विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस और लेफ्ट को करारा तमाचा
यूं तो कांग्रेस और लेफ्ट के सितारे पहले ही गर्दिश में थे, लेकिन दादरी, हैदराबाद और जेएनयू में जैसी सांप्रदायिक और एंटी-नेशनल सियासत इन दोनों ने की है, ऐसा लगता है कि उससे पब्लिक में पैदा हुई नफ़रत का खामियाजा भी इन्हें भुगतना पड़ा है.
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पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से एक बात बिल्कुल साफ़ है कि देश की जनता अब कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों से पक चुकी है. उन्हें समझ में आ गया है कि ये दोनों एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं और इनके बीच पति-पत्नी जैसा रिश्ता है. इनके दिन के झगड़े का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि रात में इन्हें इकट्ठा ही रहना है. इसलिए, इन दोनों को जनता मजबूरी में अब सिर्फ़ वहीं चुन रही है, जहां उनके पास कोई तीसरा विकल्प नहीं है.
केरल में जनता के सामने इन्हीं दोनों में से किसी एक को चुनने की मजबूरी थी, इसके बावजूद कि आज दोनों की ही छवि सुपर-कॉम्युनल, एंटी-नेशनल, विचार व नेतृत्व से दिवालिया और दोहरे चरित्र वाली राजनीतिक ताकतों के रूप में बनी है. इसलिए अगर वहां कांग्रेस की सरकार जा रही है और लेफ्ट की आ रही है, तो कोई अनहोनी नहीं हो रही. आज अगर वहां लेफ्ट की सरकार होती, तो मुमकिन था कि उसकी चली जाती और कांग्रेस की चली आती. इसलिए केरल के परिणाम को मैं लेफ्ट पार्टियों के लिए सांत्वना मानने के लिए भी तैयार नहीं हूं.
पश्चिम बंगाल में जनता के पास तीसरा विकल्प था- ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का, इसलिए पब्लिक ने कांग्रेस और लेफ्ट दोनों का ऐसा सूपड़ा साफ़ किया कि भविष्य में "कहीं कुश्ती, कहीं दोस्ती" का दोगला खेल खेलने से पहले उन्हें सौ बार सोचना होगा. केरल में ये एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे और पश्चिम बंगाल में ये एक-दूसरे के साथ खड़े थे. भले पश्चिम बंगाल में ममता की लोकप्रियता बरकरार है, लेकिन अगर इन पार्टियों ने पब्लिक को मूर्ख समझने की मूर्खता न की होती, तो उनकी सीटें निश्चित रूप से ज़्यादा होतीं.
कांग्रेस और वामदल गठबंधन को जनता ने ठुकरा दिया है. |
तमिलनाडु में 32 साल बाद कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में लौट रही है, वरना वहां हर पांच साल में सरकार बदल जाने का ट्रेंड बन गया था. एमजी रामचंद्रन के बाद जयललिता यह कारनामा इसलिए कर पाईं, क्योंकि उनके विरोधी डीएमके को कांग्रेस ने छू दिया. डीएमके तो ख़ुद ही सुपर-भ्रष्ट पार्टी मानी जाती है, लेकिन उसके साथ अगर कांग्रेस भी मिल जाए, तो कैसे बुरे दिन आ सकते हैं, इसकी आशंका मात्र से ही लोग सिहर उठे.
असम में बीजेपी की जीत काफी हद तक मोदी और आरएसएस की जीत है. मोदी लगातार कहते रहे हैं कि पूर्वोत्तर भारत के विकास से ही भारत का विकास संभव है और आरएसएस ने बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा मजबूती से उठाया. असम की जनता ने मोदी और आरएसएस दोनों पर भरोसा किया और कांग्रेस को खारिज कर दिया. कांग्रेस के नेता आरएसएस की तुलना आइसिस से करते हैं, इसलिए आरएसएस को अगर सचमुच आइसिस मान लिया जाए, तो असम की जनता की नज़र में कांग्रेस आइसिस से भी गई-गुज़री है.
यूं तो कांग्रेस और लेफ्ट के सितारे पहले ही गर्दिश में थे, लेकिन दादरी, हैदराबाद और जेएनयू में जैसी सांप्रदायिक और एंटी-नेशनल सियासत इन दोनों ने की है, ऐसा लगता है कि उससे पब्लिक में पैदा हुई नफ़रत का खामियाजा भी इन्हें भुगतना पड़ा है. कांग्रेस से लोगों की दूरी इसलिए भी बढ़ती जा रही है, क्योंकि वह एक ऐसा नेता देश पर थोपना चाहती है, जिसमें काबिलियत का "क" भी लोगों को दिखाई नहीं दे रहा. जनता का संदेश स्पष्ट है कि वह नेता किसी वंश-विशेष का उत्तराधिकारी भले हो सकता है, लेकिन देश का अधिकारी नहीं हो सकता.
विचार के साथ-साथ नेतृत्व के दिवालिएपन से लेफ्ट को भी गुज़रना पड़ रहा है. हाल में उसने एक नेता ढूंढ़ा भी, तो ऐसा, जिसे ठोस सबूतों के अभाव में कोर्ट से भले जमानत मिल गई, लेकिन जिसकी छवि एक एंटी-नेशनल और वैचारिक रूप से ऐसे अपरिपक्व युवक की बनी, जो लच्छेदार बातों में फंसाकर लोगों को नफ़रत और नकारात्मकता का इंजेक्शन लगाना चाहता है.
बहरहाल, ऐसे चुनाव नतीजों का दूरगामी असर यह होगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जो एंटी-बीजेपी एलायंस बनेगा, उसमें कांग्रेस और लेफ्ट की हैसियत बेहद मामूली होगी. जहां तक बीजेपी का सवाल है, तो असम की जीत और अन्य राज्यों में बढ़ते जनाधार से उसे अभी फूलना नहीं चाहिए और यह भी भूलना नहीं चाहिए कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है और केंद्र में उसकी सरकार है. दो साल बीत चुके हैं और लोगों के अच्छे दिन लाने का वादा अभी पूरा नहीं हुआ है.
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