बाबुल सुप्रियो एक एक्सीडेंटल पॉलिटिशियन के रूप में याद रहेंगे
बाबुल सुप्रियो (Babul Supriyo) अपना राजनीतिक गुरु स्वामी रामदेव (Swami Ramdev) को बताते हैं जो योग गुरु से कारोबारी बन चुके हैं - बाबुल का अगला फेसबुक अपडेट आने तक भाजपा (BJP) में उनकी राजनीतिक पारी को कैसे देखा जाना चाहिये?
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बाबुल सुप्रियो (Babul Supriyo) संयोगवश ही राजनीति में आये थे - अब 'अलविदा' बोल दिया है. अभी के लिए तो मान लेना होगा चले भी गये. कम से कम बाबुल सुप्रियो के अगले फेसबुक अपडेट आने तक.
राहुल गांधी और नवजोत सिंह सिद्धू से थोड़ा अलग बाबुल सुप्रियो ने अपना ताजा इस्तीफा फेसबुक पर दिया है. राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश के काफी दिनों बाद सार्वजनिक घोषणा की थी. नवजोत सिद्धू ने भी मंत्री पद से इस्तीफे के मामले में अपने 'कैप्टन' को ही फॉलो किया था.
मंत्री पद के साथ गाड़ी तो पहले ही छिन चुकी थी, सरकारी बंगले को लेकर बोला है महीने भर में खाली कर देंगे. सिद्धू ने ये काम तत्काल करने की बात कही थी. बहरहाल, अब तो सिद्धू नयी पारी में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसा फील गुड महसूस कर रहे हैं. कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री हैं जबकि सिद्धू पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष - बीजेपी छोड़े सिद्धू को पांच साल हो गये, लेकिन फील गुड फैक्टर मेंटेन कर रहे हैं.
बाबुल सुप्रियो अपना राजनीतिक गुरु स्वामी रामदेव (Swami Ramdev) को बताते हैं - और कैसे आसमान में उड़ते उड़ते संसद पहुंच गये पूरा किस्सा सुना चुके हैं - अब सवाल ये उठता है कि बाबुल सुप्रियो की राजनीतिक पारी को कैसे याद किया जाएगा?
बाबुल सुप्रियो 2014 में पहली बार बीजेपी (BJP) का टिकट पाने के बाद पश्चिम बंगाल के आसनसोल से सांसद बने और ऐसे किस्मतवाले रहे कि मोदी सरकार में मंत्री भी बन गये और उनसे उम्र में छोटे लेकिन पांच बार के सांसद योगी आदित्यनाथ बस देखते रह गये. बाबुल सुप्रियो को तब सबसे युवा मंत्री का खिताब भी मिला था, फिलहाल ये अपना दल नेता अनुप्रिया पटेल के पास है.
लेकिन मंत्री पद चले जाने के महीने भर के भीतर ही बाबुल सुप्रियो ने राजनीति से ही संन्यास लेने की घोषणा कर डाली है - और ये बात उनके इस दावे का काउंटर कर रहा है कि समाजसेवा तो वो राजनीति से दूर रह कर भी कर सकते हैं. बाबुल सुप्रियो के केंद्रीय मंत्री रहते ही बीजेपी ने बंगाल चुनाव में टॉलीगंज विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया था, लेकिन वो हार गये थे.
बाबुल सुप्रियो लगे हाथ एक गारंटी भी दे रहे हैं कि वो किसी और पार्टी में नहीं जा रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी को ही अपनी पहली और आखिरी पार्टी बता रहे हैं - लोग चाहें तो इसे तात्कालिक सफाई या बाबुल सुप्रियो के डिस्क्लेमर के तौर पर भी समझ सकते हैं.
गाड़ी छिन गयी तो बंगला भी खाली हो जाएगा!
लोग थोड़ा लिख कर ज्यादा समझ लेने की बात करते हैं, लेकिन बाबुल सुप्रियो ने समझने के लिए कुछ ही बातें छोड़ी हैं, बाकी पूरा लिख दिया है. संसद की सदस्यता और बीजेपी छोड़ने के साथ साथ राजनीति से संन्यास लेने की भी घोषणा कर डाली है - 'अलविदा!'.
