रेपिस्ट रामरहीम को Z प्लस और गौरी लंकेश को 7 गोलियां !
ये सत्ता से सांठगांठ का ही कमाल है कि एक ओर घिनौने अपराध का आरोपी राम रहीम जेड प्लस सुरक्षा में आनंद करता रहा. जबकि जिंदगी खतरे में होने के बावजूद गौरी लंकेश अकेली लड़ने को मजबूर रही.
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सोशल मीडिया पर गौरी लंकेश की हत्या की कड़ी निंदा हो रही है, लेकिन एक तबका ऐसा भी उभर कर सामने आया है जो निंदा तो कर रहा है लेकिन उसमें भी शर्तें लागू हैं. ऐसी बातें हो रही हैं कि किसी की हत्या गलत है, लेकिन गौरी की गतिविधियां भी ठीक नहीं थी. मतलब कहना क्या चाहते हो - सरेआम गोली मार दोगे? हद है!
गुरमीत राम रहीम का जिक्र यहां क्यों?
कन्नड़ पत्रकार और लेखक गौरी लंकेश की हत्या के मामले में गुरमीत रामरहीम का जिक्र एक खास वजह से आ जरूरी हो जाता है. अपने आखिरी संपादकीय में गौरी ने बताया है कि कैसे गुरमीत रामरहीम की सजा के बाद एक वायरल फोटो फेक न्यूज का हिस्सा बन गया.
गौरी लंकेश को धमकियां मिल रही थीं...
55 साल की गौरी 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. ये पत्रिका उनके पिता पी. लंकेश ने शुरू की थी. लंकेश पत्रिके में अपने आखिरी संपादकीय में गौरी ने गुरमीत रामरहीम का भी जिक्र किया है. असल में गौरी ने संपादकीय में फेक न्यूज पर विस्तार से लिखा था.
रामरहीम को सजा सुनाये जाने के बाद उसके साथ सोशल मीडिया में बीजेपी नेताओं की तस्वीरों के वायरल होने पर गौरी का कहना है कि इससे बीजेपी और संघ परिवार के लोग परेशान हो गये. तभी गुरमीत रामरहीम के साथ केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन की तस्वीर वायरल होने लगी. गौरी की नजर में ये बीजेपी नेताओ वाली तस्वीर को एक फोटोशॉप तस्वीर से काउंटर करने की कोशिश रही. गौरी लिखती हैं, असली तस्वीर में कांग्रेस नेता ओमन चांडी बैठे हैं लेकिन उनके धड़ पर विजयन का सिर लगा दिया गया - और उसे सोशल मीडिया में फैला दिया गया. गौरी आगे लिखती हैं - शुक्र है संघ की ये तरकीम कामयाब नहीं हो पायी क्योंकि कुछ लोगों ने फौरन ही उसकी असल तस्वीर सामने लाकर सच्चाई दिखा दी.
एक बलात्कारी को ये सब कैसे मिलताै रहा?
गौरी की हत्या के मामले में इन बातों का जिक्र इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि जिस सत्ता ने रामरहीम की परवरिश की और फिर आगे चल कर उसे प्रोटेक्शन दिया - वही सत्ता उस व्हिसल ब्लोअर को प्रोटेक्ट नहीं कर पायी जिसे सरेआम गोली मार दी गयी. कम से कम दो केस तो ऐसे हैं ही कि रामरहीम के खिलाफ बोलने के एवज में उन्हें जान गंवानी पड़ी. एक पत्रकार रामचंद्र और दूसरे पीड़ित साध्वी का भाई जिसने यौन उत्पीड़न को सामने लाने की कोशिश की.
बात ये नहीं है कि अपराध में लिप्त रामरहीम सरकारी सुरक्षा में ऐश करता रहा और एक मीडियाकर्मी जान जोखिम में डाल कर अपना काम करती रही - और वही उसकी मौत का कारण भी बना. गौरी के कुछ करीबियों को छोड़ दें तो अभी तक ऐसी कोई शिकायत सामने नहीं आयी है कि उनकी जान को खतरा था और सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया.
इंडिया टुडे की पत्रकार रोहिणी स्वामी ने गौरी पर किसी तरह के खतरेे की बात जब मुख्यमंत्री सिद्धरमैया से पूछी तो उनका भी जवाब ना में ही था. रोहिणी ने सिद्धरमैया से पूछा कि क्या कभी गौरी ने अपनी जान पर खतरे का उनसे जिक्र किया था? सिद्धरमैया ने कहा - वे मुझसे पिछले सप्ताह ही मिली थीं, लेकिन उन्होंने अपने ऊपर किसी तरह का खतरा होने की बात नहीं की.
