केजरीवाल, दिल्ली की सत्ता और सियासी चक्रव्यूह के 7 द्वार!
दिल्ली चुनाव (Delhi Assembly Election) को देखते हुए 7 महत्वपूर्ण पहलू नज़र आये हैं जो अरविन्द केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के लिए चुनौती बन सकते हैं. आइये कम शब्दों में इसको समझने का प्रयास करते हैं कि इस बार सियासी चक्रव्यूह के सात द्वार कौन से होंगे.
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आजादी के वर्षों बाद भी देश भूख, भ्रष्टाचार, महँगाई, अन्याय और दमन के सहारे चल रहा है. हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए, उससे कम कुछ नहीं…’ इंदिरा गाँधी (Indira Gandhi) की सत्ता अकेले उखाड़ फेंकने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण (Jai Prakash Narayan) के शब्द बताते हैं कि उनकी प्राथमिकताएं बिल्कुल स्पष्ट थीं. उन्हें त्याग और तपस्या का प्रतीक इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्होंने ना कभी सरकार में जगह ली और ना ही संसद में.
अगर ये कहें कि जेपी आंदोलन के बाद अन्ना आंदोलन ही था जो शायद पूरे देश को एक सूत्र में बाँध पाया तो गलत नहीं होगा, पर इस बार नतीजा बदला. 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' ने देश को नेता दिया 'अरविन्द केजरीवाल', आम आदमी पार्टी (Aam Admi Party) का गठन हुआ और पहले ही चुनाव (Delhi Assembly Election) में उन्होंने बताया कि हम जनता तक पहुंचे भी हैं और उनका वोट लेने की काबिलियत भी रखते हैं. 49 दिन की सरकार गिरी तो लोगों की 'उम्मीद' को मानो चोट पहुंची, जिसका नतीजा साफ़ था, 70 में 67 सीटों के साथ आम आदमी पार्टी ने सत्ता में वापस आकर इतिहास रच दिया.
अरविंद केजरीवाल को इस बार चुनाव में तमाम चुनौतियां झेलनी होंगी, क्योंकि अब वह भी बाकी राजनीतिक पार्टियों के नेता जैसे हो गए हैं.
सरकार के खिलाफ लगभग सभी आंदोलनों का लक्ष्य एक ही रहा है, सत्ता में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही. तो क्या अरविन्द केजरीवाल (Arvind Kejriwal) इन पांच वर्षों में इन चुनौतियों पर खरे उतरे हैं? क्या वाकई में दिल्ली में उनकी एकतरफ़ा लहर है? ये चुनाव कैसे अलग है? केजरीवाल की चुनौतियाँ क्या होंगी? भाजपा कितनी कमजोर और कितनी मजबूत होगी? कांग्रेस पर लोगों का विश्वास कितना बढ़ा है? इन सब सवालों का जवाल कोई ओपिनियन पोल नहीं दे सकता.
जनता सब्सिडी पॉलिटिक्स और तात्कालिक लाभ को कितना तरजीह देती है, जनता 2015 से पहले के अरविन्द और आज के अरविन्द में क्या फर्क देखती है? भाजपा क्यों कोई मजबूत चेहरा नहीं दे पाई? शीला जी के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस दिल्ली को लेकर गंभीर क्यों नहीं रही? इन सब सवालों का जवाब एक बात में छिपा है. मैंने बेतरदीब दिल्ली के 10 लोगों से पूछा कि दिल्ली का क्या माहौल है? 2 ने भाजपा की सम्भावना बताई, 1 ने कहा कांग्रेस मजबूत हुई है, 2 ने कहा कुछ कह नहीं सकते और 5 ने कहा केजरीवाल वापस आ रहा है. इन 5 लोगों से मैंने फिर सवाल किया 'आ रहा है, या आना चाहिए?' इस सवाल के जवाब पर कुछ लोगों की बातों में विरोधाभास दिखा.
सीमित दायरे और व्यक्तिगत क्षमता से किये गए प्राथमिक शोध से मुझे 7 महत्वपूर्ण पहलू नज़र आये जो अरविन्द केजरीवाल के लिए चुनौती बन सकते हैं. आइये कम शब्दों में इसको समझने का प्रयास करते हैं कि इस बार सियासी चक्रव्यूह के सात द्वार कौन से होंगे. ये चुनौतियाँ कितनी भारी पड़ेंगी और कितनी नहीं, ये कह पाना मुश्किल है, पर ये पढ़ने के बाद आप इतना तो समझ जाएंगे कि दिल्ली का चुनाव मजेदार होने जा रहा है.
