परंपरागत वोटबैंक की छवि को न तोड़ पाना अखिलेश यादव को महंगा पड़ा
सपा की अब तक की छवि एक पार्टी की रही है, जो परंपरागत तौर पर मुस्लिम-यादवों की पार्टी मानी जाती रही है. अब प्रदेश की स्थिति इस तरह की है कि इन दो समुदायों की बदौलत मैजिक नंबर को पाना संभव नहीं था. सच यह है कि प्रदेश में 58 विधानसभा क्षेत्रों मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में माने जाते हैं.
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चुनाव परिणामों के 24 घंटे बाद हालांकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव मीडिया के सामने नहीं आए हैं, लेकिन उन्होंने दो ट्वीट जरूर किए. इनमें चुनावी दृष्टिकोण एक प्रतिक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण थी, जहां उन्होंने लिखा कि कैसे उनकी पार्टी की सीटें ढाई गुनी व मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ी हैं औऱ कैसे सपा ने दिखा दिया कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है. आंकड़ों के लिहाज से दोनों बातें सच हैं, लेकिन आज जब हम अंतिम परिणाम की समीक्षा करते या देखते है, तो यह कहना उचित होगा कि राजनीति और रणनीति के इस नए दौर में अखिलेश की पहुंच, अपने परंपरागत दायरे व पहचान से बाहर निकलकर सर्व-समावेशी व्यवस्था के साथ में जुड़ने में विफल रही.
समीक्षकों के पास राजनीतिक समीक्षा के अपने पैमाने होते हैं और उसके लिए तर्क व आधार पर तलाश लिए जाते हैं. लेकिन पहली बार ऐसे चुनाव में जहां दो गठबंधन के बीच सीधी टक्कर हो रही हो, वहां क्षेत्र वार समीक्षा आंकड़ों पर आधारित हो, तो सच को समझने में आसानी होगी.
वोट शेयर बढ़ा, पर अंकगणित में पिछड़ गई सपा
2017 में 21.28 फीसदी वोट के साथ 47 सीटें जीतने वाली सपा इस बार रिकार्ड 32 फीसदी वोट तो हासिल किए लेकिन सीटें 111 ही मिलीं. लेकिन इस बढ़त की असलियत यह भी है कि 25-26 करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में जहां मुस्लिम आबादी लगभग 19.3 फीसदी है, जबकि 40 फीसदी वोट पिछले वर्ग का रहा है. इतिहास साक्षी है कि प्रदेश में गैर-बीजेपी सरकारें तभी बनी, जिन्होंने अपनी सीमित जातीय समीकरणों के दायरे से बाहर निकलने की कोशिश की, वहां अपनी पैठ बनाई औऱ उनका भरोसा जीतने में कामयाब रहे. सीमित जातीय समीकरण की बदौलत दौ सौ के जादुई आंकड़ों को पार पाना उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश में किसी भी पार्टी के लिए मुश्किल ही रहा है.
सपा की अब तक की छवि एक पार्टी की रही है, जो परंपरागत तौर पर मुस्लिम-यादवों की पार्टी मानी जाती रही है. अब प्रदेश की स्थिति इस तरह की है कि इन दो समुदायों ( 19 फीसदी और 9 फीसदी) की बदौलत मैजिक नंबर को पाना संभव नहीं था. सच यह है कि प्रदेश में 58 विधानसभा क्षेत्रों मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में माने जाते हैं. इस बार के एक्सिस माई-इंडिया के आंकड़ों के देखें तो दिखता है कि 83-84 फीसदी मुसलमानों का एकमुश्त मत सपा गठबंधन को मिला. वहीं ओबीसी वर्ग में 8-9 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले यादव समाज का भी एकमुश्त मत (करीब 86 फीसदी) सपा को मिला है. लेकिन चाहे 2007 में अपने दम पर सरकार बनाने वाली बसपा हो या 2012 में निर्णायक बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली सपा हो, सफलता उन्हें तभी मिली, जब इन दलों को अपने सीमित जातीय समीकरण से बाहर जाकर भी वोट मिले.
मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात की जाएं तो 2017 के विधानसभा में 24 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, जो संख्या इस बार बढ़कर 35 तक जा पहुंची है. सपा हो, बसपा हो या कांग्रेस सभी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. यहां भी सपा ने मुस्लिम-यादव वाली पार्टी के छवि से निकलने के लिए 64 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जबकि सबसे ज्यादा बसपा में 88 उम्मीदवार , कांग्रेस ने 75 उम्मीदवार मैदान में उतारे. लेकिन इस बार मुस्लिम मतदाताओं ने बिना किसी लाग-लपेट के सपा को इकलौते विकल्प के तौर पर देखा और थोक में वोट किया. यहां तक की हैदराबाद से किस्मत आजमाने आए ओवैसी को मात्र 0.47 फीसदी मुसलमानों का वोट मिला.
