तो क्या मौजूदा वक़्त में अब 'नोटा' भी एक प्रत्याशी है ?
'नोटा' वह प्रत्याशी है जिसका न तो स्वयं कोई अस्तित्व है और न ही इसकी कोई पार्टी है.फिर भी वोट इसे अब मिलने लगे हैं. कल्पना कीजिए राजनीतिक पार्टियों से उकता गए वे सब वोटर बूथ का रुख़ कर लें और 'नोटा' का बटन दबा दें तो क्या होगा?
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अंधेरी पूर्व के उपचुनाव के नतीजे आये हैं. जहां शिवसेना (उद्धव) के प्रत्याशी की जीत तो हुई लेकिन अदृश्य प्रत्याशी 'नोटा' को भी 11569 वोट मिले. कह सकते हैं 'नोटा' का भविष्य उज्जवल है. ज़रूरत सिर्फ़ इतनी है कि वे सब जिन्होंने वोट दिए ही नहीं, आगे आएं और 'नोटा' पर बटन दबाएं. 'नोटा' वह प्रत्याशी है जिसका न तो स्वयं कोई अस्तित्व है और न ही इसकी कोई पार्टी है. फिर भी वोट इसे अब मिलने लगे हैं. कल्पना कीजिए राजनीतिक पार्टियों से उकता गए वे सब वोटर बूथ का रुख़ कर लें और 'नोटा' का गुलाबी बटन दबा दें तो क्या होगा ? अंधेरी पूर्व में वोटिंग हुई थी मात्र 32 फ़ीसदी. तो गुणा भाग करने वाले हिसाब लगा लें यदि बचे सभी वोटरों ने तमाम पार्टियों को दरकिनार कर 'नोटा' का 'गुलाबी' बटन दबा दिया? नोटा (नॉन ऑफ़ द अबव ) ने आशाएं तो हालिया यूपी चुनाव से ही जगा दी थी. क्या शहरी इलाके और क्या ही ग्रामीण इलाके, नन ऑफ द एबव ने उपस्थिति दर्ज करा ही दी थी. इसके पहले तक तो 'नोटा' के लिए प्यार कहें या स्नेह या उन गिने चुने शहरी लोगों की हताशा कहें कि वे अन्यथा बटन दबा देते थे. पहली बार यूपी के चुनावों में लखनऊ जिले के मलिहाबाद, बीकेटी, सरोजनीनगर और मोहनलालगंज के कुल 7804 ग्रामीण मतदाताओं ने 'नोटा' का बटन दबाया जबकि शहर की पांच विधानसभा में महज 6430 ने ही नोटा दबाया था.
हालिया दौर के तमाम चुनावों में नोटा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की है
सारी राजनीतिक पार्टियां चुनाव चिन्ह के लिए माथा फोड़ी करती हैं और इधर 'नोटा' बटन के गुलाबी रंग का जादू अब चलने लगा है. गुलाबी रंग वैसे भी प्रेम का रंग माना जाता है. यह अकारण नहीं है कि युवा मतदाता एनओटीए यानी नन ऑफ द अबव यानी नोटा के प्रेम में पड़ गए हैं. परीक्षाओं में विद्यार्थियों को अक्सर अंतिम विकल्प देखने को मिलता है- उपर्युक्त में से कोई नहीं यानी नोटा. इसका इशारा यह होता है कि ऊपर के सभी विकल्प गलत हो सकते हैं, जो कई बार सही भी निकलता है. लेकिन भारत के जनप्रतिनिधि चुनावों में इस्तेमाल होने वाला नोटा तो यकीनन यही संदेश देता है कि मतदाता की नजर में मतदान पत्र पर उल्लिखित सारे ही प्रत्याशी बेकार है, नाकारे हैं.
आखिर चुनावी प्रक्रिया क्या है ? अपना अपना मत जाहिर करना ही तो है किसी के पक्ष में या विपक्ष में मतदान करके. और जब सभी प्रत्याशी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं. किसी मतदाता की नजर में तो वो क्या करे ? ऐसे अधिकतर लोग मतदान करने निकलते ही नहीं. वे निकलें और अपना मत जाहिर कर पाएं कि कोई भी प्रत्याशी मंजूर नहीं है, इसी नेक इरादे से इलेक्शन कमीशन ने 'नोटा' को नामित कर दिया ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से लोकतंत्र को पता तो चले कि नेताओं की जमीनी हकीकत क्या है ?
कम से कम प्रत्याशियों को पता तो चले मतदाता उनके 'तेरी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा काली' सरीखे विमर्श से आजिज आ चुकी है. निःसंदेह यदि राजनीति का अपराधीकरण रोकना है और साथ ही जनता के आक्रोश को ठंडा करना है, 'नोटा' ही आईना दिखा सकता है बशर्ते शत प्रतिशत मतदान हो ताकि सबके मत जाहिर हों. यही एक डंडा है जो चलेगा तो बेलगाम राजनीति काबू में आएगी. वरना तो राजनीति पर्याय बन ही चुका है गुंडागर्दी का, पावर का, भ्रष्टाचार का.
