अयोध्या केस में 'धारा 370' और 'सबरीमाला फैसला' दोनों की छाप
Ram Mandir मामला अब आखिरी दौर में पहुंच चुका है. सुप्रीम कोर्ट नवंबर में अयोध्या केस का फैसला सुना सकता है. सबरीमाला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का राजनीतिक हश्र देखने के बाद - अयोध्या केस को लेकर दिलचस्पी यूं ही बढ़ जाती है.
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अयोध्या मामले के कई फलक हैं. हर फलक पर देखें तो सारी चीजें अलग तरीके से नजर आती हैं - और ये सारे ही ऐसे हैं जिनमें लोक हित का महत्व और लोक भावना व्यापक विस्तार लिये हुए है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के राजनीतिक असर के हिसाब से देखें तो एक फलक पर ये सबरीमाला मंदिर मुद्दे जैसा लगता है. एक अन्य फलक इसे धारा 370 के इर्द-गिर्द 360 डिग्री घुमाते हुए पेश करता है. एक फलक और भी है जहां चुनौतियों का अंबार कम से कम तीन खंभों पर टिका नजर आ रहा है - ये तीन खंभे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.
अब जबकि चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने सुनवाई की समय सीमा तय कर दी है. ये भी बता दिया है कि फैसला ड्राफ्ट करने में एक महीने का वक्त लग जाएगा - माना जा रहा है कि नवंबर में अयोध्या मामले का फैसला आ सकता है.
अब फैसला जो भी आये, फैसले का असर क्या होगा - काफी महत्वपूर्ण हो जाता है. सबसे महत्वपूर्ण है कि लोगों पर फैसले का क्या प्रभाव होगा और उससे देश की राजनीति किस हद तक प्रभावित होगी?
लोगों के लिए तो 'धारा 370' जितना ही अहम है!
दुनिया के हर विवाद में मुख्य तौर पर दो ही पक्ष होते हैं - एक दावा करता है और दूसरा उसे चैलेंज करता है. कुछ ही मामले ऐसे होते जिनमें दो के अलावा एक तीसरा पक्ष भी होता है - और वैसे मामले तो दुर्लभ ही होते हैं जो बहुपक्षीय कैटेगरी वाले होते हैं. होते भी हैं तो अपवाद स्वरूप ही.
अयोध्या केस में भी मुख्य तौर पर दो पक्ष हैं - राम लला विराजमान और मुस्लिम पक्षकार. एक पक्ष मंदिर चाहता है और दूसरा पक्ष मस्जिद. अयोध्या केस की ही तरह धारा 370 से जुड़े प्रमुख तौर पर दो ही पक्ष हैं. एक, जो चाहता था कि धारा 370 में कोई बदलाव न हो - दूसरे पक्ष को ये लगता रहा कि उसकी न तो हिस्सेदारी है और न ही जम्मू-कश्मीर के स्पेशल स्टेटस का उसे कुछ खास फायदा ही मिल रहा. यही वजह है कि सबसे ज्यादा खुशी लद्दाख के लोगों में देखी जा रही है जिसे अब एक अलग केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया है.
अगर अयोध्या केस की धारा 370 से तुलना करके देखें तो एक पक्ष मंदिर चाहता है. ये पक्ष आबादी के मामले में प्रतिवादी के मुकाबले ज्यादा है और जैसे भी मुमकिन हो राम जन्मभूमि पर मंदिर ही देखना चाहता है.
कहीं सुप्रीम कोर्ट का फैसला मोदी सरकार को सबरीमाला केस जैसी मुश्किल में तो नहीं डाल देगा?
मंदिर समर्थक लोगों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी खड़ा है. RSS प्रमुख तो अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए कानून तक बनाने की मांग कर चुके हैं. ये बात अलग है कि आम चुनाव की वजह से संघ और उससे जुड़े संगठनों ने राम मंदिर का मामला होल्ड कर लिया था - चुनाव बाद वे लोग फिर से हावी हैं. मंदिर समर्थक लॉबी का सवाल है कि अगर मंदिर अभी नहीं बनेगा तो कभी नहीं बन पाएगा. अभी से आशय दिल्ली में नरेंद्र मोदी और लखनऊ में योगी आदित्यनाथ की सरकारों से है.
धारा 370 और अयोध्या केस में सबसे बड़ा फर्क ये है कि फैसला संसद से नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट से आने वाला है. संविधान में संसद सर्वोच्च है - लेकिन प्रक्रियाओं की समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को मिला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के हर फैसले को संसद चाहे तो बहुमत से बदल सकती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट संसद के हर संशोधन को संविधान में स्थापित पैमानों पर रख कर पैमाइश कर सकता है.
बाकी चीजों की तरह यहां भी तकनीकी के साथ साथ व्यावहारिक पक्ष भी है - व्यावहारिक पक्ष का दबदबा हमेशा ही कायम रहा है इसलिए तकनीक पीछे छूट जाती है.
संसद संवैधानिक प्रक्रियाओं के हिसाब से देश हित में फैसले लेती है. सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में कानूनी दायरों में रहते हुए नैसर्गिक न्याय को सबसे ऊपर रखते हुए फैसला सुनाता है.
