ओवैसी का सवाल वाजिब है, भाजपा यूं ही तो हर चुनाव नही जीती!
अगर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए सपा, कांग्रेस और बसपा जैसे विपक्षी दल साथ आ भी जाते हैं, तो लोगों के बीच इस गठबंधन के अवसरवादी होने का संदेश जाएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में कहें, तो महामिलावटी गठबंधन के तौर पर इसे प्रचारित किया जाएगा. वहीं, उत्तर प्रदेश में अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़कर किसी भी पार्टी के लिए जीत हासिल करना मुश्किल ही दिखता है.
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असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) के राजनीतिक दल ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) को उत्तर प्रदेश की सभी विपक्षी पार्टियां 'वोटकटवा' के तौर पर पेश कर रही हैं. लेकिन, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly elections 2022) के मद्देनजर असदुद्दीन ओवैसी अलग तरीके के सियासी दांव चल रहे हैं. यूपी दौरे पर निकले ओवैसी ने सुल्तानपुर की रैली में एक सवाल किया. असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि सुल्तानपुर में अखिलेश यादव को झोली भर कर वोट दिए गए, तो भाजपा (BJP) विधायक कैसे जीते? राजनीतिक तौर पर देखें, तो ये सवाल सपा, कांग्रेस, बसपा को कमजोर करने की रणनीति दिखाई पड़ता है. लेकिन, ये सवाल कई मायनों में पूरी तरह से वाजिब नजर आता है. ऐसा कहने की वजह ये है कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को बिना एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा किये सूबे की 60 फीसदी मुस्लिम बहुल सीटों पर जीत हासिल हुई थी.
असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि सुल्तानपुर में अखिलेश यादव को झोली भर कर वोट दिए गए, तो भाजपा (BJP) विधायक कैसे जीते?
2017 के विधानसभा चुनाव में क्या हुआ?
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में न केवल भाजपा ने अपना सत्ता से वनवास खत्म किया, बल्कि सूबे में भाजपा के सर्वाधिक सीटें जीतने का रिकॉर्ड भी बनाया. उस विधानसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ गठबंधन कर 'यूपी के लड़के' कैंपेन को आगे बढ़ाया था. लेकिन, उसका नतीजा क्या रहा, ये सबके सामने है. भाजपा नीत एनडीए गठबंधन ने 325 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी. इन चुनावी नतीजों ने उत्तर प्रदेश में सपा (SP), कांग्रेस (Congress) और बसपा (BSP) को हाशिये पर पहुंचा दिया था. वहीं, कई सीटों पर सपा-कांग्रेस के गठबंधन के बावजूद बागी उम्मीदवारों ने भी जमकर वोट काटे थे. इस चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार उतारे बिना भाजपा ने सूबे की 60 फीसदी मुस्लिम (Muslim) बहुल सीटों पर जीत हासिल की थी. इसकी सबसे बड़ी वजह ये रही थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर सपा-कांग्रेस गठबंधन के सामने बसपा और आरएलडी के उम्मीदवार भी ताल ठोंक रहे थे. आसान शब्दों में कहें, तो इस बार की तरह ही उस समय भी विपक्ष पूरी तरह से बंटा हुआ नजर आया था.
सबसे चर्चित सीट रही देवबंद के चुनावी नतीजों पर गौर करें, तो सामने आता है कि भाजपा से विधायक बने ब्रजेश के सामने सपा और बसपा ने अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे. दूसरे नंबर पर रहे बसपा उम्मीदवार माजिद अली को 72,844 वोट मिले थे. वहीं, तीसरे नंबर पर रहे सपा के उम्मीदवार माविया अली को 55,385 वोट मिले थे. भाजपा के उम्मीदवार ब्रजेश 1,02,244 वोटों के साथ करीब तीस हजार वोटों से जीत हासिल हुई थी. अगर सपा और बसपा के वोटों को एकसाथ जोड़ लिया जाए, तो शायद भाजपा का उम्मीदवार करीब 26 हजार वोटों से हार जाता. लेकिन, ऐसा उस समय भी नहीं हुआ था और अभी भी होने की उम्मीद नहीं है. सभी राजनीतिक दलों का एक साथ आना की ऐसी परिकल्पना जो 'न भूतो, न भविष्यति' की ओर इशारा करती है. उत्तर प्रदेश की हर मुस्लिम बहुल सीट पर कमोबेश यही स्थिति रही थी. भाजपा के उम्मीदवार के सामने सपा और बसपा के प्रत्याशी अलग-अलग ताल ठोंक रहे थे. सीधी सी गणित के हिसाब से इसे समझें तो, यह कोई कठिन या दुरूह मामला नजर नहीं आता है.