पहली चुनौती- ये आम आदमी पार्टी का पहला विधानसभा चुनाव!
चौंकिए मत! मैं भी जानता हूँ कि आम आदमी पार्टी इससे पहले भी 2 विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है. फिर मैं इस चुनाव को उनका पहला चुनाव मानता हूँ क्योंकि इसके पहले के दो चुनाव अन्ना आंदोलन और जनता की उम्मीद ने जीते थे. ये पहला चुनाव होगा जो अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी अपने काम पर लड़ने जा रही है. सरकारी विज्ञापनों की मानें तो कमोबेस हर क्षेत्र में अच्छा काम हुआ है और अगर ये सच है तो आंदोलन से आयी पार्टी के लिए ये सोने पर सुहागा होने जा रहा है. और अगर भाजपा के आरोप सही हैं तो 70 के दशक का एक नारा हमें कभी नहीं भूलना चाहिए 'इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं'. परिवर्तन की बयार बहती है तो जाति, धर्म और विचारधारा के बंधन टूट जाते हैं, पर सामान्य स्थिति में ये सभी पहलू चुनाव पर मजबूती से असर डालते हैं. इसलिए केजरीवाल अगर ये मान कर चल रहे हैं कि हर वो व्यक्ति जिसने उन्हें 2015 में वोट दिया वो आज भी उनके साथ है तो इस पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है.
दूसरी चुनौती- सब्सिडी पॉलिटिक्स, कितनी सफल और कितनी नहीं
वो कहते हैं न माल-ए-मुफ्त, दिल–ए-बेरहम, फिर क्या तुम, क्या हम. 49 दिनों की केजरीवाल सरकार का मास्टरस्ट्रोक था 'मुफ्त बिजली और पानी'. क्या गलत और सही जनता ने निश्चित तौर पर इसका खूब फायदा लिया, ठण्ड का मौसम था इसलिए बहुत से घरों में 200 यूनिट से ज्यादा बिजली की खपत नहीं हुई. आम आदमी पार्टी की सरकार प्रचंड बहुमत के साथ वापस आयी और अब पारी खेली पूरे 5 साल की. पावर कंजंप्शन का बिल स्लैब के आधार पर आता है. बिजली की खपत जितनी ज्यादा होगी, हर यूनिट के लिए रेट उतने ही ज्यादा होंगे. इसलिए लगभग हर विधानसभा में जितने लोगों का पूरा बिल माफ़ हुआ है उससे कहीं ज्यादा लोगों का बिल पहले से सालाना 10 हज़ार के लगभग बढ़ा है. मजेदार बात ये है कि यही वो वर्ग है जिसके टैक्स से पूरा प्रदेश चल रहा है. सोशल मीडिया पर वो बिल पोस्ट होते हैं जो माफ़ हुए, पर बढे हुए बिल की चर्चा नहीं हुई, मतलब मीठा मीठा गप, कड़वा कड़वा थू. पर अगर जनता को इस सब से फर्क पड़ा है तो ये गुस्सा चुनाव पर असर डाल सकता है. जो अरविन्द केजरीवाल के लिए चुनौती से कम नहीं होगा.
तीसरी चुनौती- कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का एक ही वोट बैंक होना
इस चुनाव में जिस बात पर बिल्कुल चर्चा नहीं देखने को मिली वो है 2015 के मुकाबले कांग्रेस के प्रति नफरत का कम होना और अहम राज्यों में उनकी वापसी. जब केजरीवाल ने 2015 में सरकार बनाई थी तो भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी हुई कांग्रेस के प्रति लोगों में घृणा भाव था. अब हालत बदले हैं, और अगर कांग्रेस दिल्ली में जरा भी मजबूत हुई तो समीकरण पूरी तरह से बदल सकते हैं. मेरी अपनी स्टडी के मुताबिक़ कुल 22 सीटें हैं जहाँ कांग्रेस आम आदमी पार्टी को सीधा नुकसान पहुंचा रही है. गैर भाजपा वोट बैंक में बिखराव नहीं होगा, इसका कोई एक ठोस कारण अरविन्द केजरीवाल नहीं दे पाए हैं. अगर कांग्रेस के उम्मीदवार इन 22 सीटों पर अच्छा लड़े तो मुकाबला त्रिकोणीय हो जाएगा, जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिल सकता है.
