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Updated: 13 नवम्बर, 2021 10:55 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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उत्तर प्रदेश को लेकर हुए लगातार तीन सर्वे में एक चीज कॉमन देखी गयी है - बीजेपी की सत्ता में वापसी तय है और मुकाबले में ठीक सामने अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ही हैं. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के दोबारा प्रयोग के बावजूद और प्रियंका गांधी वाड्रा के लगातार एक्टिव रहने के बाद भी बीएसपी और कांग्रेस आखिरी पायदान पर भी बने नजर आ रहे हैं.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो मौजूदा राजनीतिक समीकरण दिखायी पड़ रहे हैं, बीजेपी नेतृत्व को तो अपने पुराने 'शाइनिंग इंडिया' वाले मोड में शिफ्ट होकर निश्चिंत हो जाना चाहिये, लेकिन ऐसा तो कतई नहीं लगता. वाराणसी जाकर बीजेपी की चुनावी मशीनरी को अमित शाह के एक्टिवेट करने के बाद जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पहुंचने वाले हैं - और काशी विश्वनाथ धाम के साथ साथ यूपी के लोगों को प्रधानमंत्री मोदी पूर्वांचल एक्सप्रेस वे की सौगात भी देने वाले हैं.

अमित शाह ने बनारस से सीधे आजमगढ़ का रुख किया है. असल में आजमगढ़ समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव का संसदीय क्षेत्र है - और अखिलेश यादव काउंटर बैलेंस के मकसद से योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर का कार्यक्रम बना चुके हैं. चुनाव की तारीख घोषित होने से पहले ही एक दूसरे की घेरेबंदी शुरू हो चुकी है. 16 नवंबर को जब पीएम मोदी और सीएम योगी पूर्वांचल को साधते हुए यूपी को पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का तोहफा देने वाले हैं, तो वहीं उसी दिन अखिलेश गाजीपुर में विजय रथ निकालेंगे - और अगले दिन विजय रथ का समापन अपने संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में करेंगे.

अखिलेश यादव तो अपनी तैयारी 2012 के विधानसभा चुनावों (UP Election 2022) की तरह ही कर रहे हैं, ताकि 2017 जैसी कोई चूक भारी न पड़ जाये - लेकिन बीजेपी को भला किस बात की फिक्र सता रही है? क्या बीजेपी भी सर्वे के भ्रम में नहीं फंसना चाहती? मायावती तो चुनाव पूर्व सर्वे पर पाबंदी ही लगा दिया जाना चाहती हैं. वैसे भी सर्वे में बीएसपी को लेकर जो रिपोर्ट आ रही है, चिंता स्वाभाविक भी है.

वैसे बीजेपी को किस बात की चिंता है? ऐसे में जबकि यूपी में अभी से हिंदुत्व के पक्ष में माहौल बनने लगा है और योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) जैसा भगवा धारी चेहरा जिसके राजनीतिक दल के पास हो, भला डर किस बात की?

लेकिन डर तो लगता है. अगर डर नहीं लगता तो अमित शाह यूपी में भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लोगों से वोट क्यों मांग रहे होते - 'मोदी जी को यदि 2024 में एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाना है... तो 2022 में फिर एक बार योगी जी को मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा.'

ऐसा लगता है मायावती की ही तरह अमित शाह को भी सर्वे जमीनी हकीकत के करीब लगने लगा है - और डर तो इस बात को लेकर भी हो सकता है कि अगर चुनाव नजदीक आते आते अखिलेश यादव का दखल बढ़ने लगा तो क्या होगा?

अखिलेश यादव की ताकत और कमजोरियां

बीजेपी हर चुनाव से पहले अंदरूनी सर्वे भी कराती रहती है. ऐसे सर्वे के जरिये कार्यकर्ताओं के जरिये बीजेपी समर्थकों और अपने वोटर के मन की बात जानने का प्रयास करती है - और जिस तरीके से योगी आदित्यनाथ और मोदी-शाह के बीच टकराव की बातें बाहर आ चुकी हैं, वो भी डर की एक वजह तो हो ही सकती है. ऐसा डर तो लोगों में गये गलत संदेश को लेकर ही होता है. हाल ही में, दिल्ली में हुई बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ को अहमियत देने की बातें प्रचारित की गयीं - ये तो साफ है कि अंदर से पार्टी डरी हुई है. कार्यकारिणी में योगी आदित्यनाथ ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया था जिसे उनके बढ़ते कद के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की गयी.