बाबुल सुप्रियो ने साफ तौर पर लिखा है कि तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस या सीपीएम किसी ने भी उनको बुलाया नहीं है - न ही किसी पार्टी ने उनको फोन किया है और न ही वो कहीं जा रहे हैं.
बाबुल सुप्रियो लिखते हैं, 'मैं सिर्फ एक टीम का खिलाड़ी हूं और हमेशा एक टीम का समर्थन किया है... सिर्फ एक पार्टी की है BJP वेस्ट बंगाल.'
बाबुल सुप्रियो ने तो अपने राजनीतिक गुरु की दास्तां सुना डाली है - अभी बाबा रामदेव के संस्मरण सुनना बाकी है!
हाल ही में बाबुल सुप्रियो के तृणमूल कांग्रेस और मुकुल रॉय को ट्विटर पर फॉलो करने की खबरें आयीं तो उनकी ममता बनर्जी से नजदीकियां देखी जाने लगी. और कोई तो नहीं लेकिन अक्सर अपने ट्वीट के लिए विवादों में रहने वाले बीजेपी नेता और पूर्व राज्यपाल तथागत रॉय ने बाबुल सुप्रियो का बचाव जरूर किया था. तथागत रॉय ने कहा था कि अरसा हो गया वो भी ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी को फॉलो करते हैं, तो क्या पार्टी बदलने जा रहे हैं. तथागत रॉय को ये भरोसा था कि बाबुल सुप्रियो भी बीजेपी नहीं छोड़ेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
बाबुल सुप्रियो की फेसबुक पोस्ट काफी इमोशनल है - कुछ कुछ इमोशनल अत्याचार जैसा और कुछ कुछ दार्शनिक अंदाज लिये हुए भी. बाबुल सुप्रियो ने अपनी पोस्ट बांग्ला में लिखी है और उसमें खूब मन की बात की है. कई ऐसी बातें हैं जो लगता है उनको कचोट रही हैं और लगता है ऐसा संबंधित पक्षों के साथ भी होगा -
1. सबकी राय एक: "अब चलता हूं... अलविदा! (बाबुल सुप्रियो ने बांग्ला में 'चोललाम' लिखा है) मैंने सब कुछ सुना - पिता, मां, पत्नी, बेटी, एक-दो प्यारे दोस्त... सबकी राय के बाद ऐसा महसूस हुआ कि मुझे अब राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिये."
2. शांति की तलाश है: "मुझे एक सवाल का जवाब देना है... सवाल ये है कि मैंने राजनीति क्यों छोड़ी? क्या इसका मंत्रालय छोड़ने से कोई लेना-देना है? हां, है - वहां कुछ होना चाहिये! मैं घबराना नहीं चाहता, जैसे ही इस सवाल का जवाब दूंगा... मुझे भी शांति मिलेगी."
3. चुनावों में क्या हुआ: "चुनाव से पहले ही कुछ मुद्दों पर बंगाल लीडरशिप के साथ मतभेद थे... कुछ मुद्दे सार्वजनिक तौर पर सामने आ रहे थे... कहीं न कहीं मैं भी जिम्मेदार हूं... अन्य नेता भी जिम्मेदार हैं... ये समझने के लिए 'रॉकेट साइंस' के नॉलेज की जरूरत नहीं है कि ये कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ता है."
4. प्लीज गलत न समझें: "अमित शाह और जेपी नड्डा जी के पास गया था और बताया भी कि मैं क्या महसूस कर रहा हूं... मेरी हिम्मत नहीं उनके पास जाकर ये कहूं... मैंने काफी पहले ही फैसला कर लिया था तो अब उनके पास जाऊंगा तो लगेगा कि मैं मोलभाव कर रहा हूं... मैं प्रार्थना करूंगा कि वो मुझे गलत न समझें."
5. बरसों बाद, एक बार फिर: "मैंने वही किया जब मैंने 1992 में स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक की नौकरी छोड़ दी और मुंबई भाग गया... मैंने आज भी वही किया है !"
एक एक्सीडेंटल पॉलिटिशियन!
राजनीति बहुतों को आकर्षित करती है, लेकिन ऐसे कम ही होते हैं जो खिंचे चले जाते हैं. राजनीतिक पारी शुरू भी हो जाती है, लेकिन ज्यादा दिन टिकते नहीं. आखिरकार एक दिन लौट जाते हैं. कुछ लोग जिंदगी में भी काफी आगे बढ़ जाते हैं.
