अयोध्या केस: सुप्रीम कोर्ट ने तो फैसला सुनाने से ज्यादा टालने का इंतजाम किया है!
2017 और 2019 के आम चुनाव के समय फेल हो चुकी अयोध्या मसले पर मध्यस्थता की कवायद एक बार फिर चल रही है, जिसका सुनवाई पर असर नहीं पड़ने वाला है - लेकिन लगता तो ऐसा ही है जैसे फैसला टालने का इंतजाम हो चुका है.
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अयोध्या मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और मध्यस्थता की कोशिश साथ साथ चल रही है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि मध्यस्थता की वजह से सुनवाई पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. सुनवाई अपने तरीके से चलती रहेगी. हो सकता है शनिवार को छुट्टी के दिन भी सुनवाई हो.
बेशक सुप्रीम कोर्ट अयोध्या केस में इंसाफ करेगा, लेकिन ये तो तय है कि वो या तो राम लला विराजमान के पक्ष में होगा या फिर मुस्लिम पक्षकारों के. शक इस बात में भी कोई नहीं है कि फैसला किसी के पक्ष में नहीं आने पर भी उसे मान्य होगा ही. हां, पुनर्विचार याचिकाओं के लिए तो सुप्रीम कोर्ट के ही द्वारा आधी रात को भी खुले रहेंगे.
सवाल ये है कि क्या मध्यस्थता के टेबल पर सकारात्मक संकेत मिले तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में क्या फैसला होगा? क्या CJI जस्टिस रंजन गोगोई और संविधान पीठ में उनके साथी जज मध्यस्थता को सिरे से खारिज कर देंगे?
अगर मध्यस्थता की वजह से फैसले को रोका गया और तब तक चीफ जस्टिस रिटायर होने का वक्त आ गया, फिर तो फैसले पर फैसला टलना तय ही मान कर चलना होगा? क्या ऐसा नहीं लगता कि मध्यस्थता की नयी कवायद से अयोध्या मसले पर फैसला टलने का भी इंतजाम अपनेआप हो गया है?
कितना टाइम लगेगा?
CJI जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवंबर, 2019 को रिटायर होने वाले हैं - और उससे ठीक एक महीने पहले 18 अक्टूबर तक अयोध्या मामले में सुनवाई पूरी होने की अपेक्षा की जा रही है. फैसला लिखने में एक महीना लग सकता है जो जस्टिस गोगोई के रिटायर होने के दिन तक संभव है.
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के वक्त जस्टिस रंजन गोगोई ने ही कहा कि 18 अक्टूबर तक दलीलें और सुनवाई पूरी हो जानी चाहिये ताकि उसके बाद बचे महीने भर के वक्त में फैसला लिखा जा सके. ये समय सीमा भी सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से पूछ कर ही तय की है.
मुस्लिम पक्ष ने 27 सितंबर तक अपनी दलीलें खत्म हो जाने की बात कही है. हिंदू पक्ष का कहना है कि सवाल-जवाब में दो दिन लग जाएंगे. मुस्लिम पक्ष को भी सवाल जवाब में दो दिन और लगेंगे. यानी दोनों पक्ष की दलीलें खत्म होने के बाद चार दिन सवाल जवाब में लगेंगे. उसके बाद कुछ और भी काम बचेंगे और यही सोच कर 18 तारीख तक सब पूरा होने की उम्मीद जतायी है.
चीफ जस्टिस ने ये भी कहा है कि अगर जरूरत पड़ी तो वो शनिवार को भी सुनवाई करेंगे - और फिर महीने भर में फैसले का ड्राफ्ट तैयार किया जा सकेगा.
अयोध्या केस में फैसला एक बार फिर आने वाला है!
ऐसी ही उम्मीद एक बार 2018 में भी लगने लगी थी. तब देश के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा थे और माना जाने लगा था कि दिवाली से पहले ही सुप्रीम कोर्ट से फैसला आ जाएगा. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में दिवाली मनाने की पहले से ही तैयारी कर रखी थी और मंदिर समर्थकों के मन में भी जय श्रीराम लगातार गूंजने लगा था.
