यारों मैंने पंगा ले लिया- केजरीवाल के पंगों की पांच वजह
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच जो जंग चल रही है, वो दरअसल केजरीवाल का जानबूझकर लिया हुआ ‘पंगा’ है.
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जब अरविंद केजरीवाल ने रामलीला मैदान में शपथ ली थी, तो शपथ लेने के बाद उन्होंने गाना गाया...’इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा’… लेकिन सरकार अपने सौ दिन पूरे करे, इसके पहले ही एक और गाने की आवाज़ दिल्ली के सचिवालय से आ रही है और वो है ‘यारों मैंने पंगा ले लिया’… ये सच भी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच जो जंग चल रही है, वो दरअसल केजरीवाल का जानबूझकर लिया हुआ ‘पंगा’ है. अगर लोग सोच रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली सरकार के कामकाज या विवाद-झगड़ों को लेकर फिक्रमंद होंगे, तो शायद यह सोचना गलत होगा. क्योंकि यह आग जानबूझकर लगाई गई है. अब सवाल उठता है कि भला कोई अपनी ही सरकार को लेकर बवाल क्यों खड़ा करेगा, तो इसतरह के बवाल केजरीवाल और उनके आसपास के लोगों की आदत में शामिल हैं.
बवाल की वजह क्या है...
दिल्ली में सीएम और एलजी के बीच चल रहे झगड़े की वजह टटोलने जाएंगे, तो संविधान की धाराएं और कानूनों की व्याख्या करने में लोग लगे हुए हैं, लेकिन दरअसल इसकी वजह कोई है ही नहीं. अगर कुछ है तो झगड़ा शुरु करने का बहाना है. अरविंद केजरीवाल ऐसा करना चाहते थे और उन्हें बहाना एक्टिंग चीफ सेक्रेटरी की नियुक्ति को लेकर मिला. हालांकि अब वो सरकार के मुखिया हैं, लेकिन इस विवाद को हवा देने के लिए उन्होंने तरीका वही अपनाया, जो वो चुनाव से पहले लोगों पर आरोप लगाकर अपनाते रहे हैं. एक बार विवाद शरु हो गया, तो उसे बढ़ाकर सीएम और सरकार के अधिकारों तक ले गए. यह केजरीवाल की कामयाबी कही जा सकती है.
केजरीवाल ने पंगा लिया क्यों...
अगर इस सवाल का जवाब चाहिए, तो केजरीवाल के चुनावी वादों पर गौर करना पड़ेगा. केजरीवाल ने चुनाव में जो वादे किए, उनमें से ज्यादातर ऐसे थे, शायद संभव नहीं थे. बिजली के दाम आधे हो नहीं सकते थे, लेकिन इसके लिए सब्सिडी का तरीका निकाल लिया. लेकिन हर वादे को पूरा करने के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ ऐसे वादे हैं, जो दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते ही नहीं है. जैसे सुरक्षा और कानून व्यवस्था के मामले या फिर ज़मीन से जुड़े मसले. ऐसे में अधिकारों का सवाल उठाना ज़रूरी था.
पंगा तो लिया, मिलेगा क्या...
अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार का मकसद उन अधिकारों का हासिल करने का है, जिनके लिए उन्होंने चुनावी वादे तो कर दिए थे, लेकिन उनके पास हैं नहीं. अब अगर अधिकार मांगने का यह काम फाइलों या केंद्र और एलजी से चिठ्ठियों के ज़रिए होता, तो हालत वही होती ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा’. इसीलिए केजरीवाल एंड टीम ने बड़ी सफाई से इस पूरे मुद्दे को बहस के केंद्र में ला दिया, कि आखिर चुनाव के बाद जो सरकार चुनी गई है, उसके पास करने को है क्या. अब अधिकार मिले या न मिलें, वो अपने वोटर को यह ज़रूर समझा रहे हैं कि केजरीवाल संघर्ष कर रहे हैं.
बदनाम होंगे, तो क्या नाम न होगा...
केजरीवाल की मीडिया में आलोचना हो रही है. अफसरों में नाराज़गी छा रही है. दिल्ली सरकार के कामकाज को लेकर असमंजस बन रहा है. लेकिन इस सबसे केजरीवाल अपना मकसद साधने में लगे हैं. एक तो वो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की अपनी मांग को आधार दे रहे हैं, दूसरा जो उनका कोर वोटर है, जो पढ़ा लिखा नहीं है या जिसे धारा 299AA कोई लेना देना नहीं है, उसके दिल में जगह मजूबत बना रहे हैं. मीडिया में हो रही बदनामी को तो केजरीवाल पहले ही मीडिया को ही कटघरे में खड़ा करके परिभाषित कर चुके हैं. इस बात को समझने के लिए केजरीवाल के पिछले कार्यकाल में पुलिस अफसरों को हटाने के लिए रेल भवन के सामने दिया गये धरने का उदाहरण काफी है.
क्या यह केजरीवाल का आखिरी पंगा है?
दिल्ली सरकार को बने सौ दिन हुए है, लेकिन विवादो की संख्या को गिनने बैठेंगे तो आंकड़ा सवा सौ की गिनती पार कर जाएगा. उम्मीद मत कीजिए कि केजरीवाल की कलह कहानी यहीं खत्म हो जाएगी. केजरीवाल को चुनाव से पहले भी पता था कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है और केजरीवाल को अब भी पता है कि केंद्र के नियुक्त अफसरों के बीच काम करना आसान नहीं होगा. इसीलिए अफसरों में अपनी पंगेबाज़ी का डर बैठना भी ज़रूरी है और एलजी के अधिकारों पर हावी होना भी. इसीलिए पांच साल में आशीष जोशी और शकुंतला गैमलिन जैसे अफसरों से जुड़े विवाद और एलजी से हुई जंग का सिलसिला जारी रहेगा. मलतब साफ है पंगेबाज़ी जारी रहेगी.
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