बेशक बीजेपी नेतृत्व अखिलेश यादव की कमजोरियों पर फोकस कर रहा होगा, लेकिन समाजवादी पार्टी नेता के कई मजबूत पक्ष भी तो हैं जो निश्चित तौर पर बीजेपी की फिक्र की वजह बन सकते हैं - अगर अखिलेश यादव अपनी कमजोरियों पर ताकत का पक्ष बढ़ाने में सफल रहते हैं तो ये बीजेपी के लिए चिंता का बड़ा कारण भी बन सकता है.

1. TINA फैक्टर को काउंटर करने की कोशिश: राजनीति में टीना फैक्टर विकल्पविहीनता की स्थिति को कहते हैं. अखिलेश यादव के बर्थडे के मौके पर समाजवादी पार्टी के दफ्तर और लखनऊ में जगह जगह डिजिटल टाइमर वाले होर्डिंग लगाये गये थे, जिन पर साफ तौर पर लिखा गया - ‘आ रहा हूं...’

akhilesh yadav posterअखिलेश यादव की ये मुहिम लोगों में कितना भरोसा जगा पाती है, ये समझने में ज्यादा देर नहीं लगने वाली है.

दरअसल, समाजवादी की तरफ से ये मैसेज TINA फैक्टर की काट में प्रचारित करने की कवायद ही है. अगर लोगों के मन में ऐसी कोई शंका है कि योगी आदित्यनाथ के अलावा यूपी में विकल्प कहां है, तो अखिलेश यादव ऐसा करके लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं - यूपी में विकल्प है.

अक्सर सत्ताधारी पार्टियां इस चीज का फायदा उठाती रही हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भी बीजेपी को तो इस बात का फायदा मिल ही रहा है - क्योंकि कांग्रेस लोगों को ये यकीन नहीं दिला पा रही है कि वो बीजेपी के विकल्प के रूप में मौजूदा दौर में सत्ता संभालने के लिए तैयार है. कांग्रेस के साथ एक बड़ा फैक्टर तो नेतृत्व संकट भी है. राहुल गांधी को प्रॉक्सी तरीका ही पसंद आने लगा है और प्रियंका गांधी वाड्रा को कमान सौंपने का कोई इरादा नहीं है, लिहाजा सोनिया गांधी जैसे तैसे ढो रही हैं.

योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव के 'आ रहा हूं...' की अपने तरीके से व्याख्या की है और कहा है कि वो कुछ ऐसा वैसा हरगिज नहीं होने देंगे. योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं, 'आज जो लोग कह रहे हैं मैं आ रहा हूं वो अपहरण, अराजकता... लूटपाट के लिए आ रहे हैं - ये सब हम नहीं चलने देंगे.'

लखनऊ में पिछड़ा वर्ग के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने पहले की सरकारों को टारगेट करते हुए कहा था कि विपक्ष ने उत्तर प्रदेश के लिए कुछ नहीं किया वरना युवाओं को पलायन के लिए मजबूर नहीं होना होता. योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि पहले की सरकारों ने इंडस्ट्री को बर्बाद करने का काम किया, लेकिन अब हर तबके को नौकरी मिल रही है.

पलायन का जोर शोर से जिक्र योगी आदित्यनाथ ने अपने कैराना दौरे में भी किया था, जिसे लेकर अखिलेश यादव एक रैली में लोगों को समझा रहे थे, अगर योगी आदित्यनाथ का उत्तराखंड से पलायन नहीं हुआ होता तो उत्तर प्रदेश का पांच साल बर्बाद भी नहीं होता.

समाजवादी पार्टी के होर्डिंग में नीचे जयराम पांडेय का नाम है. ऐसे बैनर पोस्टर लगाने की वजह समाजवादी पार्टी लीडर जयराम पांडेय बताते हैं, केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से खफा जनता का मिजाज जानने के बाद ही हमने यह बैनर और पोस्टर लगवाये हैं.

समाजवादी पार्टी नेता 'आ रहा हूं...' का मतलब भी समझाते हैं, '...अर्थ है कि अखिलेश यादव जनता से कह रहे है कि वो क्षेत्र में भी आ रहे हैं... जनता के बीच भी आ रहे हैं - और सरकार में भी आ रहे हैं.'

