BJP-SP को जिताने-हराने वाली ताकतों का मंसूबा समझिए, राजनीति समझ जाएंगे!
यूपी की राजनीतिक तस्वीर समझना बहुत मुश्किल नहीं है. उसे हिंदुत्व, महंगाई, गरीबी, बेकारी, कोरोना आदि-आदि चीजों में मत तलाशिए. जमीन पर लोगों से बात करिए. पता चल जाएगा. कोई क्यों जीत रहा है या कोई क्यों हार रहा है.
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उत्तर प्रदेश में चल क्या रहा है और तस्वीर आखिर है क्या? इस वक्त अगर यूपी चुनाव को लेकर आम लोगों से बातचीत की जाए तो लोग एक क्षण में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनवाते हैं. दूसरे क्षण अखिलेश यादव, तीसरे क्षण कहने लगेंगे- बसपा कांग्रेस को बिल्कुल कमजोर मत आंकिए. विधानसभा भंग रहेगी. त्रिशंकु. और चौथे पल यह भी बताना नहीं भूलते- "जीते चाहे जो, पर आएगी तो बीजेपी ही." पूछिए- कैसे? प्रक्रिया और पूरी डिटेल सामने रख देंगे. जाहिर है कोई भी यूपी की तस्वीर समझने की बजाए जलेबी में फंस जाएगा. जबकि यूपी का चुनाव भले पेंचीदा दिख रहा हो, मगर ऐसा बिल्कुल नहीं कि चीजें बहुत धुंधली हैं और उसे खुली आंखों से देखा ही नहीं जा सकता.
यूपी में भले कई क्षत्रप हों मगर जो सबसे साफ़ आवाज निकल रही है- वो भाजपा-सपा को जिताने-हराने की. कुछ लोग भाजपा को जिताना चाहते हैं और कुछ लोग हराना. ठीक इसी तरह सपा को भी. लेकिन भाजपा-सपा को जिताने-हराने के पीछे का उनका मंसूबा राजनीतिक होने की बजाय निजी ज्यादा है. अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग ढंग से.
उदाहरण के लिए यूपी का मुसलमान किसी भी सूरत में भाजपा को हारते देखना चाहता है. उसे सपा की हार से ज्यादा फर्क भाजपा की जीत से पड़ रहा है.
काशी में नरेंद्र मोदी.
प्रासंगिकता गंवा चुके हैं मुसलमान
मुसलमानों की वजहें निजी हैं. नागरिकता क़ानून, तीन तलाक, राम मंदिर, काशी विश्वनाथ, मथुरा आदि-आदि की वजह से भाजपा से नाराज है. असल में 6 दिसंबर 1992 में बाबरी ढहने के बाद से ही मुसलमानों ने तय कर लिया है कि सिर्फ भाजपा को हराना है. महंगाई, बेकारी, अशिक्षा, आरक्षण के दायरे से दलित मुसलमानों का बाहर होना, पसमांदा मुसलमानों की चिंताओं या फिर विधानसभा लोकसभा में मुसलमानों की भागेदीरी को लेकर उसने कभी सवाल ही नहीं पूछे. उसने कभी सवाल नहीं पूछा कि सरकारी नौकरियों में उसकी हिस्सेदारी लगातार न्यूनतम क्यों होती जा रही है. जबकि पिछले तीस साल से सभी गैर भाजपाई सरकारें उसकी देन है. कम से कम यूपी में तो नहीं ही पूछा. जो पार्टियां मुसलमानों का वोट लेने दौड़ी ना तो उन्होंने कुछ किया भी नहीं.
ये सिर्फ इसलिए है कि मुसलमानों ने इन चीजों को कभी बड़ा मुद्दा ही नहीं माना. या यह भी हो सकता है कि पार्टियों ने मुसलमानों का ध्यान ही इस ओर जाने नहीं दिया. उन्हें बस बीजेपी सरकारों को "ढहाने" में लगाए रखा. यहां तक कि पांच साल पहले अखिलेश राज में मुसलमानों ने सबसे बड़ा दंगा झेला. कैम्पों में रहे, लेकिन चुनाव में उनके लिए यह भी कोई ख़ास मुद्दा नहीं है. 2017 में भी मुसलमानों के लिए मुद्दा नहीं बन पाया था तो अब क्या ही होगा. बाबरी के बाद मुसलमानों ने जिस तरह भाजपा को हराने की कसम उठाई है- लगातार राजनीतिक अवसरवाद का शिकार होते रहे हैं.