फिर तो यही लगता है कि रामरहीम ने सत्ता से रिश्ता बना कर सरकारी सिक्योरिटी लिये रहा - और गौरी बगैर इन सब की परवाह किये अपना काम करती रहीं. हो सकता है उन्हें संभावित खतरे का अहसास हो लेकिन वो नजरअंदाज करती रहीं हों.
ये फर्क समझाना ही आपको फंसा रहा है
सोशल मीडिया पर जर्नलिस्ट और एक्टिविस्ट में फर्क समझाने की भी कोशिश हो रही है. इस तरह की दलील का घालमेल ये है कि कभी जर्नलिस्ट को प्रेस्टिट्यूट बता दिया जाता है और कभी एक्टिविस्ट के नाम पर उसे बिरादरी के बाहर भेजने की कोशिश होती है. ये हत्या की निंदा भी करते हैं लेकिन शर्तों के साथ. तो क्या ऐसी दलीलों का मतलब यही है कि चुपचाप पत्रकारिता करो, वरना एक्टिविस्ट बनने की कोशिश किये तो गला घोंट दिया जाएगा. पत्रकारिता की भी इनकी अपनी परिभाषा है जो इनका पीआर करे, जो इनकी जय जयकार करे वो पत्रकार नहीं तो प्रेस्टिट्यूट बताते पल भर भी नहीं लगता.
These tweets prove that #GauriLankeshMurder is an internal conflict and factional conspiracy. pic.twitter.com/zoQy5T7utB
— Tapan Ghosh (@hstapanghosh) September 6, 2017
#GauriLankeshMurder "They" always search for a "dadri" moment to "lynch" the BJP n RSS to " derail" a Nation.#Vultures need to be stopped. pic.twitter.com/wJxgSfgrKx
— Chitra (@chitrapadhi) September 6, 2017
अब वो शख्स जर्नलिस्ट है या एक्टिविस्ट या एक अदना सा आम आदमी. किसी भी इंसान को गोली मारने का अधिकार आपको किसने दिया? कौन क्या बोले? कौन क्या लिखे? कौन क्या खाये? कौन क्या और किस रंग का पहने ये तय करने वाला कोई और होता कौन है? मुद्दा ये नहीं है कि गौरी पत्रकार थीं या एक्टिविस्ट? मुद्दा ये भी नहीं कि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी का पेशा क्या था? असल मुद्दा ये है कि ये टारगेट पर क्यों रखे जाते हैं? सिर्फ इसीलिए ना कि ये लोग भीड़ के कत्ल पर आवाज उठाते हैं. ये लोग बोलने की आजादी के हिमायती हैं. ये विरोध की आवाज को बुलंद करते हैं.
एक रेपिस्ट को जिसके खिलाफ सीबीआई जांच कर रही हो - पहले तो उसमें हर संभव अड़ंगे लगाये जाते हैं, जब चार्जशीट फाइल हो जाती है तब भी उसे एयरपोर्ट पर विशेष सुविधा जारी रहती है. वो जेड प्लस सिक्योरिटी लेकर धौंस जमाता फिरता है. उसकी करतूतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले अपनी जान बचाते फिरते हैं. सच तो ये है कि उन्हें अपने जान की परवाह कम और बलात्कारी को सजा दिलाने की फिक्र कहीं ज्यादा रहती है.
यहां तक कि अदालत जब उसे दोषी करार देती है, फिर भी सरकारी मुलाजिम उसका बैक पूरी श्रद्धा से ढोते हैं. हेलीकॉप्टर में उसे ले जाया जाता है और उसके साथ उसकी मुहंबोली बेटी जिसके साथ उसका रिश्ता अब भी मिस्ट्री है - जाने दिया जाता है.
याद कीजिए उसी रेपिस्ट के कारनामों से पर्दा हटाती एक गुमनाम चिट्ठी एक अखबार छाप देता है तो उसके घर के पास ही सरेआम उसे गोलियों से भून दिया जाता है. सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति के परिवार को अब भी को इंसाफ का इंतजार है.
ऐसे ही लोगों को बचाने वालों के कारनामों की कोई पोल खोलता है तो उसके खिलाफ भ्रम फैलाया जाता है - और आखिरकार मार डाला जाता है. मरने के बाद भी कोशिश यही होती है कि जो हुआ ठीक हुआ.