अखिलेश यादव ने जातीय समीकरणों को दुरूस्त करने के लिहाज से कोशिशें तो कीं लेकिन एक तो उसमें बड़ी देर की और जो प्रयास हुआ भी, उसका जमीन पर कोई प्रभावी असर नहीं दिखा. प्रदेश में 40 फीसदी ओबीसी वर्ग का दबाव इस कदर था कि लगभग हर दल 100 से 150 तक ओबीसी वर्ग के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. चाहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन हो, या फिर अपना दल (के), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी हो, मकसद गैर-यादव ओबीसी समाज में पैठ बढ़ाने की ही थी. यही नहीं, अन्य ओबीसी समाज में विस्तार के मकसद से बीजेपी के कई नेताओं, जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी को भी सपा में शामिल कराया गया. लेकिन परिणामों को देखें तो स्पष्ट है कि ये समीकरण अपेक्षित अंकगणित बिठाने में विफल रहे. स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी तो अपनी सीट तक बचाने में नाकाम रहे.
सपा की दिक्कत यह भी थी कि मुस्लिम-यादव वाली पार्टी की छवि इस कदर चिपकी हुई है कि तमाम प्रयासों के बावजूद चाहे सवर्ण हो, दलित हो या अन्य ओबीसी वर्ग, मन से जुड़ने को तैयार नहीं दिखे. सवर्णों में भी ब्राह्मणों का महज 17 फीसदी, जबकि राजपूतों का करीब 15 फीसदी वोट सपा को मिल पाया. इसी मुस्लिम-यादव की छवि के कारण, अन्य ओबीसी वर्ग औऱ दलित समुदाय में भरोसा पैदा कर पाने में पार्टी उस हद तक कामयाब नहीं हो पाई, जो उसे सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचा पाए. पार्टी को कुर्मी समुदाय का केवल 29 फीसदी और अन्य ओबीसी वर्ग का 22 फीसदी मत ही मिल पाया, जबकि जाटव (दलित) वर्ग का महज 14 फीसदी और गैर-जाटव दलित समाज का करीब 24 फीसदी वोट मिल पाया है. (सौ-एक्सिस माई-इंडिया)
इस जातीय समीकरण औऱ धुव्रीकरण का परिणाम यह निकला का मुस्लिम बहुल इलाकों ( 59 सीट) में भी जहां 2017 में बीजेपी को 39 सीट और सपा को 17 सीट हासिल हुई थीं, इस बार सपा को 34 सीटें मिली लेकिन बीजेपी ने भी 22 सीटों पर कब्जा कर लिया. लेकिन दूसरी तरफ, SC/ST बहुल करीब 86 सीटों फीसदी वोट शेयर 2017 के बीजेपी को 52 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि सपा को 23 सीटों पर जीत मिल पाई. हालांकि, 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 73 सीटों (41.7 फीसदी वोट शेयर) पर जीत मिली थी, जबकि सपा को 10 सीटों ( 22 फीसदी वोट शेयर) पर जीत मिल पाई थी. लेकिन ये अंतर इतना बड़ा था कि तमाम समीकरणों के बावजूद बीजेपी की निर्णायक बढ़त कायम रही.
दूसरी तरफ, बीजेपी की 2014, 2017, 2019 और अब 2022 की प्रचंड सफलता के पीछे की कहानी भी यही है कि उसे सवर्णों के अलावा, ओबीसी के एक बड़े तबके औऱ जाटव समेत गैर-जाटव दलितों का समर्थन मिला. बीजेपी के इस बार जाटव (दलित) के करीब 21 फीसदी, गैर-जाटव दलित समुदाय के करीब 51 फीसदी मत, ओबीसी वर्ग में कुर्मी वर्ग के 58 फीसदी, अन्य ओबीसी वर्ग, जिसमें लोध, मौर्य, मल्लाह, सैनी, राजभर, गड़ेरिया समुदाय का करीब 65 फीसदी वोट हासिल हुआ है. (डाटा सौ-एक्सिस माई-इंडिया)
बीजेपी का “M-Y” फैक्टर ज्यादा कारगर
सपा के मुस्लिम-यादव फैक्टर की तुलना में बीजेपी का मोदी-योगी (M-Y) फैक्टर ज्यादा कारगर रही. हालांकि, ये एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी समीक्षा हो चुकी है लेकिन रणनीतिक नजरिए से देंखे तो अखिलेश इस दौड़ में भी काफी पिछड़ गए. दरअसल, अखिलेश की लड़ाई उस गठबंधन या नेतृत्व के साथ था, जो 365 दिन राजनीतिक मैदान में दिखती है, हमेशा चुनावी मोड में रहती है औऱ जिसके पास एक नेतृत्व के साथ-साथ कैडर-संगठन का मजबूत सपोर्ट सिस्टम है. दूसरी तरफ, अखिलेश काफी देश से जगे, आनन-फानन में संगठन में नियुक्तियां करनी शुरू की औऱ जमीनी स्तर पर गठबंधन में तालमेंल को लेकर भी कमियां साफ दिख रही थीं.
