 में बसपा का वोट शेयर 22.23 फीसदी था. जो इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल के आंकड़ों में 12 फीसदी पर पहुंच गया है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो ईवीएम फ्रॉड और वोटों की चोरी जैसे आरोपों के जरिये अखिलेश यादव अपनी और समाजवादी पार्टी की स्वीकार्यता को लोगों के बीच बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.
क्योंकि, अगला विधानसभा चुनाव पांच साल बाद 2027 में होगा. और, उससे पहले अगर 2024 के आम चुनावों में भी भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू कायम रहता है. तो, तब तक समाजवादी पार्टी के लिए इस वोट बैंक को अपने साथ बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा. लगातार दूसरी बार भी सत्ता से दूर रहने पर समाजवादी पार्टी के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं के छिटकने का खतरा बना रहेगा. इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि समाजवादी पार्टी पूरी तरह से उत्तर प्रदेश में केंद्रित क्षेत्रीय पार्टी है. और, समाजवादी पार्टी का वोटबैंक उत्तर प्रदेश में ही सीमित है. क्योंकि, उत्तर प्रदेश से लगे बिहार में यादव वोट बैंक की राजनीति लालू प्रसाद यादव की आरजेडी करती है. इस मामले में बसपा सुप्रीमो मायावती भी समाजवादी पार्टी से कहीं आगे नजर आती हैं. क्योंकि, दलित वोटों की राजनीति करने वाली मायावती का वोटबैंक देश के बड़े हिस्से में फैला है. बहुत हद तक संभव है कि आज कमजोर नजर आ रही बसपा अपने काडर दलित वोटबैंक के साथ 2027 में सबसे मजबूत पार्टी के तौर पर उभर आए. और, समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ा मुस्लिम और अन्य मतदाता अपना पाला बदल ले. कहना गलत नहीं होगा कि ईवीएम पर सवाल खड़े कर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी को बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
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