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Updated: 29 जनवरी, 2022 07:16 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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सोचिए कि लड़की वाले बारात की अगवानी के लिए दरवाजे पर खड़े हैं. उधर, बारात में शामिल लड़के के फूफा, मौसा, मामा अचानक बिना वजह नाराज हो जाते हैं. घरवाले उनकी मनुहार में लग जाते हैं और बारात के समय पर पहुंचने की कोशिशें भी करते रहते हैं. कल्पना करना मुश्किल नहीं कि उस वक्त दूल्हें और उसके परिजनों पर क्या गुजर रही होगी? जनवरी पहले हफ्ते के बाद जिस वक्त यूपी में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो रहा था, भाजपा के साथ करीब-करीब ऐसा ही हुआ. कहां तो एकतरफा जीत की उम्मीद में भाजपा चुनावी ऐलान के साथ सभी तैयारियों को निपटा चुकी थी. लेकिन एक दिन पहले तक सार्वजनिक रूप से योगी सरकार के कामकाज की तारीफ़ करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य दूल्हे के फूफा साबित हुए और भाजपा पर दलित-पिछड़ों की अनदेखी का आरोप लगाकर सपा के साथ जाने की घोषणा कर दी. उनके साथ पार्टी के कुछ और ओबीसी चेहरे थे.

लखनऊ से दिल्ली तक सियासी गलियारों में खलबली मच गई. जो भाजपा अजेय दिख रही थी एक हलचल भर से उसकी चूलें हिलती नजर आईं. अखिलेश यादव के नेतृत्व में उनका गठबंधन अचानक से बीस दिखने लगा. अखिलेश पर यूपी भाजपा के नेताओं की प्रतिक्रिया से भी यही आभास हुआ कि 2022 के विधानसभा चुनाव का एजेंडा अब अखिलेश सेट करते जा रहे हैं और भाजपा सिर्फ रिएक्ट कर रही है. तारीखों के ऐलान के करीब-करीब दो हफ्ते बाद तक भाजपा अखिलेश से पीछे पीछे ही नजर आ रही थी. लेकिन फर्स्ट फेज की पोलिंग से ठीक पहले निर्णायक दौर में यह पहला मौका है जब भाजपा एजेंडा सेट कर रही है और रिएक्ट करने की बारी अखिलेश यादव की है. निश्चित ही भाजपा के भीतर-बाहर इसका श्रेय सिर्फ अमित शाह को दिया जा सकता है.

amit-shah-up-west_65_012922052603.jpgअमित शाह

निर्णायक दौर में अमित शाह ने जिस तरह से जाटों को पुचकारा है- उसने अखिलेश के गठबंधन की नींद तो उड़ा दी है. शाह ने जाटों की भाजपा से नाराजगी को घर का झगड़ा करार दिया और स्वीकार कर रहे कि भाजपा की तरफ से कुछ मोर्चों और गलतियां हुई हैं. उन्होंने जयंत चौधरी को भी ऑफर दे दिया. शाह ने एक ही तीर से दो निशाने साधे. (किस तरह अगर पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कर सकते हैं.) सियासी गलियारे में शाह के मूव की अहमियत क्या है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं. वह दिख भी रहा है. चुनाव से ठीक पहले केंद्रीय गृहमंत्री ने जाट नेताओं के साथ दिल्ली में बड़ी बैठक की और हलचल सीधे अखिलेश और जयंत चौधरी के खेमे में हुई.

क्यों मुजफ्फरनगर में अखिलेश-जयंत को सफाई देने आना पड़ा  

एक ही दिन बाद गठबंधन के दोनों नेता मुजफ्फरनगर में प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए पहुंचे और सफाई देते दिखे. हालांकि सफाई में शाह की काट की बजाय पुराने राग ही नजर आए. जयंत ने शाह के ऑफर को पहले ही खारिज कर दिया था मगर एक दिन बाद दोनों नेताओं का जुटना स्पष्ट संकेत है कि पश्चिम में शाह की कोशिशों के मायने क्या हैं? जयंत चौधरी ने साफ़ कहा भी कि यह फूट डालने और गुमराह करने की भाजपाई साजिश है. अखिलेश ने भी किसान आंदोलन के बहाने पुराने जख्म कुरेदकर मरहम लगाने की कोशिश की. दोनों नेताओं के पास पश्चिम में उस तकलीफ का कोई इलाज नहीं दिखा जो शाह के बयान से मिलती दिख रही है.

शाह को उनके मकसद में कामयाब माना जा सकता है और निश्चित जी इसका असर नतीजों में दिखेगा. दरअसल, पश्चिम में सपा ने फूंक-फूंककर कदम रखें और जाटों को गठबंधन के साथ बनाए रखने के लिए बहुतायत मुस्लिम चेहरों से परहेज किया. यहां तक कि मुजफ्फरनगर में भी उन्हें लगभग इग्नोर कर दिया गया.

