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Updated: 02 सितम्बर, 2021 10:52 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर सियासी शतरंज की बिसात बिछाई जाने लगी है. मुख्य मुकाबला योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के बीच है. क्योंकि अखिलेश ही सबसे बड़े चैलेंजर हैं. लेकिन, क्या वो इतने बड़े हैं जो योगी आदित्यनाथ और भाजपा की चुनाव मशीन को टक्कर दे सकें?

अखिलेश यादव का चुनावी अतीत बहुत खुशगवार नहीं है. 2012 के यूपी चुनाव में उनके उभार को चमत्कार माना गया था, लेकिन उनका कार्यकाल खत्म होते होते कहा जाने लगा कि सपा सरकार में साढ़े चार मुख्यमंत्री हैं. मुलायम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, रामगोपाल यादव, आजम खान और आधे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव. रही सही कसर 2017 के चुनाव से एन पहले पूरी हो गई. जब सपा कुनबे का सत्ता संघर्ष सड़क पर आ गया. चाचा, भतीजे सब लड़ पड़े. नतीजा ये रहा है कि भाजपा ने तीन चौथाई से अधिक सीटों पर जीत दर्ज की. अब अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए भी भाजपा ने कमर कस ली है. हाल ही में हुए पंचायत चुनाव (जिन्हें यूपी विधानसभा चुनावों का सेमीफाइनल कहा जा रहा था) में समाजवादी पार्टी ने अपने सबसे ज्यादा पंचायत सदस्य जीतने का दावा किया था. लेकिन, जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने के मामले में भाजपा के चुनावी प्रबंधन के आगे समाजवादी पार्टी ने घुटने टेक दिए. जबकि, अतीत में ऐसे ही कई मौकों पर शिवपाल सिंह यादव ने समाजवादियों की वैतरणी को पार लगाया था. संगठन और चुनाव प्रबंधन के मामले में पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव अभी भी 'टीपू' ही नजर आते हैं.

लंबे समय तक सपा का चेहरा भले ही मुलायम सिंह यादव रहे हों, लेकिन संगठन को जमीन पर खड़ा करने और जनाधार जुटाने में शिवपाल सिंह यादव की काबिलियत के कायल 'नेताजी' भी थे. समाजवादी कुनबे में हुई टूट के बाद शिवपाल सिंह यादव ने कई मौकों पर अखिलेश यादव के साथ आने की कोशिश की है. लेकिन, अखिलेश यादव की ओर से उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं दी गई. अखिलेश यादव ने यूपी पंचायत आजतक के कार्यक्रम में ये जरूर कहा था कि उनके लिए जसवंतनगर की सीट छोड़ दी गई है. लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि शिवपाल सिंह को जितनी जरूरत सपा की है, उससे ज्यादा अखिलेश को शिवपाल की है.

 समाजवादी कुनबे में हुई टूट के बाद शिवपाल सिंह यादव ने कई मौकों पर अखिलेश यादव के साथ आने की कोशिश की है. समाजवादी कुनबे में हुई टूट के बाद शिवपाल सिंह यादव ने कई मौकों पर अखिलेश यादव के साथ आने की कोशिश की है.

2012 में चाचा शिवपाल ही थे 'चाणक्य'

सपा को उत्तर प्रदेश में सियासी तौर पर मजबूत करने में जितना हाथ मुलायम सिंह यादव का था, उतना ही पसीना शिवपाल सिंह ने भी बहाया था. सपा में वह जमीनी नेता के तौर पर पहचान रखते थे और उनकी हर समाज के लोगों के बीच अच्छी-खासी पैठ थी. संगठन कैसे चलाया जाता है और चुनाव कैसे जीता जाता है, इस मामले में शिवपाल यादव को महारत हासिल थी. 2012 में 'टीपू' के उत्तर प्रदेश का 'सुल्तान' बनने को शिवपाल सिंह यादव की ही रणनीति का परिणाम माना जाता है. लेकिन, पूर्ण बहुमत से आई सरकार को अखिलेश यादव अपने चेहरे का जादू समझ बैठे. समाजवादी कुनबे में मची सियासी कलह का असर अखिलेश को अगले विधानसभा चुनाव में भुगतना भी पड़ा.

