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Updated: 22 सितम्बर, 2015 05:56 PM
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अगर असिया अंद्राबी किसी इस्लामी देश में एक हिंदू होतीं और उन्होंने अपने धार्मिक अधिकारों का दावा करने के लिए एक असहाय गाय का वध किया होता तो अब तक वो सुपुर्द-ए-ख़ाक हो चुकी होतीं. उन्हें अपने सितारों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वो एक हिंदू बाहुल्य देश में पैदा हुई थीं, जहां हिंदू संवेदनशीलता का मज़ाक और अपमान राज्य द्वारा सिर्फ सहन ही नहीं किया जाता बल्कि मीडिया के मुखर बुद्धिमान हिंदू (जिन्हें सेकुलर के नाम से जाना जाता है), उनके द्वारा बढ़ावा भी दिया जाता है.     

हम जैसे लोगों के बार में सोचो जिन्हें गाय को मां की तरह पूजा करने के लिए बड़ा किया गया है, जो हिंदू नेताओं और धर्म प्रचारकों द्वारा लगातार सुनते आ रहे हैं कि गाय की हत्या पाप है, जिन्हें बताया गया कि शिवाजी ने कभी गाय की हत्या को बर्दाश्त नहीं किया और जिस कसाई ने ऐसा किया उसे मौत के घाट उतार दिया गया. आज उन्होंने हमें उस मां को ऐसे चुपचाप देखने के लिए मजबूर कर दिया जैसा कभी सोचा भी नहीं था.

कुछ लोग बाजार में हाथ में चाकू लिए और मरे हुए जानवर से खून रिसता देखकर अपने मांस खाने की आदत का प्रदर्शन करते हैं. और इस कृत्य को सही और वैध माना जाता है जिसे एक सैकुलर राष्ट्र के सैकुलर मीडिया द्वारा स्वीकार भी कर लिया जाता है.

हमने ऐसी घटनाओं के बारे में तब ही सुना है जब किसी हमलावर ने लोगों को सबक सिखाना चाह हो. हमने सुना है कि जब एक मुस्‍ल‍िम हमलावर ने हमें नीचा दिखाना चाहा तब उसने अमृतसर के हरमंदिर साहिब के पवित्र तालाब को गाय के रक्त से भर दिया था. हर किसी ने इसकी निंदा की थी और अब ये हमारी यादों मे एक दुखद और निंदनीय कृत्य के रूप में अंकित है. महाराजा रणजीत सिंह ने भी गाय के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था और सारे सिख गुरुओं ने इसे पवित्र माना.

राजनीतिक स्वार्थ के चलते आज सिख भी इस मुद्दे पर चुप हैं, यहां तक कि पंजाब में तो गठबंधन की सरकार है. हमारे इतिहास के हर युग में हिंदुओं के खिलाफ खड़े हिंदुओं की कीमत हमारे समाज को एक सोमनाथ से चुकानी पड़ी है. इस उम्मीद पर कि कसाइयों को एक दिन दया आएगी, इन हत्याओं पर चुप्पी का नतीजा ये हुआ कि बहुसंख्या में होने के बावजूद भी हम अपने ही देश में शरणार्थी बनते जा रहे हैं.

ये बहुत आश्चर्य की बात है कि आजादी मिलने के बाद से हिंदुओं ने अपने हमलावरों के साथ विनम्र होकर जीना सीख लिया है. पड़ोसियों द्वारा जनसंख्या आक्रमण, श्रीनगर में भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष के आखिरी भुला दिए गए दिन, विश्व की पहली और सबसे श्रद्धेय पुस्तक ऋग्वेद का अपमान, हिंदू सन्यासियों के मूर्ख और पुराने कबाड़ की तरह कार्टून बनाना, हिंदू संगठनों का कम पढ़े-लिखे, महिला विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी के रूप में प्रदर्शित करना- ये सब आज के फैशनेबल और रईस समाज का चलन हो गया है, जहां लोग अक्सर सत्ता के संभ्रांत लोगों के करीबी दिखाई देते हैं, फिर चाहे उनका रंग और विश्वास कुछ भी हो.

