1965 युद्ध का वो अद्भुत अध्याय...
मैं आपको इस लड़ाई से ही जुड़ी एक सबसे असाधारण कहानी के बारे में बताता हूं. यह कहानी तो असाधारण है लेकिन इसके बारे में बहुत कम बात हुई है.
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यह पाकिस्तान के साथ 1965 में हुई जंग के 50 साल पूरे होने और इसके कुछ दिलचस्प पहलुओं के बारे में लिखी मेरी सीरीज का ही एक और हिस्सा है. चलिए, मैं आपको इस लड़ाई से ही जुड़ी एक सबसे असाधारण कहानी के बारे में बताता हूं. यह कहानी तो असाधारण है लेकिन इसके बारे में बहुत कम बात हुई है.
पाकिस्तान ने पंजाब में मौजूद भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के तीन महत्वपूर्ण एयरबेस- पठानकोट, हल्वारा (लुधियाना के नजदीक) और आदमपुर (जालंधर के नजदीक) पर कब्जा करने के इरादे से पैरा-कमांडो भेजे थे.
वह 6 और 7 सितंबर की दर्म्यानी रात थी. 6 सितंबर को पाकिस्तानी वायु सेना (PAF) ने इन जगहों पर कई हमले किए और बड़े पैमाने पर पठानकोट को नुकसान पहुंचाने में भी सफल रहे. भारतीय वायुसेना (IAF) इन हमलों से पहले ही बैकफुट पर थी. और रात में पाकिस्तानी दल अपने कमांडो को भारतीय जमीन पर उतार कर उसका पूरा फायदा उठा लेना चाहते थे.
वह पैराट्रूपर्स का कोई छोटा-मोटा दल नहीं था. उसमें c-130 हर्क्यूलस एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल किया गया था. भारत के पास तब रात में लड़ सकने वाले फौजी नहीं थे और पाकिस्तान ने 60 पैराट्रूपर के तीन अलग-अलग ग्रुप भारतीय जमीन पर उतार दिए. हर ग्रुप का नेतृत्व एक या दो सेना अधिकारियों और जूनियर कमिशन अधिकारियों के हाथ में था.
सबसे पहले पठानकोट ग्रुप के बारे में पता चला. उन पाकिस्तानी कमांडरो को जहां उतारा गया था, वे बड़े आराम से उससे काफी दूर आ चुके थे. लेकिन तड़के करीब 2.30 बजे एक गांव वाले ने उन्हें देख लिया. इसके कुछ देर बाद ही हल्वारा ग्रुप के बारे में भी पता चल गया. जबकि आदमपुर ग्रुप तो एयरबेस के करीब-करीब अंदर उतरा था और बड़ा नुकसान पहुंचा सकता था. हालांकि, पंजाब सशस्त्र पुलिस दल की कोशिशों से एयरबेस बाल-बाल बचा. किसी ने नहीं सोचा था कि पाकिस्तानी ऐसी रणनीति अपनाएंगे और खुद को खतरे में डालेंगे.
पाकिस्तान ने पेपर पर तो योजना बहुत शानदार बनाई थी. कुछ हद तक वे इसमें सफल भी रहे. यह भारत के लिए खतरनाक भी साबित हो सकता था. खासकर पठानकोट में भारत को हवाई और जमीनी स्तर पर बड़ा नुकसान होता.
लेकिन पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड देख लीजिए. चांब से लेकर पठानकोट और पैरा-कमांडो हमला, या कच्छ से खेम करन और फिर कारगिल तक. उनकी योजनाएं तो अच्छी होती हैं लेकिन उसे अमलीजामा पहनाने में वे हमेशा नाकाम होते हैं और यही कारण है कि उन्हें हमेशा उसका नुकसान उठाना पड़ा है.
यह दिलचस्प है कि कैसे 50 साल पहले के उस जंग में एक हिस्सा यह भी है जिसके बारे में दोनों ओर के जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान का वह ऑपरेशन बुरी तरह से असफल रहा था.
उस ऑपरेशन में पाकिस्तान ने अपने 180 पैरा-कमांडों को भारतीय जमीन पर उतारा था. उनमें पाकिस्तानी अधिकारियों सहित 138 सैनिकों को बंदी बना लिया गया जबकि 22 सैनिक मारे गए.