भतीजे के पार्टी पर कब्जा करने से नाराज हुए थे चाचा

मुलायम सिंह यादव के बाद समाजवादी पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले शिवपाल सिंह यादव पार्टी पर अखिलेश यादव के एकछत्र राज से खफा हो गए थे. इस बात में दो राय नहीं है कि सपा को उत्तर प्रदेश में बड़ा सियासी दल बनाने में मुलायम सिंह यादव के साथ ही शिवपाल सिंह ने भी मेहनत की थी. लेकिन, सपा में वर्चस्व की जंग के शुरू होने के साथ ही अखिलेश ने शिवपाल के पर कतरना शुरू कर दिए थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे पर अखिलेश का मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव से मतभेद खूब खुलकर सामने आया था. यादव परिवार में मची इस सियासी खींचतान के बाद विधानसभा चुनाव में सपा की हार का ठीकरा अखिलेश ने शिवपाल पर फोड़ा दिया. कहा जाता है कि अखिलेश के दूसरे चाचा रामगोपाल यादव के भड़काने पर ही उन्होंने शिवपाल सिंह को साइडलाइन करने का मन बनाया था. शिवपाल सिंह यादव ने सपा से अलग होकर मुलायम सिंह यादव का 'आशीर्वाद' लेकर एक मोर्चा बनाया, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी में तब्दील हो गया.

2019 के लोकसभा चुनाव में शिवपाल सिंह की पार्टी कोई खास प्रभाव नहीं दिखा सकी.2019 के लोकसभा चुनाव में शिवपाल सिंह की पार्टी कोई खास प्रभाव नहीं दिखा सकी.

अखिलेश तैयार, लेकिन रामगोपाल नहीं

2019 के लोकसभा चुनाव में शिवपाल सिंह की पार्टी कोई खास प्रभाव नहीं दिखा सकी. हालांकि, उन्होंने सपा का गढ़ कही जाने वाली फिरोजाबाद लोकसभा सीट पर रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव के खिलाफ चुनाव लड़ा और ये सीट 21 साल बाद भाजपा के खाते में चली गई. रामगोपाल यादव से शिवपाल की अदावत किसी से छिपी नहीं है. कहा तो ये भी जाता है कि चाचा शिवपाल के लिए अखिलेश के मन में अभी भी जगह है, लेकिन रामगोपाल यादव की वजह से उनकी वापसी पर ब्रेक लगा हुआ है. यूपी पंचायत आजतक के कार्यक्रम में अखिलेश ने आने वाले समय में शिवपाल के साथ गठबंधन के संकेत तो दे ही दिए थे. उन्होंने कहा था कि उनका भी एक दल है. अगर समीकरण और परिस्थितियों के हिसाब से उनके साथी अनुकूल होंगे, तो विचार किया जाएगा. उन्होंने ये भी कहा कि वो सरकार बनवाएं और सम्मान पाएं.

इसी कार्यक्रम में चाचा शिवपाल ने भी अपना दर्द साझा किया था. शिवपाल सिंह यादव ने कहा था कि नेताजी हमेशा परिवार को साथ लेकर चले. गांव को और समाजवादी पार्टी को भी एक परिवार की तरह साथ लेकर चले. उन्होंने दुश्मनों को भी गले लगाया और आगे बढ़ते रहे. भतीजा भी उसी राह पर चले, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. हमने तो कई दफे अखिलेश से मिलने का समय मांगा, लेकिन अब तक नहीं मिला है. उन्होंने गठबंधन के सवाल पर समाजवादी पार्टी को पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता बताया था.

वैसे, अखिलेश यादव भले ही सपा को भाजपा के सामने सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनाकर पेश कर रहे हों. लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि चुनाव और संगठन के प्रबंधन में वो अभी भी शिवपाल को छू नहीं पाए हैं. कम से कम जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजे तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं. अगर अखिलेश यादव इस बार भी शिवपाल सिंह यादव के साथ गठबंधन के साथ इनकार कर देते हैं, तो उन्हें तकरीबन हर सीट पर कुछ हजार वोटों का नुकसान होना तय है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, बसपा और भागीदारी संकल्प मोर्चा की वजह से पहले ही चुनाव बहुकोणीय हो चुका है. शिवपाल को साथ लाकर वो कम से कम एक जगह तो खुद को मजबूत कर ही सकते हैं. कहना गलत नहीं होगा कि शिवपाल सिंह को जितनी जरूरत सपा की है, उससे ज्यादा अखिलेश को शिवपाल की है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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