सबसे खतरनाक है सोच के खिलाफ साजिश रच मार डालना
फिल्म सरकार का एक डायलॉग है - "आदमी को मारने से पहले... उसकी सोच को मारना जरूरी है." फिलहाल यही हो रहा है. न जाने कितने लोगों का हुजूम इसी एजेंडे पर आगे बढ़ रहा है. भीड़ का कत्ल कभी किसी रूप में सामने आता है तो कभी किसी रूप में. प्रधानमंत्री ने गौरक्षकों पर डॉजियर तैयार करने की सलाह दी थी. मालूम नहीं उस सलाह पर कितना अमल हुआ, लेकिन इससे भीड़ के कत्ल का रवैया तो नहीं ही थमा. अब सुप्रीम कोर्ट ने गोरक्षा के नाम पर हिंसा और हत्या की बढ़ती घटनाओं पर सख्ती दिखाई है. कोर्ट ने इसे रोकने के लिए देश के हर जिले में एक नोडल अफसर तैनात करने का हुक्म दिया है. कोर्ट ने राज्यों को निर्देश दिया है कि हर जिले में एक सीनियर पुलिस अफसर को नोडल अधिकारी बनाया जाये.
गौरी के कुछ करीबियों का कहना है कि उनकी विचारधारा, लेखों और भाषणों के चलते उन्हें हत्या की धमकियां मिल रही थीं. ये धमकी देने वाले कौन लोग हैं इन्हें समझना जरूरी है.
फेक न्यूज को लेकर गौरी लंकेश की चेतावनी
गौरी ने हाल ही में राणा अय्यूब की किताब 'गुजरात फाइल्स' का कन्नड़ में अनुवाद किया था. राणा अय्यूब भी खास विचारधारा के लोगों के विरोध के चलते निशाने पर बनी रहती हैं.
गौरी लंकेश ने आगाह किया था...
इसके साथ ही केरल में मची मारकाट और बाकी हत्याओं का फर्क भी समझना होगा. ये सिर्फ आइडियोलॉजी को प्रोटेक्ट करने या उसके लिए मर मिटने की कोई राष्ट्रवादी सोच नहीं - ये किसी खास नाम पर चोला ओढ़े संगठित अपराधियों के गिरोह का कारनामा है - जिसे समझना होगा.
मुश्किल ये है कि आइडियोलॉजी पर सियासत शुरू होती है और फिर वहीं खत्म हो जाती है. आइडियोलॉजी की आड़ में हो रही आपराधिक गतिविधियों पर किसी का ध्यान नहीं जाता. अगर थोड़ी देर के लिए जाता भी है तो किसी न किसी तरीके से उसे चालाकी से हटा दिया जाता है.
सरकार पुलिस के जरिये समझा सकती है कोई किसी की हत्या कर दे - इसे रोका नहीं जा सकता. तो कौन इस पर सवाल उठाता है? अब पुलिस से कोई बच्चे के लिए दूध और दवा लाने की भी अपेक्षा नहीं रखता. चौराहों और नाकों पर एंट्री फीस को भी लोग बर्दाश्त कर ही चुके हैं.
गौरी लंकेश की हत्या कोई आम हत्या नहीं है. ये तो एक संगठित अपराध का हिस्सा है. भाड़े का हत्यारा कोई भी हो सकता है, लेकिन गिरोह का सरगना अलग तो नहीं होगा, इसमें कोई शक नहीं है. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी और गौरी के हत्यारों के नाम अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन सभी के टारगेट एक जैसे ही लोग हैं - जिन्हें चुन चुन कर खत्म किया जा रहा है. गौरी लंकेश की हत्या की असल वजह अभी नहीं मालूम. फिर भी जो कड़ियां आपस में जुड़ रही हैं उनसे लगता यही है कि किसी खास वैचारिक झुकाव और किसी खास विचारधारा के विरोध की कीमत चुकानी पड़ी है.
समझ में नहीं आ रहा है कि आइडियॉलजी में अपराध घुस आया है, या अपराध को आइडियॉलजी का संरक्षण मिल रहा है या फिर दोनों का कोई ऐसा घालमेल है जिसे दोनों पक्ष एक दूसरे का इस्तेमाल या एक्सप्लॉयट कर रहे हैं? असलियत जो भी और शायद ही कभी सामने आ पाये - क्योंकि सत्ता पर काबिज होने और उसे कायम रखने के लिए किसी न किसी रूप में गुरमीत जैसों की परवरिश और प्रोटेक्शन की भी जिम्मेदारी निभानी ही है. गुरमीत रामरहीम के बाद गौरी लंकेश को भी लोग भूल जाएंगे - तब तक कोई और मामला उछाल दिया जाएगा. नया इंडिया बनाना है तो कुर्बानियां तो लेनी-देनी ही होगी - बिलकुल भूल-चूक की ही तरह!
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