शीला दीक्षित की विरासत से केजरीवाल क्या कुछ सीख सकते हैं !
लोकसभा चुनावों में शीला ने कांग्रेस पार्टी के अंदर अपने उस रसूख का भी बेहतर प्रदर्शन कर दिया, जब कई कांग्रेसियों की इच्छा के विपरीत उन्होंने आम आदमी पार्टी से गठबंधन को ना कर दिया और सातों सीटों पर अपने मनचाहे उम्मीदवारों को भी दिया.
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81 साल की उम्र में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का शनिवार को निधन हो गया है. उनकी मौत की आई अचानक खबर ने लोगों को स्तब्ध कर दिया, क्योंकि शायद ही किसी को यह अंदेशा रहा होगा कि कांग्रेस की यह कद्दावर नेता इतनी जल्दी इस दुनिया को अलविदा कह देंगी. अभी दो महीने पहले तक लोकसभा चुनावों के दौरान शीला दीक्षित पूरे दम ख़म से राजधानी दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की जीत सुनिश्चित करने में लगी थी. हालांकि, शीला दीक्षित दिल्ली में कांग्रेस का खाता खुलवाने में नाकाम रही, मगर जाने से पहले उन्होंने अरविन्द केजरीवाल की पार्टी को जरूर राजधानी के अधिकतर जगहों पर तीसरे स्थान पर ढकेल दिया. लोकसभा चुनावों में शीला ने कांग्रेस पार्टी के अंदर अपने उस रसूख का भी बेहतर प्रदर्शन कर दिया, जब कई कांग्रेसियों की इच्छा के विपरीत उन्होंने आम आदमी पार्टी से गठबंधन को ना कर दिया और सातों सीटों पर अपने मनचाहे उम्मीदवारों को भी दिया.
हालांकि, शीला को आने वाली पुश्तें दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ही याद करेंगी. शीला दीक्षित साल 1998 से 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं. उनके नेतृत्व में लगातार तीन बार कांग्रेस ने दिल्ली में सरकार बनाई. वह सबसे लंबे समय (15 साल) तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने का भी गौरव प्राप्त किया. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर शीला दीक्षित को उनके कराये तमाम विकास कार्यों के लिए याद किया जाता रहेगा. उन्होंने दिल्ली के सार्वजनिक परिवहन को सीएनजी आधारित बनाने के साथ ही दिल्ली के ज्यादातर फ्लाइओवरों के निर्माण का श्रेय भी दिया जाता है. यह शीला ही थीं, जिनके कार्यकाल में दिल्ली में पेड़ पौधों की संख्या में भी खासी वृद्धि देखी गयी. साथ ही महिला सुरक्षा की दिशा में किये गए उनके कामों की भी चर्चा होती है. हालांकि, उन्हीं के शासन काल निर्भया काण्ड का काला अध्याय भी आया और साथ ही राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में गड़बड़ी समेत कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले भी. हालांकि, बावजूद इन दागों के भी शीला दीक्षित का कार्यकाल अरविन्द केजरीवाल को काफी कुछ सिखा सकता है.
लोकसभा चुनावों में शीला ने कांग्रेस पार्टी के अंदर अपने उस रसूख का भी बेहतर प्रदर्शन कर दिया.
दिल्ली में रहने वाला शायद ही ऐसा कोई हो जो दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और केंद्र सरकार के कलह से वाकिफ ना हो. आये दिन केजरीवाल किसी ना किसी मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार या राज्यपाल पर आरोपों की बौछार करते रहे हैं. केजरीवाल अक्सर ही यह कहते सुने जाते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार उन्हें कोई काम नहीं करने दे रही है. इस मामले में शीला दीक्षित का कार्यकाल जरूर केजरीवाल को कुछ पाठ पढ़ा सकता है. हालांकि यह जरूर है कि शीला दीक्षित के कार्यकाल के आखिरी 9 सालों में केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी, मगर दीक्षित के कार्यकाल के शुरुआती 6 साल केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार थी और जिस तरह से शीला दीक्षित ने गैर कांग्रेसी सरकारों के साथ भी तालमेल मिला कर चली वो काबिलेगौर है. पहली बार दीक्षित ने जब साल 1998 में दिल्ली की कमान संभाली तो केंद्र में आई. के. गुजराल के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी। वहीं अगले साल ही भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी ने केंद्र में सत्ता संभाल ली। हालांकि, यह कभी भी दीक्षित के विकास कार्यों में बाधा नहीं बनी, शीला दीक्षित ने इस दौरान कई महत्वाकांक्षी योजनाओं को मूर्त रूप दिया. केजरीवाल शीला दीक्षित के इस कार्यकाल से जरूर काफी कुछ सीख सकते हैं और केंद्र सरकार से तालमेल स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.
प्रदूषण इस वक़्त दिल्ली की सबसे बड़ी समस्याओं में शुमार में है, आए दिन दिल्ली के प्रदूषण को लेकर तरह तरह की बातें की जाती हैं. हालांकि, सरकारों ने इस समस्या से निपटने की कोई ठोस नीति अब तक नहीं दिखाई. शीला दीक्षित को भी अपने कार्यकाल के दौरान इस तरह की समस्या से दो चार होना पड़ा था. शीला दीक्षित जब आईं तो दिल्ली का ग्रीन कवर महज 8 फीसदी था, मगर जाते जाते वो इसे 33 फीसदी तक ले गई. दीक्षित ने पब्लिक ट्रांसपोर्ट की दिशा में काफी काम किया, जिसमें दिल्ली मेट्रो, डीटीसी की बसों की संख्या में इजाफा शामिल है. केजरीवाल दीक्षित द्वारा प्रदूषण कम करने वाले उपायों से प्रेरणा लेकर वर्तमान समय में प्रदूषण निवारण को लेकर काफी कुछ कर सकते हैं.
एक और चीज जो शीला दीक्षित और अरविन्द केजरीवाल में काफी बड़ा अंतर पैदा करती है वह है दोनों की शख्सियत. दीक्षित की छवि जहां मरते दम तक एक मजबूत नेता की रही तो वहीं केजरीवाल हमेशा खुद को पीड़ित के रूप में दिखाते रहते हैं. दीक्षित ने लोकसभा चुनावों में भी अपनी हनक और रसूख दिखाया, मगर उस दौरान केजरीवाल जिस कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसते रहते थे, उसी से गठबंधन करने की जिद में अपनी भद्द पिटवाते रहे. केजरीवाल, शीला दीक्षित की पूरी शख्सियत से यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इतिहास हमेशा मजबूत नेताओं को याद रखता है ना कि ऐसे नेताओं को जो अपनी कमजोरी छुपाने के लिए दूसरे का कन्धा ढूंढा करते हैं.
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