तब भी कोर्ट ने तय किया था कि रोजाना सुनवाई रोजाना सुनवाई करके जल्दी निबटाया जाएगा - और जस्टिस दीपक मिश्रा ने ये भी कहा था कि 'हमारे लिए ये मामला आस्था का नहीं बल्कि एक आम भूमि विवाद है. लिहाजा हम इसी नजरिये से इस मामले की सुनवाई करेंगे.'
ये तो नहीं मालूम कि एक पक्ष के वकील राजीव धवन ने एक दिन कह दिया कि केस में 10 हजार पेज से ज्यादा के दस्तावेज हैं - और 'मीलॉर्ड! आप कितनी भी कोशिश कर लें इस मामले का फैसला आपके कार्यकाल में नहीं आ सकता.'
करीब साल भर बात अयोध्या केस एक बार फिर उसी मोड़ पर पहुंच गया है और जस्टिस दीपक मिश्रा की ही तरह जस्टिस रंजन गोगोई के रिटायर होने से पहले फैसले की उम्मीद भी वैसे ही की जा रही है.
कैसा हो सकता है अयोध्या पर फैसला?
बहुमत का फैसला फाइनल माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट में भी और लोकतंत्र के चुनाव में भी. जरूरी नहीं कि किसी भी फैसले में बेंच के सभी जज एक राय हों - लेकिन जो राय बहुमत की होती है, आखिरी मानी जाती है.
अयोध्या केस में मामला जिस फैसले से आगे बढ़ा है वो है इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला. अपने फैसले में हाईकोर्ट ने ने 2.77 एकड़ की विवादित जमीन को तीन बराबर हिस्सों में बांट दिया था. एक हिस्सा हिंदू महासभा को जिसमें रामलला विराजमान हैं, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को.
30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ, तीन महीने बाद दिसंबर में हिंदू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया - और 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने पुरानी स्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया. तब से यथास्थिति बरकरार है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट की जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने ये ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. दिलचस्प पहलू ये रहा कि ये फैसला भी आम राय से नहीं बल्कि 2:1 के बहुमत से सुनाया गया था.
सुप्रीम कोर्ट से ये फैसला किस रूप में आता है ये देखना भी बेहद दिलचस्प होगा. क्या अयोध्या केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आम राय से आएगा या फिर वहां भी कम से कम 3:2 या 4:1 के बहुमत से आएगा?
सुप्रीम कोर्ट नैसर्गिक न्याय के लिए बना है और पीठ के हर जज को अपना अपना फैसला सुनाना होता है जिसमें सभी का अपना अपना तर्क होता है. केस को और केस से जुड़े हालात को देखने का अपना अपना नजरिया होता है - और सभी की बातें फैसले में दर्ज भी होती हैं.
मध्यस्थता को कितना महत्व मिलेगा?
अयोध्या मसले पर जस्टिस कलीफुल्ला पैनल से पहले मध्यस्थता की बहुत सारी कोशिशें हो चुकी हैं. हालांकि, ज्यादातर कोशिशें राजनीतिक या निजी स्तर पर रही हैं. सिर्फ श्रीश्री रविशंकर ऐसी शख्सियत हैं जो निजी हैसियत और सुप्रीम कोर्ट के फॉर्मल पैनल दोनों में काम कर चुके हैं.
अयोध्या को लेकर औपचारिक मध्यस्थता का जहां तक सवाल है, ऐसा पहली बार 2017 में हुआ जब तत्कालीन CJI जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने 'आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट' का मौका देने की पहल की. खंडपीठ की राय रही कि मामला चूंकि धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है इसलिए दोनों पक्षों को सुलह के प्रयास का एक मौका निश्चित रूप से मिलना चाहिये.
