क्या मोदी के एक्ट और शब्द नहीं भाव देखने चाहिए?
ऐसे मौके विरले आते हैं जब इंसानियत सियासत को मीलों पीछे छोड़ देती है. लेकिन ऐसा पल, पल भर के लिए ही आता है.
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आज तक की वेबसाइट पर एक खबर पर निगाह पड़ी - 'संसद में हंगामा कर रहे भगवंत मान को मोदी ने पिलाया पानी'. पहली नजर में हेडलाइन मुहावरेदार लगी, लेकिन, क्लिक करने पर कुछ और ही मालूम हुआ.
शब्दों के भाव
हेडलाइन तो सीधे सीधे घटना बता रही थी, मगर शब्द, भावों की ओर इशारा कर रहे थे. 'पानी पिला देना' - मुहावरे का जो अर्थ होता है, खबर को लेकर भी वही अंदाजा भी लगा.
घटना संसद की थी, इसलिए लगा बहस हुई होगी - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तर्कों से भगवंत मान की बोलती बंद कर दी होगी. वैसे भी हर चीज को लेकर मोदी का अलग नजरिया होता है. गिलास में जितना भी पानी हो उसमें उन्हें खालीपन का अहसास नहीं होता, बल्कि बाकी हवा भरी नजर आती है.
इस घटना के करीब 24 घंटे पहले ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोदी को 'हिंसक मनोरोगी' और 'कायर' तक करार दिया था. भगवंत मान आम आदमी पार्टी के ही सांसद हैं, इसलिए सारा कुछ ऑटो-कनेक्ट हो गया.
ये तो माना हुआ है कि देखा हुआ, सुना हुआ भी सच नहीं होता. अब समझ में आया पहली नजर में पढ़ा हुआ भी सच नहीं होता.
भाव भरे शब्द
हेडलाइन में जो शब्द हैं उसे पढ़ कर शायद भगवंत मान को भी वैसा ही अहसास होता, अगर वो वाकये के हिस्सेदार या उसके चश्मदीद नहीं होते. उस वक्त भगवंत मान को पानी की सख्त जरूरत थी. मोदी के खिलाफ नारेबाजी के दौरान ही उनकी तबीयत थोड़ी नासाज सी होने लगी. वो चारों ओर बेचैनी से देख रहे थे. मोदी को समझ आ गया कि भगवंत पानी के लिए परेशान हैं. मोदी ने अपना गिलास उठाया और उसका कवर हटाते हुए भगवंत की ओर पेश किया. भगवंत ने भी चुपचाप पानी पी लिया. फिर गिलास मोदी की ओर वापस बढ़ा दिया. मोदी ने गिलास को ढक कर वहीं रख दिया जहां से उठाया था.
नारेबाजी बंद होना लाजिमी था. जबान खामोश थे. इंसानियत से लबालब इस आदान-प्रदान में जबान की जगह आंखों ने ले ली थी. दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और मुस्कुराए. एक तरफ मदद का सुकून रहा होगा तो दूसरी तरफ आभार के भाव.
प्यास बुझते ही भगवंत मान फिर से सियासत की ओर लौट चुके थे. पानी पीते ही भगवंत मान ने नई ऊर्जा और शक्ति के साथ फिर से नारेबाजी शुरू कर दी.
ऐसे मौके विरले आते हैं जब इंसानियत सियासत को मीलों पीछे छोड़ देती है. लेकिन ऐसा पल, पल भर के लिए ही आता है.
क्या मोदी का इंटेशन वाकई वैसा नहीं होता जैसा नजर आता है? क्या मोदी की पुरानी छवि के चलते उनके हर शब्द में हर एक्ट में वही नजर आता है जो हकीकत से दूर होता है. बिहार चुनाव में मोदी ने शैतान की बात की तो लालू प्रसाद ने समझा कि वो उन्हें ही शैतान बोल रहे हैं - और यही बात उन्होंने अपने मतदाताओं को भी समझाई. ऐसे और भी कई मौके और बातें गिनाई जा सकती हैं.
सुबह मोदी को साइकोपैथ कहने वाले केजरीवाल भी शाम तक सशर्त माफी मांगने को तैयार नजर आ रहे थे. क्या केजरीवाल को अपने शब्द पर पछतावा हो रहा था? क्या लालू को भी ऐसा पछतावा हो रहा होगा? क्या सोनिया गांधी को भी ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा होगा? फीलिंग अपनी जगह है और पॉलिटिक्स अपनी जगह.
एक ही परिवार में दो लोग अलग अलग पार्टियों में होते हैं और सार्वजनिक तौर पर उसी हिसाब से उन्हें अपनी बात रखनी होती है. पप्पू यादव और उनकी पत्नी दोनों सांसद हैं. दोनों की पार्टियां अलग अलग हैं - तो क्या दोनों की सोच भी इससे प्रभावित होती है. क्या विजया राजे सिंधिया और माधव राव सिंधिया को भी कभी ऐसा लगा होगा?
ये बातें हमसे 'आज तक' के एक पाठक ने शेयर की. आज तक के उस पाठक के सवाल भी गौर करने लायक है - 'क्या मोदी के एक्ट और शब्द नहीं भाव देखने चाहिए?'
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