एक ताजातरीन मिसाल बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय ही हैं. बिहार चुनाव से पहले डीजीपी रहते, गुप्तेश्वर पांडेय ऐसे पेश आ रहे थे जैसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रवक्ता हों. बाद में एक दिन नीतीश कुमार के पास पहुंचे और आशीर्वाद स्वरूप जेडीयू की सदस्यता भी ले ली. फिर इंतजार रहा बक्सर से टिकट मिलने का. कह तो रहे थे कि कहीं से भी चुनाव लड़ सकता हूं, लेकिन लिस्ट में कभी नाम ही नहीं आया - और ऐसा उनकी जिंदगी में दूसरी बार हुआ.
एक बार राजनीति के चक्कर में पहले भी पुलिस सेवा छोड़ चुके थे. दोबारा भी वॉलंटरी रिटायरमेंट ले लिया. बताया तो यही कि कहीं कुछ गड़बड़ी हो जाती और चुनाव आयोग बेइज्जत कर देता तो?
लेटेस्ट अपडेट ये है कि गुप्तेश्वर पांडेय अब वृंदावन पहुंच गये हैं और भगवत कथा सुना रहे हैं - प्रवचन कर रहे हैं. बाबा बन गये हैं.
एक शख्स चुनाव लड़ने के लिए टिकट न मिलने पर बाबा बन जाता है, और एक है कि बाबा बन कर लोगों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिलाता है. जैसे बाबा रामदेव की बदौलत बाबुल सुप्रियो को लोक सभा का टिकट मिल गया, 1984 में गांधी परिवार की वजह से अमिताभ बच्चन भी चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन बहुत ही जल्दी बोरिया बिस्तर बांध राजनीति से चलते बने.
अपनी फील्ड में ऊंचाइयां छूने और राजनीति में पैराशूट एंट्री मिल जाने के बाद भी बहुत कम लोग चल पाते हैं - और किरण बेदी का भी ऐसा ही उदाहरण है. 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी नेतृत्व ने किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था. बीजेपी चुनाव हार गयी तो मुआवजे के तौर पर किरण बेदी को पुडुचेरी का उप राज्यपाल बना दिया.
किरण बेदी का कार्यकाल भी दिल्ली के एलजी से कम चर्चित नहीं रहा. नतीजा ये हुआ कि हाल के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले मोदी सरकार ने किरण बेदी को हटा दिया - और अब तो वहां बीजेपी की सरकार भी बन चुकी है.
सवाल ये है कि किरण बेदी का हासिल क्या है? अमिताभ बच्चन तो मानते हैं कि राजनीति ने उनका तो कई साल तक जीना हराम किये रखा, जब तक कि सारे आरोपों से औपचारिक तौर पर निजात नहीं मिल गयी - बाबुल सुप्रियो के साथ आखिरी वक्त में जो भी हुआ, कम से कम उनके पास सत्ता सुख के कुछ यादगार पल तो होंगे ही.
जब दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रह चुके मनमोहन सिंह भी यहां तक कह चुके हों, "मैं मानता हूं कि तात्कालिक मीडिया की तुलना में इतिहास मेरे प्रति दयालु होगा," फिर बाबुल सुप्रियो के बारे में क्या कहा जाये.
हो सकता है बाबुल सुप्रियो अपना ट्विटर प्रोफाइल आगे चल कर बदल लें, लेकिन अभी तो साफ साफ लिखा है कि दिल से वो गायक हैं, लेकिन दिल से वास्तव में पॉलिटिशियन नहीं हैं.
प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू की एक किताब के टाइटल के चलते मनमोहन सिंह को 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' के तौर पर भी जाना और बहुत हद तक समझा भी जाता है - और अब तो लगता है बाबुल सुप्रियो को भी एक 'एक्सीडेंटल पॉलिटिशियन' के रूप में भी याद किया जाएगा.
वैसे यूं ही एक सवाल दिमाग में कौंध रहा है. ममता बनर्जी के दिल्ली से कोलकाता लौटते ही बाबुल सुप्रियो ने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. ये भी उनके राजनीति ज्वाइन करने की तरह संयोगवश ही है क्या? बाबुल सुप्रियो की अगली फेसबुक पोस्ट का बड़ी बेसब्री से इंतजार है.
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