सपा के 85:15 की लड़ाई में मायावती की चुनौती से ही पार पाना मुश्किल

दूसरी तरफ बसपा ने सपा की इसी दुखती नस को अपना सबसे बड़ा चुनावी हथियार बना लिया है. पश्चिम में पहले दो चरणों के लिए बसपा ने सबसे ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशी तो मैदान में उतारे ही- ओबीसी वर्ग को भी गुणा गणित के साथ हिस्सेदारी दी है. भाजपा के खिलाफ चुनाव को 85:15 की शक्ल देने में मायावती सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ी हो गई हैं. उसपर सपा के लिए मुजफ्फरनगर के बाद जाट-मुसलमानों के बीच दरार का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. जाट, ज्यादातर जयंत के साथ ही हैं. मगर यह आशंका बार बार जताई जा रही कि वे सपा के साथ नहीं जा रहे. सपा के पक्ष में मुस्लिम गोलबंदी भी जाटों को रालोद के अलावा गठबंधन में जाने से रोकती नजर आ रही है. भाजपा की असल पिच भी यही है.

अमित शाह ने कैराना और ब्रज में जिस तरह डोर टू डोर कैम्पेन किया और हिंदू मुस्लिम मुद्दे को हवा दी उसने हवा के रुख में काफी बदलाव किया है. समीकरणों की वजह से अचानक से सपा का जीत की संभावना ने भी एक तरह से भाजपा की मदद की है. इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिम में इस बार भाजपा को वोट करने वाली तमाम हिंदू जातियां नाराज थीं. लेकिन ये जातियां अब सिर्फ इसलिए उसके पास वापस आ रही हैं कि कहीं सपा फिर सत्ता में ना आ जाए. भाजपा के नेता पश्चिम में सबसे ज्यादा इसी बिंदु पर अपनी बात रख रहे हैं.

क्या स्वामी के जख्म से उबर चुकी है भाजपा?

स्वामी प्रसाद एपिसोड से भाजपा लगभग उबर चुकी है. शाह के मैदान में आने के बाद भाजपा को कई फ्रंट पर कामयाबी मिली है. अपर्णा सिंह बिष्ट के भाजपा में आने का भले ही पार्टी को बहुत फायदा ना मिले, लेकिन रणनीतिक रूप से भाजपा यह मैसेज देने में कामयाब हुई है कि जो अखिलेश- परिवार तक को साथ नहीं रख पा रहे भला वो गठबंधन या सरकार क्या ही चलाएंगे. भाजपा का काडर भी अखिलेश के खिलाफ इस तथ्य को बहुत जोर-शोर से रखता दिख रहा है. पिछले चुनाव में अखिलेश के खिलाफ यह प्रचार (दुष्प्रचार) भी मुद्दे की तरह दिखा था. दूसरा- आरपीएन सिंह के आने के बाद भाजपा स्वामी प्रसाद से हुए नुकसान की भरपाई बहुत हद तक करते नजर आ रही है.

यहां तक कि स्वामी की बेटी भी तमाम इंटरव्यूज में पीएम मोदी की तारीफ कर रही हैं. पिता से अलग खुद को सनातनी बता रही हैं. भाजपा ने विरोध करने वाले तमाम नेताओं (जाट भी) पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं की है. यह स्वामी के आरोपों से भाजपा को कुछ कुछ बरी करने जैसा ही माना जा सकता है.

क्या भाजपा अपने अंदर ही एक विपक्ष तैयार कर रही जो भविष्य में उसके लिए खतरा है

जबकि स्वामी का पिछड़ा नारा- अवसरवादी नेता के बोझ में दबाता भी दिख रहा है. भाजपा उन्हें मौक़ापरस्त साबित करने की भरपूर कोशिश में हैं. भाजपा सरकार की तारीफ़ वाले उनके कई इंटरव्यू वायरल हैं. हमारे सहयोगी चैनल आजतक के साथ एक हालिया इंटरव्यू में उन्होंने अपने मंत्रालय का डेटा साझा करते हुए दावा किया कि श्रमिकों के कल्याण को लेकर जो कम अब तक नहीं हुए, भाजपा सरकार के पांच साल के कार्यकाल में किए गए. स्वामी खुद सवालों में हैं. हो सकता है कि ओबीसी के मुद्दे पर भाजपा पार्टी के अंदर ही पक्ष और विपक्ष तैयार करने की कोशिश हो. केशव और योगी के झगड़े को इससे जोड़कर देखा जा सकता है. भाजपा की कोशिश है कि गैरयादव ओबीसी मतों का आधार दूसरे दलों की बजाय उसके अपने नेताओं के साथ जुड़ा रहे.

इस वक्त यूपी में बीजेपी के कैम्पेन को देखें तो मौजूदा तस्वीर भी दो हफ्ते पहले जैसी बिल्कुल नहीं है. स्वामी एपिसोड के बाद योगी आदित्यनाथ के चेहरे को बहुत फीका किया गया है. योगी की तुलना में स्वतंत्र देव सिंह और केशव मौर्य किसी भी रूप से कम सक्रिय नहीं नजर आ रहे. हो सकता है कि यह भाजपा की रणनीति हो, मगर चुनाव बाद उसके अंदर का काडर नेतृत्व परिवर्तन की बातें दोहरा रहा है. मोदी-शाह के हाथ में चुनाव की कमान होना साफ़ संकेत है कि अगर यूपी भाजपा जीतती है तो इसका श्रेय योगी के खाते में तो बिल्कुल भी नहीं जाने वाला है.

शाह के पहले तीर पर अखिलेश की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता जा सकता है कि सपा किस तरह चुनावी चक्रव्यूह में है. तरकश से अभी और तीर निकलेंगे और अब प्रतिक्रियाएं देने की बारी अखिलेश की होगी.

पश्चिम में 80:20 की लड़ाई का राजनीतिक एजेंडा सेट हो चुका है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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