2. सत्ता विरोधी लहर को भुनाने का प्रयास: किसी भी शासन में सत्ता के खिलाफ कोई नाराजगी न हो, ऐसा तो नामुमकिन है. चुनावों में सत्ताधारी दल सर्वे और फीडबैक के हिसाब से काउंटर स्ट्रैटेजी तैयार करते हैं और सफल भी हो जाते हैं. योगी आदित्यनाथ सरकार को लेकर अमित शाह भले ही देश में बेस्ट बतायें और प्रधानमंत्री भले ही कोरोना की दूसरी लहर के दौरान भी बेहतरीन काम का सर्टिफिकेट दे चुके हों, लेकिन लोगों के मन में अगर कुछ अलग चल रहा है, ये तो किसी को नहीं मालूम.

जहां तक ताजा सर्वे का सवाल है, कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी या अन्य बदइंतजामियों को लोग शायद अब कोई मुद्दा नहीं मान रहे हैं. 30 फीसदी लोगों ने, सर्वे के मुताबिक, यूपी में कानून व्यवस्था को सबसे बड़ा मुद्दा बता रहे हैं. 17 फीसदी लोग किसानों का आंदोलन, 15 फीसदी बेरोजगारी और 14 फीसदी राम मंदिर को चुनावी मुद्दे के तौर पर देख रहे हैं - सबसे दिलचस्प है कि सामाजिक सौहार्द्र, बिजली, सड़क और पानी महज तीन फीसदी लोगों की नजर में चुनावी मुद्दा बन सकता है.

लोगों की राय ऐसे भी समझी जा सकती है कि बिजली-पानी जैसे बुनियादी मुद्दों को लेकर लोगों को मौजूदा सरकार से कोई शिकायत नहीं है - और ऐसी ही राय सामाजिक सौहार्द्र को लेकर भी है, लेकिन ये सब किन लोगों ने बताया है इस पर भी तो निर्भर करता है - कहीं सर्वे में बीजेपी समर्थक ही तो नहीं शामिल हो गये हैं?

3. करीब करीब अकेले हैं अखिलेश यादव: यूपी में विपक्ष पूरी तरह बिखरा हुआ है. कांग्रेस नेता इमरान मसूद चाहते हैं कि कांग्रेस सहित सभी दलों को अखिलेश यादव का सपोर्ट करना चाहिये, लेकिन प्रियंका गांधी की तरफ से सार्वजनिक तौर पर अब तक कोई ऐसी तत्परता नहीं दिखायी गयी है.

ये सही है कि अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा के बीच एक हवाई मुलाकात भी हो चुकी है - मुद्दा ये नहीं है कि वो मुलाकात संयोग रही या प्रयोग, मुद्दा ये है कि उससे निकल कर क्या आ रहा है? प्रियंका गांधी की ऐसी ही मुलाकात जयंत चौधरी के साथ भी हुई है. जयंत चौधरी 2019 के चुनाव में भी अखिलेश यादव के साथ रहे हैं, मतलब कांग्रेस के खिलाफ.

4. विपक्ष का कितना सपोर्ट संभव है: बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि अखिलेश यादव को वास्तव में बड़े दलों की तरफ से कोई सपोर्ट मिलता भी है या नहीं. प्रियंका गांधी वाड्रा गठबंधन की बात जरूर कर रही हैं, लेकिन अब तक कोई गंभीर रुख सामने नहीं आया है. मायावती तो साफ तौर पर अकेले मैदान में उतरने की बात कह रही हैं. बावजूद इसके कि आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का फायदा मिल चुका है. अगर कांग्रेस ने टांग नहीं अड़ाई होती तो ज्यादा फायदा भी मिल सकता था.

इमरान मसूद की ही तरह ममता बनर्जी का भी स्टैंड है कि अखिलेश यादव को सपोर्ट किया जाना चाहिये, लेकिन तृणमूल कांग्रेस का यूपी में कोई जमीनी आधार न होने से ट्विटर से ज्यादा सपोर्ट तो बस कहने सुनने वाली ही बात होगी. कांग्रेस से ललितेशपति त्रिपाठी को झटक कर ममता बनर्जी ने यूपी में विरोध की एक अलग आवाज का इंतजाम जरूर कर लिया है. माहौल बनाने में वो कितना भी मददगार हो, लेकिन वोटों के हिसाब से तो कोई खास असर शायद ही देखने को मिल पाएगा.

