मोदी का विकास नहीं, संघ का हिंदुत्व ही बनेगा बीजेपी का सहारा
इन चार अहम चुनावों में इस रणनीति के साथ असम की सत्ता पर काबिज होकर पार्टी के लिए एक बात पूरी तरफ से साफ हो चुकी है कि उसे अब अपने हिंदुत्व कार्ड को अपना सबसे धारदार हथियार बनाना होगा.
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असम विधानसभा चुनाव के नतीजों ने बीजेपी के लिए एक बात साफ-साफ दीवार पर लिख दी है. सवाल केन्द्र की सत्ता में बरकरार रहने का हो या फिर एक-एक कर राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का, बीजेपी की मदद महज आरएसएस का हिंदुत्व एजेंडा करेगा न कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विकास का वह नारा जो बीते दो साल से पूरी तरह कुपोषण का शिकार बनकर रह गया है.
आप ही देखिए, दिल्ली में विकास के नाम पर आम आदमी पार्टी से दो-दो हाथ करके बीजेपी को क्या मिला? दिल्ली में बीजेपी का विकास औंधे मुंह गिर गया और कह सकते हैं कि राज्य के 70 विधायकों में उसके पास पार्टी का झंड़ा उठाने वाला कोई नहीं. जहां प्रधानमंत्री मोदी भारत को दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनाने और भ्रष्टाचार मुक्त राजधानी की बात करते रहे वहीं दिल्ली की जंग केजरीवाल ने सस्तीन बिजली, फ्री पानी, फ्री वाई-फाई, स्कूल-कॉलेज और अस्पताल जैसे मूलभूत जरूरतों की बात पर जीत ली. केजरीवाल का फॉर्मूला दोनों, प्रवासी दिल्ली वासियों और पुरबिया आबादी को ज्यादा सटीक लगा और मोदी की बातें महज अच्छे दिन का सुनहरा सपना बनकर रह गया.
कुछ ऐसी ही हालत बीजेपी की बिहार विधानसभा चुनावों में हुई जहां वोटरों ने मोदी के विकास और सॉफ्ट हिंदुत्व के मिश्रण को नकारते हुए आरजेडी और जेडीयू गठबंधन को सत्ता के लिए ज्यादा उपयुक्त माना. बिहार चुनावों में भले आरजेडी को सबसे ज्यादा सीटें मिली, लेकिन हकीकत यही है कि यहां वोट नितीश कुमार के नाम पर पड़ा. अपने कार्यकाल के दौरान नितीश कुमार ने बिहार में सड़क और बिजली की व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन कर दिखाया था. लेकिन बीजेपी के प्रचार के लिए प्रधानमंत्री मोदी को गलत सूचना दी गई और वो अपनी रैलियों में राज्य की सड़कों और बिजली व्यवस्था को ही कोसते रहे. बीजेपी ने दिल्ली की तरह बिहार चुनाव को भी मोदी बनाम अदर्स या कह लें मोदी सेंट्रिक कर दिया वहीं मतदान कर दोनों राज्यों के स्थानीयता को सबसे बड़ा मुद्दा घोषित कर दिया.
इन दोनों राज्यों से सबक मिलने के बाद बीजेपी की चुनौती पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल में थी जहां असम को छोड़कर पार्टी का अस्तित्व कहीं था ही नहीं. असम में 2011 के चुनावों में जहां कांग्रेस ने 78 सीटों पर जीत दर्ज कर सरकार बनाई थी वहीं बीजेपी के हाथ पहली 5 सीट लगी थी. जम्मू-कश्मीर के बाद असम देश का वह राज्य है जहां मुस्लिम जनसंख्या सर्वाधिक है. राज्य में 34 फीसदी मुसलमान वोटर हैं. वहीं कुल वोटरों में लगभग 10 फीसदी ऐसे मुस्लिम वोटर हैं जो बांग्लादेश से भारत में दाखिल हुए हैं और आज भारत की नागरिकता पा चुके हैं. इन आंकड़ो के साथ राज्य की बड़ी चुनौती सीमा की सीलिंग करना, घुसपैठ रोकना और बेरोजगारी है.
लिहाजा, बीजेपी ने इन सभी राज्यों में असम को अपनी नई रणनीति के लिए चुना जहां दिल्ली और बिहार की गलती को नहीं दोहराया गया. पहली कोशिश चुनाव को मोदी सेंट्रिक न करने के लिए सर्बानंद सोनोवाल को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया गया. वहीं अच्छे दिन और आर्थिक विकास की बातों को किनारे करते हुए संघ के उस तर्क को सबसे आगे रखने की कोशिश की जहां संघ का मानना है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति कर बड़ा लाभ उठाया जा सकता है. इसके चलते पार्टी ने 1990 के दशक में राम मंदिर मुद्दे पर हुए ध्रुवीकरण के बाद असम में पहली बार इसका इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया. पार्टी ने राज्य स्तर पर उन सभी वोटरों तक पहुंचने की कोशिश की जिसे बीते दशकों में अल्पसंख्यकों, खास तौर पर बांग्लादेश से आए हुए, से समस्या रही है. गौरतलब है कि असम में अल्पसंख्यकों के अलावा भी गैरमुसलमानों के बीच की राजनीतिक जमीन पर जाति और जनजाती का ध्रुवीकरण देखने को मिलता रहा है. इसके बावजूद पार्टी ने संघ की अहम धारणा, कि हिंदुत्व के मुद्दे पर वह जाति और जनजाती के भेद को पाट सकते हैं और हिंदू वोटर को अल्पसंख्यकों के खतरे पर एक कर सकते हैं, का सहारा लिया.
असम में लहराया भगवा |
लिहाजा, इन चार अहम चुनावों में इस रणनीति के साथ असम की सत्ता पर काबिज होकर पार्टी के लिए एक बात पूरी तरफ से साफ हो चुकी है कि उसे अब अपने हिंदुत्व कार्ड को अपना सबसे धारदार हथियार बनाना होगा. क्योंकि बीते चुनावों में उसे भ्रष्टाचार, विकास, अच्छे दिन और मोदी लहर के नाम पर महज मात देखने को मिली है वहीं असम में हिंदुत्व कार्ड के सटीक इस्तेमाल से हाथ नामुमकिन सत्ता लग गई है.
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