2012 में प्रचंड जीत के बाद अखिलेश यादव ने पिछले तीन चुनावों में तीन समीकरण बैठाने की कोशिश की और जब वो नाकाम रहें तो भला-बुरा कह कर उस गठबंधन से बाहर निकल आए. 2017 में पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, 2019 में बसपा और रालोद के साथ गठबंधन किया औऱ 2022 में छोटी-छोटी जातियों के समीकरण के हिसाब से कई दलों से गठबंधन किया लेकिन सपा के साथ दिक्कत यह रही कि सपा के वोट तो गठबंधन को ट्रांसफर हुए, लेकिन जहां गठबंधन की पार्टियों का वोट सपा को ट्रांसफर होना था, वह उस मात्रा या अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो पाया. 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान जब सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हुआ था तब कई समीक्षक बीजेपी के लिए इसे एक कठिन चुनौती के तौर पर देख रहे थे पर जब परिणाम आए तो यही दिखा कि बसपा को दस सीटों पर जीत मिली, जबकि सपा पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई. दिक्कत यह भी रही कि एक गठबंधन अगर एक चुनाव में कारगर साबित नहीं हुआ तो पलटकर उसे दोबारा देखने, समझने और आजमाने की कोशिशें भी नहीं हुईं.
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब राज्य में ऑक्सीजन-अस्पताल बेड को लेकर हाहाकर मचा था, उन परिस्थितियों में स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पूरा संगठन मैदान में दिख रहा था. खुद मुख्यमंत्री जिलेवार दौरा कर रहे थे, लोगों से मिलते दिख रहे थे. जबकि सपा का नेतृत्व जमीन पर कम, सोशल मीडिया पर ही सक्रिय दिख रहा था और इस बात को चुनाव के दौरान स्वयं योगी आदित्यनाथ ने हर रैली में उठाया. योगी ये बताने में पीछे नहीं रहे कि कैसे संकट के समय सपा नेतृत्व घरों में बैठा था, वैक्सीन पर सवाल खड़ा कर रहा था और वैक्सीन के दुष्प्रचार वाली टोली में शामिल थे. अखिलेश यादव पूरे चुनाव प्रचार के दौरान इन आरोपों से बचते रहें.
उधर, सवर्णों की परंपरागत वोट बैंक से आगे निकलकर बीजेपी ने 2017 से बाद लाभार्थियों का नया वर्ग खड़ा करने की कोशिश की और निशाने पर गैर-यादव ओबीसी वर्ग और गैर-जाटव दलित वर्ग से जोड़ने की ज्यादा रही. इस बार भी, ओबीसी व दलितों को लेकर बीजेपी पिछले छह महीने से सक्रिय थी. राज्य के ओबीसी-दलितों नेताओं की छोटी-छोटी टोलियां बनाकर इन समुदाय बहुल इलाकों में छोटी-बड़ी लगभग दो सौ मीटिंग्स आयोजित की गई और मकसद सिर्फ यह था कि लाभार्थियों से संपर्क साधा जाए, उन्हें सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से जोड़ा जाए और अगर उसका लाभ मिलने में कोई दिक्कतें आ रही हों, तो उसे दूर किया जाए. पार्टी संगठन से जुड़े लोग, जिनमें सुनील बंसल से लेकर राधामोहन सिंह, अनुराग ठाकुर, कामेश्वर मिश्रा जैसी पूरी टीम पिछले कई महीने से जिलावार-बूथवार कार्यकर्ताओं से मीटिंग कर रही थी, सोशल मीडिया टीम प्रचार तंत्र व सामग्री से लेकिन दूसरी तरफ अखिलेश नवंबर-दिसंबर से दिखना शुरू हुए औऱ घर में अपने चाचा शिवपाल यादव से दोबारा समीकरण ठीक करने में हफ्तों लग गए.
कानून-व्यवस्था को लेकर भी जिस कदर मोदी और योगी ने इन चुनावों को दौरान जिस कदर अखिलेश की घेराबंदी की, कि उस हमले से भी अखिलेश उबर नहीं पाए. हर रैली में सपा सरकार के दौरान हुए 300 दंगों को उठाया गया, माफियाओं द्वारा जमीन के अवैध कब्जे की चर्चा हुई और इसे गरीबों-महिलाओं की सुरक्षा औऱ प्रदेश के विकास के साथ जोड़ा गया. लाभार्थियों की जमात के साथ –साथ कानून व्यवस्था के मुद्दे पर बीजेपी ने महिलाओं को जोड़ा औऱ इसका अंतर भी इस चुनावों को सभी को दिख गया. ऐसे में परिणामों पर अखिलेश यादव का ट्वीट प्रासंगिक भी है, लेकिन उसके लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी, ये भी तय है.
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