हम हालिया इतिहास भूल गए हैं जब हिंदू मंदिरों को लूटा गया और उनके देवी देवताओं के चित्रों को जला दिया गया था, जबकि धर्मनिर्पेक्षों ने इस बात से मुंह मोड़ लिया था.

जब एक बुजुर्ग लक्ष्‍मणानंद सरस्वती दूसरे धर्म को मानने वाले विमुख हिसंक समूहों द्वारा हमेशा के लिए शांत कर दिए गए थे. ऐसी घटनाएं कभी भी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बनीं. बल्कि इन घटनाओं को हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा झूठी और मनगढ़ंत कहानियां बताया गया. जब एक संगीतकार सूफियाना विषय पर काम करता है, तब वो एक हीरो है पर जब उसे मौलानाओं द्वारा धमकी मिलती है तो ये धर्मनिर्पेक्ष लोग चुप्पी साध लेते हैं. 

कुछ लोगों ने हिंदुओं द्वारा सहे गए हमलों पर कुछ किताबें भी लिखीं, हांलाकि क्षमा याचना के साथ जैसे कि हम साउदी देश में हों, और सताए गए हिंदू इस कदर अधिकारहीन कर दिए गए कि ऐसे साहित्य केवल कुछ ही मुखर लोगों तक सीमित रहे, जिन्हें कभी किसी धर्मनिर्पेक्ष पत्रिकाओं के पन्नों पर अंकित नहीं किया गया. उन्हें अपना घर बार, गीत और त्यौहार छोड़ने के लिए मजबूर किया गया- उन्हें मरने के लिए मजबूर किया गया और एक पूरी पीढ़ी ने अपनी जमीन और अपनेपन की भावना को त्याग दिया. उनके दुख को देश का मुद्दा बनाने के लिए कुछ नहीं किया गया. विमान दुर्घटना के पीड़ित या प्रकृतिक आपदाओं के शिकार हुए लोगों की तरह किसी को मुआवजा मिल गया, किसी को कुछ राहत सामग्री, किसी को अनुकंपा के आधार पर स्कूल और कॉलेजों में दाखला मिल गया. लेकिन जीवन हमेशा की तरह सामान्य ही रहा. राष्ट्र दूसरे मुद्दों पर व्यस्त रहा जैसे- चुनाव, विघटन, फिर से चुनाव और फिर एक नई सरकार का बनना, आतंकी हमले, बम विस्फोट और फिर से आतंकवाद को खत्म करने की शपथ. अब ये एक रुटीन एक्सरसाइज है.   

कुछ लोगों ने सोचा कि घाटी में गद्दार हैं जो पाकिस्तानी उच्चायुक्त से मिलने के लिए इकट्ठा हुए. एक और विभाजन चाहने वालों के लिए ये एक दूसरे तरह की जियारत थी.

फिरभी कुछ लोग सोचते हैं कि वो प्रतिष्ठित राजनीतिक सत्याग्रही हैं. उन्हें यात्रा करने के लिए पूरा सरकारी फंड मिलता है, उनके लिए मजबूत सुरक्षा का बंदोबस्त किया जाता है और देशभक्त भारतीय करदाताओं की बदौलत नियमित स्वास्थ्य जांच भी होती है.

कश्मीर में लाल चौक पर खुले आम गोजातीय जानवरों की हत्याओं की मांग का, गाय के मांस के स्वाद से या फिर कुरान या शरियत में नहीं लिखे धार्मिक आदेशों से कोई लेना देना नहीं है. ईद के दौरान गौमांस के उत्सव का उद्देश्य निसंदेह भारतीय सरकार को परेशान करना और चोट पहुंचाना है और दिल्ली में बैठे सत्ताधारियों को ये संदेश देना है कि- देखो, हम तुम्हारी सरकार को खुले तौर पर चुनौती दे रहे हैं और उच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं. जो चाहे कर लो.