2019 के आम चुनाव से पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस एफएम कलीफुल्ला के साथ सीनियर वकील श्रीराम पंचू और श्रीश्री रविशंकर को मिला कर एक पैनल बनाया था. जब कोई नतीजा नहीं निकला तो सुप्रीम कोर्ट ने रोजाना सुनवाई का फैसला किया.
मालूम हुआ कि अयोध्या केस से संबंधित पक्षों ने फिर से मध्यस्थता पैनल को पत्र लिख कर बातचीत के जरिये हल खोजने के प्रयास की बात कही है. चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान ही ये बात बतायी और साफ कर दिया कि ऐसी कोशिशें करने वाले स्वतंत्र हैं, लेकिन सुनवाई जारी रहेगी.
अयोध्या केस आम जन की भावना से जुड़ा सामाजिक मामला तो है ही, राजनीति इसमें गहरी पैठ बना चुकी है. ऐसे कई नेता हैं जिनका राजनीतिक जीवन अयोध्या केस से बना भी और बिगड़ा भी है.
मामला संवेदनशील होने के कारण सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का हर सदस्य इसकी अहमियत को समझता है - और यही वजह है कि ये मामला अब तक टलता ही रहा है. मध्यस्थता की हर कोशिश हर मामले में अच्छी ही होती है - लेकिन वो फैसला टालने की कीमत पर तो हरगिज नहीं होनी चाहिये. वैसे अब तक तो यही होता आया है.
अब सुप्रीम कोर्ट पर महती जिम्मेदारी आ चुकी है कि अयोध्या केस को अंजाम तक पहुंचाया जाये. फैसला जो भी हो और मौजूदा सरकार को जैसा भी लगे - वो अमल में लाने लायक है या नहीं इसकी परवाह की न तो किसी को अपेक्षा होनी चाहिये और न ही ऐसा कुछ होना ही चाहिये. फैसला जो भी हो इतना जरूर होना चाहिये कि किसी को राजनीतिक करने की गुंजाइश कम ही बची हो.
अयोध्या केस में फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट की तत्परता ऐसी तो होनी ही चाहिये कि वो किसी भी सूरत में एक बार फिर मध्यस्थता की भेंट न चढ़ जाये. दो साल के भीतर अयोध्या मसले में मध्यस्थता की ये तीसरी कोशिश चल रही है. खास बात ये है कि सुनवाई और मध्यस्थता दोनों ही इस बार एक साथ जारी है.
मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सबसे ज्यादा तरजीह सुनवाई को ही देने वाला है, लेकिन तब क्या होगा अगर मध्यस्थता में फिर से कोई उम्मीद दिखी - तब क्या उसे नजरअंदाज कर दिया जाएगा? अगर ऐसा होता तो एक बार सब फेल हो जाने के बाद फिर से शुरू ही क्यों किया जाता?
फर्ज कीजिए, सुनवाई पूरी होने और फैसला लिखे जाने से पहले अयोध्या केस के दोनों पक्ष कोई सकारात्मक संकेत देते हैं - तो क्या चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के लिए मध्यस्थता को दरकिनार करना मुश्किल नहीं होगा. फैसला तो जाहिर है कोई एक पक्ष अपने खिलाफ मानेगा ही, लेकिन मध्यस्थता में तो जो भी होगा दोनों पक्षों की सहमति से ही होगा. अब जस्टिस रंजन गोगोई अपने फैसले को तरजीह देते हैं या मध्यस्थता को - ये भी उनका ही फैसला होगा.
एक बात नहीं समझ में आती. आखिर क्यों अयोध्या पर फैसला अंतिम दौर में तभी पहुंचता है जब देश के मुख्य न्यायाधीश रिटायर होने वाले होते हैं - कम से कम दो ऐसे मौके तो आये ही हैं, जब जस्टिस दीपक मिश्रा रिटायर होने वाले थे और जस्टिस रंजन गोगोई रिटायर होने वाले हैं - और यही शक पैदा करता कि इस बार फैसला आएगा ही!
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