केवल 20 पैरा-कमांडों के बारे में जानकारी नहीं मिल सकी. वे जरूर अंधेरे का फायदा उठा कर पाकिस्तान भागने में कामयाब रहे. इनमें से ज्यादातर पठानकोट ग्रुप के थे जिन्हें बॉर्डर से 10 किलोमीटर अंदर ही उतारा गया था. उन्हें जिस क्षेत्र में उतारा गया वह गड्ढों और पानी से भरा इलाका था जिससे उन्हें पीछे भागने में आसानी हुई. हल्वारा ग्रुप के कमांडर मेजर हजूर हसनैन के भागने की पुख्ता जानकारी मिली जो गौर करने लायक है. उसने आईएएफ की जीप हाइजैक की और किसी तरह अपनी जान बचाने में कामयाब रहा. मैंने यह आंकड़े लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की किताब से लिए हैं लेकिन पाकिस्तान के अपने आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं.
खुद पाकिस्तान में 1965 की जंग के जीत के दावे और उत्सव मनाने के दौरान उन्होंने माना कि पैरा-कमांडो अटैक की रणनीति एक बड़ी गलती थी. कुछ कमांडरों की जिद और खराब योजना के कारण ऐसा हुआ. कुछ पूर्व पाकिस्तानी सैनिकों ने इस बारे में लिखा भी है. वे इस हमले में शामिल पैराट्रूपर्स से भी मिले और बताया कि पूरी योजना में कितनी गलतियां थी. उदाहरण के लिए कर्नल एसजी मेहंदी जो उस समय खुद एक कमांडो ऑफिसर थे, पैरा-कमांडो हमले पर उनके विचार को यहां देखा जा सकता है.
उस हमले ने भारतीय खेमे में खलबली मचा दी थी. जल्द ही पुलिस, गांव वालों, एनसीसी कैडेट और खच्चर चलाने वाले कुछ लोगों को मिलाकर एक खोजी दस्ता तैयार किया गया. हवाई क्षेत्र की रक्षा को पक्का किया गया. इन सबके बीच सुबह का समय हो चला था और मुठभेड़ भी समाप्ति की ओर था.
हालांकि, पाकिस्तानी खेमे का मानना था कि उस हमले ने भारतीय मुख्यालय में भ्रम फैलाने का काम किया और इस कारण भारत ने अपने 14 इंफेंटरी डिविजन को लाहौर से सियालकोट सेक्टर की ओर भेज दिया ताकि पैराट्रूपर वाले मामले से निपटा जा सके. कुछ उत्साही पाकिस्तानी तो यह कहते हैं कि 14 डिविजन को सियालकोट की ओर भेजे जाने के क्रम में उन्हें हाईवे पर रोक लिया गया और पीएएफ ने दिन के समय उन पर हमला किया.
इस बारे में भारत की ओर से कोई पुष्टि नहीं मिलती. हरबख्श सिंह ने भी बताया है कि पीएएफ द्वारा बहुत कम संख्या में भारतीय गाड़ियों को नुकसान पहुचाया गया. हम अभी जिस विषय पर बात कर रहे हैं, यह बात उससे थोड़ी अलग हो सकती है. लेकिन यह घटना शायद अन्ना हजारे के अपने उस बढ़ा-चढ़ा के रखे विवरण से भी मेल खाती है जिसके बारे में वह कहते रहे हैं कि उस जंग में जब वह पंजाब के हाईवे पर सैन्य गाड़ी चला रहे थे और पीएएफ ने हमला किया तब बचने वालों में एकमात्र वही रहे.
हड़बड़ी, अहंकार और गलत रणनीति से पाकिस्तान ने तब अपने कुछ बेहतरीन कमांडो खो दिए. जबकि कुछ एनसीसी कैडटों, पंजाब पुलिस, साधारण गांव वालों और जानवरों की देखभाल करने वाले कुछ भारतीय लोगों ने एक मुश्किल जंग आसानी से जीत ली.
उस वाक्ये की यह तस्वीर जो यहां vayu-sena.tripod.com. से ली गई है, उस सफलता की गवाह है. यह तस्वीर उतनी साफ नहीं है लेकिन इससे यह पता चल जाता है कि यहां क्या हो रहा है और कैसे साधारण हथियारों से लैस कुछ भारतीय, पुलिस के जवान और आम नागरिक पाकिस्तानी दल की खोज में जुटे हैं.
(यह लेख शेखर गुप्ता के फेसबुक वाल से लिया गया है)
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