भारत में चुनौती के रूप में और वाहवाही के लिए सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए गौमांस खाना, राम जन्म भूमि पर मंदिर को नष्ट करने जैसा है, जिसका उद्देश्य वशीभूत हिंदुओं का अपमान कर उनकी जगह दिखाना है. ये एक राजनीतिक कृत्य है जिसका पाक कला और धर्म से कोई लेना देना नहीं है.  

असिया अंद्राबी के घृणित बयान पर हिंदू संगठनों और प्रचारकों की चुप्पी का कारण शांति बनाए रखने की कोई महान इच्छा है. हिंदुओं को जिहादियों के साथ शांति बनाने के लिए घाटी छोड़ देना चाहिए. उन्हें अपनी मां को खुल आम कत्ल के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि इससे शांति बनी रहेगी. हिंदुओं को इस बात कि मांग नहीं रखनी चाहिए कि घाटी के स्कूलों में राष्ट्रगान गाया जाए और उनके पास एक बड़ी जिम्मेदारी है और हमलावरों को भड़काने के लिए उन्हें जरा सा भी मौका नहीं देना चाहिए. शक्तिशाली नियम बनाते हैं. जैसा कि हमने चेन्नई एक्सप्रेस में देखा था, स्टेशन वही होता था जहां गुंडों को उतरना होता था. ऋग्वैदिक काल में बेगुनाह महिलाओं के सटीक चित्रण पर मीडिया मुगलों ने कैसा मजाक बनाया था. धर्मनिर्पेक्ष बुद्धिजीवी आरएसएस के बयानों पर झपटते हैं. ये वो हैं जिन्हे 'सब पता है' जिन्होंने सारे वेद, उपनिषद, पुराण सब पढ़े हैं. वो सोचते हैं कि भारतीय संस्कृति के बारे में जो कोई भी अच्छा बोलता है, उसका जोरदार विरोध करना चाहिए और अपमान करना चाहिए जैसा कि अंग्रेजों के समय होता था. वो गार्गी, मैत्रेयी, विद्रोही जानकी, नचिकेता की माता को जानते हैं, जिन्होंने मृत्यु के देवता को चुनौती दी थी. वो दुर्गा और अंदल के सर्वनाश के बारे में भी जानते हैं- जो मंगल और शुक्र से पृथ्वी पर उतरे थे. उनका इस देश के लोकाचार और संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है.

तो जैसा कि हम आज देखते हैं, आईएसआईएस के क्रूर पिता औरंगजेब को बचाया जाना चाहिए. एक उभरते राष्ट्र के एक राष्ट्रवादी आईकॉन, हमारे प्रधानमंत्री का भी आज के मीर जाफर की तरह विदेशी धरती पर विरोध किया जाना चाहिए. वामपंथी लेखकों के खिलाफ निंदनीय कृत्यों का दोष छानबीन से पहले ही हिंदू संगठनों को दिया जाना चाहिए.

इस देश में कोई भी ऐसा अखबार नहीं बचा जो उन विचारों को प्रकाशित करने को राजी हो जो उनके खुद के विचारों से मेल नहीं खाते.

एक राष्ट्र सड़कों और बिजली की लाइनों से नहीं बनता. सोवियत संघ को याद करें. ये एक राष्ट्र की मूल आदर्श हैं जिनकी सुरक्षा की जानी चाहिए-  भारत के लिए इसका मतलब है कि हम सारे नागरिकों की संवंदनशीलता का सम्मान करें और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करें चाहे वो कितने ही छोटे क्यों न हों.

सबसे चौंकाने वाली बात तो तथाकथित उदार, धर्मनिर्पेक्ष मुस्लिम बुद्धिजीवियों की चुप्पी है, जिन्होंने सिर्फ अपनी काबिलियत और प्रतिभा की वजह से प्रगति नहीं की है बल्कि इसलिए भी कि हिंदुओं ने उन्हें सहारा दिया.

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लेखक

तरुण विजय तरुण विजय @tarunvijay.official

लेखक राज्यसभा सदस्य और पत्रकार हैं

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