चौथी चुनौती- आम आदमी पार्टी में बिखराव
गौरतलब है कि 2020 के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल को उनके प्राथमिक सदस्यों का फायदा नहीं मिलेगा जो किसी न किसी कारणों से पार्टी से बाहर कर दिए गए. कुमार विश्वास, आशुतोष, योगेंद्र यादव, कपिल मिश्रा जैसे अनेकों नाम हैं जो कभी पार्टी के मजबूत स्तम्भ हुआ करते थे और अब साथ नहीं हैं. वो व्यक्तिगत रूप से पार्टी को कितना नुकसान पहुंचाएंगे ये कह पाना मुश्किल है पर इस बिखराव का नतीजा हम पंजाब में देख चुके हैं. इन नामों के बिना भी पार्टी उसी असरदार रूप में विपक्ष के सामने खड़ी रह पाएगी ये भी छोटी ही सही पर चुनौती जरूर है अरविन्द केजरीवाल के लिए.
पांचवीं चुनौती- आप विधायकों के प्रति जबरदस्त एंटी इंकम्बेंसी
67 विधायक एक ऐसी पार्टी को जिसका कुछ दिनों पहले अस्तित्व ही नहीं था! ये चमत्कार से कम नहीं था पर ये चमत्कार अपने साथ जिम्मेदारियां भी लेकर आया था. बहुत से ऐसे विधायक हैं जिनकी अनुभवहीनता से आम आदमी पार्टी की छवि को सीधा नुकसान पहुंचा है. ऐसे में इसका उपाय आम आदमी पार्टी लगभग 30 से अधिक विधायकों का टिकट काट कर करने की फिराक में है, पर कम समय में सही उम्मीदवार का चयन करना और पार्टी में उठ रहे विद्रोह के सुरों का इलाज करना बाकी पार्टियों की तरह केजरीवाल के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है.
छठी चुनौती - हमाम में सब नंगे!
आम आदमी पार्टी का गठन और उसके सत्ता में वापस आने का सबसे बड़ा कारण था 'ईमानदार, अलग और अपनी पार्टी' की छवि. पर अब स्थिति वैसी नहीं है. केजरीवाल ने राहुल गाँधी से लेकर ममता और अखिलेश से लेकर लालू यादव सभी के साथ मंच साझा किया है, कांग्रेस के साथ गठबंधन का दाग भी उस पर लग चुका है. इसलिए केजरीवाल सबसे अलग और ईमानदार हैं ये छवि पूरी तरह से बदल चुकी है और 2020 का चुनाव उन्हें भी किसी राजनीतिक दल की तरह लड़ना होगा जो सत्ता में आने के लिए हर तरह के प्रयोगों के लिए तैयार है.
सातवीं चुनौती- CAA, NRC, JNU, सॉफ्ट हिंदुत्व और ध्रुवीकरण
प्रधानमंत्री ने झारखंड के चुनाव में CAA प्रोटेस्ट पर कहा कि 'प्रदर्शनकारियों की पहचान उनके कपड़ों से की जा सकती है', इस पर विपक्ष का आलोचना करना और नैतिकता की दुहाई देना बनता है पर इस बयान और मौजूदा स्थिति की जनता के बीच खूब चर्चा है. देश विरोधी नारे, घुसपैठियों का बचाव, अर्बन नक्सल आदि इत्यादि जैसे विषय पर सोशल मीडिया पर खुलेआम चर्चा हो रही है. जब जब राष्ट्रवाद की भावना लोगों में जागृत हुई है तब तब अन्य सभी मुद्दों पर परदा पड़ जाता है और एक बड़े वर्ग कि सोच 'ब्लैक एंड वाइट' हो जाती है. 'मोदी बनाम सब' को मुद्दा बना कर जब जब केजरीवाल के आगे रखा जाएगा तब तब उनकी पार्टी को इसका काट सोचना होगा. कारण यही है, सिसोदिया और संजय सिंह आदि कितना भी बोल लें पर आम आदि पार्टी की बुनियाद आज भी सिर्फ और सिर्फ केजरीवाल हैं. सेकंड लीडरशिप की कमी और मोदी फैक्टर आम आदमी पार्टी के लिए चुनौती जरूर है.
इतने विस्तार से समझने और समझाने का लक्ष्य सिर्फ इतना ही था कि केजरीवाल फेवरेट जरूर हैं, पर हर दल के लिए यह चुनाव उतना ही खुला है जितना आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के लिए. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली चुनाव के लिए अपने सभी 70 उम्मीदवारों की लिस्ट भी जारी कर दी है. तो अब कुर्सियों की पेटियां बाँध लीजिये और आनंद लीजिये दिल्ली के इस महामुकाबले का. इसी उम्मीद के साथ कि सरकार जिसकी भी बने वो पानी, प्रदूषण, अपराध और ट्रैफिक जैसे बुनियादी मुद्दों पर भी काम करे.
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