इसका खामियाजा यह रहा कि 2014, 2017 और 2019 के यूपी चुनावों के बाद राजनीतिक प्रासंगिकता लगभग गंवा चुके हैं. मुसलमान 30 साल से लगभग ऐसे ही वोट दे रहा है- भाजपा को हराने वालों के साथ जाना है. कोई भी हो- उसे शिवसेना को भी वोट देने में कोई गुरेज नहीं.
सपा के बेस वोट से कहीं ज्यादा वोट मायावती के नेतृत्व में बसपा के पास है. और निश्चित ही कुछ जगहों पर कांग्रेस के पास भी है. 2022 के चुनावों में भी अगर मुसलमानों का वोट पैटर्न नहीं बदला तो वह निश्चित ही बसपा और कांग्रेस के पास भी जाएगा. तो यूपी चुनाव में मुसलमानों को सिर्फ सपा के खूंटे की गाय ना माना जाए.
योगी आदित्यनाथ.
सपा को कौन और क्यों हराना चाहता है?
अब सपा को हराने वाली ताकतों से बात करिए. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार ने उनके लिए काम किया या नहीं. दो तरह की ताकतें सपा को हारते देखना चाहती हैं. एक तो इसमें धार्मिक कट्टरता का शिकार समूह है जिन्हें लगता है कि मोदी और योगी की जोड़ी ने मुसलमानों को अच्छा सबक सिखाया है. उसमें ज्यादातर सवर्ण जातियां और बाकी खाया-अघाया ओबीसी समुदाय का संपन्न तबका है. हैरान मत होइए. इसमें व्यापक रूप से यादव समुदाय भी है जो पिछड़ा होने की बजाय अब हिंदू के रूप में खुद को ज्यादा सहज पाने लगा है.
सपा को हारता देखने वाली दूसरे तरह की ताकतों में राजनीतिक रूप से दलित-पिछड़ों की असंगठित जातियां हैं. यूपी के समाज की ऐसी जातियां जिनके पास मसल पावर नहीं है. जिनकी अपनी पार्टियां नहीं हैं या हैं तो कोई करिश्मा दिखाने लायक नहीं. यूपी में एक नैरेटिव चलता रहता है- "सपा की सरकार आती तो मुसलमानों की वजह से है मगर जाती सिर्फ यादवों की वजह से हैं." सपा सरकार में जमीन कब्जाने, मारपीट, दबंगई के मामले ज्यादातर छोटी जातियों के साथ हुए और ज्यादातर मामलों में आरोप सपा के काडर पर ही आया.
अब यह प्रोपगेंडा है या सच- लेकिन सपा सरकार में जाति विशेष गुंडागर्दी, मुद्दा ना होते हुए भी हमेशा बड़ा मुद्दा बनती रही. योगी से पहले मायावती ने भी सिर्फ इसी मुद्दे पर भाजपा-सपा समेत सभी को रौंद दिया था और 2017 में अखिलेश की भयावह विदाई के पीछे भी यही मुद्दा बड़ा था. मोदी समेत भाजपा के नेता बार बार भाषणों में इसका जिक्र बिना वजह नहीं कर रहे.
अखिलेश यादव
जाति के परंपरागत कागजी समीकरण यूपी में मत तलाशिए
उदाहरण के लिए ओमप्रकाश राजभर ने भले ही अखिलेश के साथ गठबंधन कर लिया हो, मगर पूर्वी यूपी के इलाकों में राजभर, यादवों का सामजिक तानाबाना बहुत ठीक नहीं है. वैसे ही जैसे कभी ब्राह्मण-ठाकुरों के निशाने पर हुआ करते थे. दर्जनों जातियां सिर्फ निजी वजहों से चाहती हैं कि कोई आए पर अखिलेश नहीं. स्वाभाविक है कि यहां हिंदुत्व का शोर नहीं, विकास का मुद्दा नहीं और जाति के परंपरागत कागजी समीकरण भी नहीं दिखते जिसे बीजेपी ने राज्य के पिछले तीन चुनावों में बेमतलब साबित कर दिया है.