5. मुस्लिम वोट बैंक का सपोर्ट: अगर बीजेपी को टक्कर देने वाली पार्टी को मुस्लिम वोट मिलने का फॉर्मूला चलता है तो अखिलेश यादव फायदे में रह सकते हैं - क्योंकि फील्ड में योगी आदित्यनाथ को सीधे सीधे चैलेंज करते और टक्कर देते वही देखे जा रहे हैं, लेकिन जिस तरीके से कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने हिंदुत्व की जिहादी मुस्लिम गुटों से तुलना कर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है और राहुल गांधी कि हिंदुइज्म थ्योरी को जिस तरीके से राशिद अल्वी जैसे नेता जय श्रीराम बोलने वालों को राक्षस बता कर बात को आगे बढ़ा रहे हैं - मुस्लिम वोट बैंक में बंटवारा तय हो गया लगता है.

और ये बात अखिलेश यादव की सत्ता में वापसी के सपने के खिलाफ ही जाती है, ऐसा ही माना जा सकता है.

हर सर्वे कुछ कहता है

चुनाव पूर्व होने वाले सर्वे को बीजेपी चाहे तो कुछ ऐसे ले सकती है, जैसे - आएंगे तो तो योगी ही. ठीक वैसे ही जैसे 2019 में एक जुमला चला था, कुछ भी कर लो... आएगा तो मोदी ही. ये तो मालूम है कि योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी में बहुत बड़ा फर्क है. लोकप्रियता में भी बड़ा फासला है - और चुनाव नतीजे तो ये नाप कर बता ही देंगे कि कितना अंतर है. अब तक देखा तो यही गया है कि योगी भी तभी चलते हैं जब मोदी हिट रहते हैं - बीते कई विधानसभा चुनाव के आंकड़े उदाहरण हैं.

सी-वोटर के सर्वे में करीब 41 फीसदी लोग मुख्यमंत्री के रूप में एक बार फिर योगी आदित्यनाथ के नाम पर ही मुहर लगा रहे हैं, जबकि लगभग 32 फीसदी लोग अब बदलाव चाहते हैं और पांच साल बाद वे अखिलेश यादव को फिर से यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते देखना चाहते हैं.

तीसरे नंबर पर होकर भी मायावती काफी पीछे हैं क्योंकि सिर्फ 15.6 फीसदी लोग ही बीएसपी नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर लौटने के पक्षधर लगते हैं. सर्वे हो रहा था तो लोगों से प्रियंका गांधी और जयंत चौधरी के बारे में भी राय ले ली गयी - प्रियंका गांधी वाड्रा को 4.9 फीसदी और जयंत चौधरी को 2.2 फीसदी लोग ही मुख्यमंत्री के तौर पर पसंद करते हैं.

अगर तीन महीने पहले के सी वोटर के सर्वे से ही तुलना करें तो अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री के रूप में देखने वालों की तादाद थोड़ी बढ़ी लगती है, जबकि योगी आदित्यनाथ को लेकर हल्का सा रुझान कम कहा जा सकता है. सितंबर के सर्वे में योगी आदित्यनाथ को 40.4 फीसदी लोगों ने मुख्यमंत्री की पसंद बताया था, जबकि अखिलेश यादव को 27.5 फीसदी - इस लिहाज से अखिलेश यादव को पसंद करने वाले पांच फीसदी बढ़े हैं.

सर्वे के माध्यम से देखें तो बीजेपी की सत्ता में वापसी जरूर तय लगती है, लेकिन 2017 के मुकाबले उसकी सीटें काफी कम हो सकती हैं. 2017 में बीजेपी को 312 सीटें मिली थीं, लेकिन 2022 में ये संख्या 213 से 221 के बीच मिलने का अनुमान है - दूसरी तरफ, पांच साल पहले 48 सीटों पर सिमट जाने वाली समाजवादी पार्टी इस बार 152 से 160 के बीच विधानसभा सीटें हासिल कर सकती है. यूपी में 403 विधानसभा सीटों पर 2022 के शुरू में चुनाव होने वाले हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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