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Updated: 19 अगस्त, 2016 05:16 PM
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गुजरात में दलितों की पिटाई के बाद अहमदाबाद में उनका भारी जमावड़ा. उसके बाद ऊना मार्च के तहत अस्मिता यात्रा - और फिर ग्राउंड जीरो पर जश्न-ए-आजादी का अलहदा आयोजन. दलितों के उत्थान के नाम पर हुई इस क्रांति के जरिये जताने की कोशिश तो यही है कि अच्छे दिन आने वाले हैं.

क्या वाकई इससे दलितों के अच्छे दिन आने वाले हैं, या एक बार फिर दलितों को ठगने की नई सियासी कवायद हो रही है?

ऊना आजादी क्रांति

ऊना मार्च के तहत आजादी का जश्न मनाने पहुंचे दलितों को सपोर्ट करने जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी पहुंचे थे. कन्हैया ने वहां भी आजादी की अपनी मांग दोहरायी - "हमें आजादी के मौके पर 'मोदीवाद' और 'मनुवाद' से आजादी चाहिए."

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जश्ने आजादी के इस मौके पर तिरंगा फहराया राधिका वेमुला और बालु सरवैया ने. राधिका वेमुला हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में खुदकुश करने वाले दलित छात्र रोहित वेमुला की मां हैं, जबकि बालु ऊना में पीटे गए दलितों में से एक के पिता हैं.

अस्मिता यात्रा की अगुवाई कर रहे जिग्नेश मेवाणी ने दलितों को गंदे काम से दूर रहने की शपथ दिलायी - शपथ का ये कार्यक्रम यात्रा के दौरान विभिन्न पड़ावों पर भी चलता रहा.

...और ऊना प्रस्ताव

उना दलित उत्पीड़न संघर्ष समिति ने इस मौके पर प्रस्ताव पास किया और दलितों को शपथ दिलायी कि आगे से वे न तो मरे जानवर उठाएंगे और न ही गटर साफ करेंगे. जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिये था वो अब हो रहा है. फिर भी कोई बात नहीं, जब उठे तभी सवेरा.

समिति की ओर से मांग रखी गई है कि दलितों को सरकार पांच-पांच एकड़ जमीन मुहैया कराये ताकि वे भी इज्जत के साथ जिंदगी बसर कर सकें. सरकार को इस बारे में एक्शन लेने के लिए तीस दिन का अल्टीमेटम दिया गया है.

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दलित रैली या सियासत...

समिति के संयोजक जिग्नेश मेवाणी ने कहा है कि अगर नरेंद्र मोदी सरकार उनकी मांगें पूरा नहीं करेगी तो वे अपना आंदोलन और तेज करेंगे. तेज आंदोलन में रेल रोको और जेल भरो जैसी मुहिम भी शामिल होगी.

26 साल के जिग्नेश मेवाणी गुजरात का दलित फेस बन कर उभरे हैं - और आगे बढ़ कर दलितों की आवाज बुलंद कर रहे हैं. मगर दलितों के हित में जो प्रस्ताव पारित हुआ है वो उनका कितना हितैषी होगा समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. प्रस्ताव के तहत उन्हें अपना काम बंद कर देने को कहा गया है. जिस तरह का माहौल है उसमें अगर वो काम जारी रखते तो भी मुश्किलों से कदम कदम पर जूझना पड़ता. जश्न-ए-आजादी के बाद जब वे लौट रहे थे तब भी उन पर हमला हुआ. पकड़े जाने पर हमलावरों ने पुलिस को बताया कि वो बदला लेना चाहते थे इसलिए ऐसा किया.

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मेवाणी ने उन्हें वही काम छोड़ने को कहा है जिसके लिए सरकार को कोई और इंतजाम करना चाहिए. ये कौन सी तरक्की है और विकास का मॉडल है कि इंसानों को गटर में घुस कर सफाई करनी पड़ती है - और अक्सर हादसे की खबरें भी आती रहती हैं.

बड़ा सवाल ये है कि अगर वो अपना काम छोड़ देंगे तो उन्हें तत्काल काम कौन मुहैया कराएगा? जिन्हें काम छोड़ने को कहा गया है उनकी आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होगी कि कुछ दिन घर बैठ कर दोनों वक्त पेट भर सकें.

अगर पेट ही नहीं भरेगा तो आंदोलन का क्या मतलब? कहीं ऐसा तो नहीं कि दलितों के नाम पर किसी सियासी दल का एजेंडा हो? गुजरात की बीजेपी सरकार के खिलाफ उनका इस्तेमाल किया जा रहा हो?

बीबीसी की एक रिपोर्ट में लिखा है, "कुछ जानकारों का मानना है कि 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मेवाणी आम आदमी पार्टी का नेतृत्व कर सकते हैं."

अगर वाकई ऐसी बात है तो, उसका तो मतलब यही हुआ कि दलितों को एक बार फिर सियासी टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.

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