भाजपा के झंडे में जो गैर यादव ओबीसी जमावड़ा दिख रहा है उसे भले ही "हिंदुत्व" की शक्ल दी जाए मगर हकीकत में वह निजी जरूरतों के लिए डरी हुई कमजोर जातियों का जमावड़ा है. नरेंद्र मोदी, केशव मौर्य या भाजपा के अन्य गैर यादव ओबीसी चेहरों ने उसे हिंदुत्व का सैद्धांतिक जामा भर दिया है बस.
मोदी का चेहरा यूपी में अचानक से फिर इतना बड़ा क्यों दिखने लगा है?
यूपी को लेकर एक निजी बातचीत में किसी ने मुझसे दो बड़े सवाल किए एक तो ये कि यूपी में योगी-केशव मौर्य के होने के बावजूद बीजेपी नरेंद्र मोदी को ही चेहरा क्यों बना रही है और दूसरा ये अब तक बीजेपी, कांग्रेस पर हमलावर थी, मगर अयोध्या और काशी में सक्रियता दिखाने के बाद बीजेपी के निशाने पर अखिलेश ही क्यों हैं? सपा नेताओं पर आयकर विभाग के छापे भी इसे पुख्ता करते हैं. बीजेपी के इस मूव से तो यही आभास हो रहा कि उसकी सीधी टक्कर सिर्फ अखिलेश के साथ है. यह सच है कि सीधी लड़ाई में नुकसान बीजेपी का ज्यादा है. अब सवाल है कि बीजेपी जानबूझकर ऐसा नुकसान क्यों उठा रही है?
दरअसल, बीजेपी का यह मूव चुनाव तक अपने उस जुटान को सुरक्षित करना है जो किसी भी सूरत में सपा का सरकार नहीं देखना चाहती. सपा नेताओं पर दबाव से जिसे दिली खुशी होती है. जो अतीक अहमद का मकान ढहाने पर खुश होता है. मुसलमान सपा के साथ एकमुश्त नहीं जा रहे लेकिन उनके "एकमुश्त" जाने के शोर से सपा की मजबूती का आभास ज्यादा होता है. यानी मुसलमानों की गोलबंदी. यूपी में ये संभावना जितनी गहरी नजर बनी रहेगी- भाजपा उतना ही मजबूत होगी.
दिल्ली से गोरखपुर तक इसीलिए सिर्फ मोदी के चेहरे को आगे किया जा रहा है. यह योगी बनाम मौर्य के झगड़े में पिछड़ा बनाम सवर्ण की लड़ाई को भी कमजोर करने के लिए है. चुनाव में मोदी के चेहरे का इस्तेमाल उन संकेतों में भी गिना जा सकता है जिसमें कहा जा रहा है कि केशव मौर्य की ताजपोशी हो सकती है. या फिर योगी, को दिल्ली में बड़ी जगह मिल सकती है. प्रधानमंत्री का पद भी.
मोदी के चेहरे का इस्तेमाल इसलिए भी हो सकता है कि 2019 के बाद ऐतिहासिक काम मोदी ने किए लेकिन कोरोना महामारी ने सभी पर पानी फेर दिया. अर्थव्यवस्था संकट में दिखी. भला विकास और हिंदुत्व के पोस्टर बॉय मोदी की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए यूपी में एक रिकॉर्डतोड़ जीत का श्रेय मोदी की कप्तानी को देने से बेहतर उपलब्धि और क्या हो सकती है. यूपी में नरेंद्र मोदी ही अपने आप में सबसे बड़ा मुद्दा हैं. भाजपा के लिए सबसे बेहतर और सुरक्षित.
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