मान कर चलना होगा अयोध्या केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद हालात भी वैसे ही होंगे जैसे अभी धारा 370 को लेकर देश में राजनीतिक माहौल हैं - और चुनौतियां भी मान कर चलना होगा वैसी ही होंगी जैसा सबरीमाला पर फैसले के बाद बन पड़ी थीं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबरीमाला जैसा हाल न हो
अयोध्या केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से होने वाले राजनीतिक असर को सबरीमाला केस से समझने की कोशिश की जा सकती है. सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केरल में कानून व्यवस्था लागू करना बहुत बड़ी चुनौती हो गयी थी. राजनीतिक बयानबाजी के बीच ऐसे कई वाकये भी हुए जिसमें टकराव की स्थिति पैदा हो जाती रही. कई महिलाएं ऐसी थीं जो मंदिर में प्रवेश की जिद पर अड़ी रहीं तो विरोधी पक्ष किसी भी सूरत में मंदिर का फाटक खोलना तो दूसर सीढ़ियां चढ़ने देने को भी तैयार न था.
अब जरा फैसले के बाद संघ और बीजेपी से जुड़े संगठनों के नेताओं के बयान याद करके देख लीजिए. हर कोई सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खड़ा हो गया था - अमित शाह तो अगुवाई ही कर रहे थे.
क्या अजीब राजनीतिक माहौल बन गया था. सबरीमाला पर देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले का विरोध हो रहा था और अयोध्या मामले में जल्द फैसला सुनाने का दबाव बनाया जाने लगा था. मौका आम चुनाव का जो था.
अयोध्या मामला और सबरीमाला पर फैसले को लेकर देखें तो राजनीति के हिसाब से एक बड़ा फर्क ये है कि यूपी में भी बीजेपी की ही सरकार है - जबकि केरल में लेफ्ट की. पी. विजयन मुख्यमंत्री हैं.बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने तो केरल दौरे में सीधे सीधे कह डाला - अदालत को फैसला ऐसा सुनाना चाहिये जिस पर अमल करना संभव हो सके. सवाल ये हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसा कैसे हो सकता है जिसका अनुपालन केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार के लिए संभव न हो, मुश्किल जरूर हो सकता है. चुनौतियां चुनौतियां ही होती हैं. सबरीमाला पर फैसले का राजनीति फायदा उठाने कि चौतरफा कोशिशें हुईं - और आम चुनाव के नतीजों ने उस पर जनता की राय भी बता दी.
फर्ज कीजिए अयोध्या केस में भी फैसले का भी सबरीमाला जैसा राजनीतिक पक्ष खड़ा हो जाये - तो क्या मान कर चलना चाहिये कि अमित शाह से लेकर योगी योगी आदित्यनाथ तक सभी का रवैया बिलकुल वैसा ही होगा. सभी लाइन लगाकर फैसले के खिलाफ खड़े हो जाएंगे?
जाहिर से फैसले से लोग तो बंटेंगे ही - और राजनीति भी वही लाइन पकड़ेगी जैसे शाहबानों केस में पकड़ी गयी - और लेटेस्ट देखें तो SC/ST कानून का उदाहरण है ही. अगर संसद तय कर ले कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट देना है, फिर तो वैसा ही होगा जैसे दोनों मामलों में हुआ था.
जहां तक सवाल राजनीतिक दबदबे और उसके विरोध का है - तो अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे धारा 370 के मामले में हुआ - सरकार जैसे चाहेगी काम वैसे ही होगा. अब तो विरोध की आवाज भी काफी धीमी पड़ गयी है. पी. चिंदबरम और डीके शिवकुमार जेल में हैं - और केजरीवाल के बाद ममता बनर्जी ने भी मोदी मोदी शुरू कर ही दिया है.
अयोध्या केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के हालात को संभालने की महती जिम्मेदारी तीन कंधों पर मुख्य रूप से है, वे हैं - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ. हालात को संभालने से आशय सिर्फ कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी नहीं है. वैसे भी यूपी की कानून व्यवस्था पहले से ही ऑटो-मोड में चल रही है जिसमें पहले पायदान पर एनकाउंटर ही नजर आता भी है.
बीजेपी सांसद राम लला का दर्शन करने अयोध्या पहुंचे थे और तभी बता दिया था कि नवंबर में ही फैसला आएगा - और रामलला के पक्ष में ही आएगा. स्वामी की आधी भविष्यवाणी तो ट्रैक पर नजर आ रही है आधे पर वक्त की परत चढ़ी हुई है. स्वामी ने ये भी बता दिया कि इसी साल राम मंदिर के निर्माण का काम भी शुरू हो जाएगा.
अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई की डेडलाइन 18 अक्टूबर करने के बाद संकेत दे दिया है कि फैसला नवंबर में आ सकता है. हालांकि, साथ ही साथ मध्यस्थता की कोशिशें भी एक बार फिर नये सिरे से हो रही हैं - लेकिन सुनवाई पर उसका कोई असर नहीं होगा.
सवाल ये है कि सुब्रह्मण्यन स्वामी इतनी सटीक भविष्यवाणी कर कैसे लेते हैं - राजनीतिक घटनाओं के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर भी?
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