राजनीति के लिए नया आईपीसी जो गढ़ लिया गया है नेताओं द्वारा कि यदि ‘मेरा भ्रष्टाचार किसी अन्य विरोधी नेता के भ्रष्टाचार से कम है भले ही इतिहास की बात हो गई हो, मैं स्वयंभू बाइज़्ज़त बरी हूं! अब चूंकि इतना तो तय हो चला है कि 'नोटा' की लोकप्रियता शनैः शनैः परवान चढ़ रही है. उम्मीद उस आदर्श स्थिति की जा सकती है जिसमें कम से कम दो चार चुनाव क्षेत्रों में माननीय प्रत्याशी 'नोटा' विजयी घोषित किए जाएं. यक़ीन मानिए ऐसा हुआ तो पूरी राजनीतिक जमात सुधर जाएगी.
राजनीतिक दल अब भी यदि 'नोटा' को सीरियसली नहीं लेते हैं तो वे बड़ी भूल कर रहे हैं. याद कीजिए पिछले तमिलनाडु चुनाव जब तमिलनाडु में एक एनजीओ टीएमयूके ने बाकायदा नोटा दबाने का अभियान चलाया और जागरूक किया कि भले ही किसी को अपना मत न दीजिए, लेकिन आपका मत कोई और न डाल दे इसलिए नोटा दबाने अवश्य पहुंचिए, तो राजनीतिक दलों के कान खड़े हो गए. अभियान का नतीजा यह निकला कि पूरे राज्य में 8 लाख से ज्यादा मत नोटा को चले गए और पांच अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों में 16 लाख से अधिक मतदाताओं ने नोटा की शरण ली.
हालांकि 'नोटा' से फिलहाल से कोई फर्क नहीं पड़ता नजर आता क्योंकि राइट टू रिजेक्ट जो नहीं है. इससे नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ता. यहां तक कि उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा के वोटों को जोड़ा-घटाया नहीं जाता. यद्यपि कानूनन नोटा को मिले मत अयोग्य मत हैं, इसके बावजूद नोटा के प्रति अतिउत्साह प्रदर्शित करके रोमांचित होने वाले युवाओं का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है. चूंकि हमारे देश में लगभग 65% मतदाता युवा हैं, इसलिए यह चलन शोचनीय एवं चिंतनीय है.
अनेकों बार पैरवी की गई है कि 'नोटा' कम से कम इतना धारदार तो हो कि जहां जीत का अंतर नोटा मत संख्या की तुलना में कम रहे और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे, जीत रिजेक्ट कर दी जाए. फर्ज कीजिए ऐसा हो जाए तो नेताओं को दिन में तारे नजर आने लगेंगे, चुनाव दर चुनाव नोटा की लोकप्रियता बढ़ जो रही है. आंकड़ों की बात करें तो पिछले विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में 8,31,835 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था, जो कुल मतदान का 1.5% था. तमिलनाडु में 5,57,888 नोटा दबाया तो केरल जैसे छोटे और साक्षरता संपन्न राज्य में 1 लाख 7 हजार लोगों ने नोटा चुना.
बिहार विधानसभा चुनाव में नोटा को 9 लाख 47 हज़ार 276 मत मिले जो कुल मतों का 2.5% था. लोकसभा चुनावों के दौरान करीब 60 लाख लोगों ने 2014 में पहली बार उपलब्ध हुए नोटा का विकल्प चुना था जो देश में 21 पार्टियों को मिले मतों से ज़्यादा था! अगर सभी 543 सीटों पर हुए मतदान पर नज़र डालें तो करीब 1.1% वोटरों ने नोटा का विकल्प चुना. आश्चर्य इस बात का भी है कि लोकप्रियता के शिखर पर बैठे तब के पीएम उम्मीदवार की वड़ोदरा सीट पर भी 18053 मत नोटा को गए थे और पूरे गुजरात में 5 लाख 54 हज़ार 880 मतदाताओं यानी 1.8% ने नोटा चुना था.
गुजरात विधानसभा चुनावों में नोटा मतों की संख्या कांग्रेस एवं भाजपा को छोड़कर किसी भी अन्य पार्टी के मतों की संख्या से अधिक थी. परंतु फिलहाल उम्मीद तो कम ही है कि 'नोटा' कुछ कर पायेगा चूँकि उच्चतम न्यायालय भी तो पक्ष में नहीं है. तभी तो नोटा को अधिक वोट मिलने चुनाव परिणाम को रद्द करने और दोबारा मतदान कराने के लिए निर्वाचन आयोग को निर्देश देने की मांग खारिज कर दी थी.
तर्क था कि चुनावी प्रक्रिया खर्चीली जो है. सो नामाकूल और नाकारा उम्मीदवार मंजूर है खर्च बचाने के लिए जबकि पता नहीं वह कितना कई गुना खर्च से ज्यादा चोट दे जाएगा देश को.सिर्फ दर्ज भर कराने के लिए युवा वर्ग के मध्य बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनजर 'नोटा' का होना अब तो अपेक्षित नहीं है.
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