2014 के लोकसभा चुनाव में 'मोदी लहर' के आगे उत्तर प्रदेश में कोई टिका नहीं था.
वोटकटवा कौन है?
2014 के लोकसभा चुनाव में 'मोदी लहर' के आगे उत्तर प्रदेश में कोई टिका नहीं था. 'गांधी परिवार' की बदौलत कांग्रेस ने रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीट जीती थीं. वहीं, सपा भी किसी तरह 'यादव कुनबे' के नाम पर पांच सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी. बसपा इतिहास बनाते हुए 'शून्य' पर पहुंच गई थी. वहीं, 2019 में सपा और बसपा के गठबंधन साथ आरएलडी के जुड़ने के बाद भी ये राजनीतिक दल कोई बहुत बड़ा कमाल नहीं दिखा सके थे. हालांकि, भाजपा को पिछले प्रदर्शन के हिसाब से कुछ लोकसभा सीटों का नुकसान हुआ था. लेकिन, इसकी भरपाई पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से कर ली गई थी. लेकिन, असल बात ये है कि 2014 से लेकर अब तक हुए दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट से ज्यादा विपक्षी दल बंटे हुए नजर आए. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सपा-बसपा गठबंधन से बाहर रखा गया, तो कांग्रेस ने भी काफी हद तक 'वोटकटवा' की भूमिका निभाई, जिसका आरोप फिलहाल एआईएमआईएम पर लग रहा है. 2017 के विधानसभा चुनाव में ये भूमिका बसपा ने निभाई थी और 2014 में तो सभी विपक्षी दल आपस में ही भिड़ रहे थे. वैसे, असदुद्दीन ओवैसी लाख इनकार करें, लेकिन आगामी यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में एआईएमआईएम भी वोटकटवा ही साबित होगी.
अखिलेश यादव और मायावती की 'नासमझी' क्या है?
सुल्तानपुर की रैली में असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि अखिलेश यादव और मायावती की 'नासमझी' की वजह से नरेंद्र मोदी दो बार प्रधानमंत्री बने. लेकिन, सवाल ये है कि क्या ऐसा सचमुच हुआ है? इसका सीधा सा जवाब है- नहीं. असदुद्दीन ओवैसी लगातार कोशिश कर रहे हैं कि सपा या बसपा के साथ एआईएमआईएम का गठबंधन हो जाए. वो कहते हुए भी दिखे हैं कि गठबंधन के रास्ते खुले हुए है, बशर्ते सपा या बसपा उन्हें साथ लेने के लिए तैयार हों. लेकिन, एआईएमआईएम के साथ कोई भी राजनीतिक दल जुड़ना नहीं चाहता है. इसकी वजह भी साफ है कि राम मंदिर, सीएए, धारा 370, तीन तलाक जैसे मामलों पर असदुद्दीन ओवैसी मुखरता से आवाज उठाते हैं. वहीं, सपा, बसपा, कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते पहले ही हिंदू मतदाता तेजी से छिटककर भाजपा के खाते में जुड़ गए हैं. तो, इस बार कोई भी राजनीतिक दल एआईएमआईएम को साथ लेकर अपनी इमेज बिगाड़ने के मूड में नहीं है.
विपक्षी दल साथ आए, तो क्या होगा?
अगर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए सपा, कांग्रेस और बसपा जैसे विपक्षी दल साथ आ भी जाते हैं, तो लोगों के बीच इस गठबंधन के अवसरवादी होने का संदेश जाएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में कहें, तो महामिलावटी गठबंधन के तौर पर इसे प्रचारित किया जाएगा. वहीं, उत्तर प्रदेश में अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़कर किसी भी पार्टी के लिए जीत हासिल करना मुश्किल ही दिखता है. जाति और धर्म के आधार पर व्यापक तरीके से बंटे मतदाताओं को एक साथ लाने का विपक्षी दलों के पास कोई फॉर्मूला नहीं है. वहीं, भाजपा को अपने चिर-परिचित हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे के साथ लोगों को एक करने में महारत हासिल है. कहना गलत नहीं होगा कि अगर मुस्लिम वोट एकतरफा हो भी जाएं, तो बंटे हुए विपक्ष की वजह से भाजपा मजबूती के साथ दोबारा सत्ता में आने का दावा ठोंक रही है. क्योंकि, मुस्लिम मतदाताओं की तरह ही भाजपा से नाराज हिंदू मतदाताओं के भी बंटने की संभावना बनी हुई है.
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