तीसरे मोर्चे के सहारे ही सही, जम्मू कश्मीर में सरकार तो बननी ही चाहिये
दिल्ली में चल रही तीसरे मोर्चे की कवायद को अरविंद केजरीवाल ने ताजा ताजा झटका दिया है, लेकिन जम्मू-कश्मीर ऐसा ही मोर्चा बनने को तैयार है. अच्छा है इमरान खान के शपथ लेते लेते घाटी में भी कोई कुर्सी संभाल ले.
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देश में खड़े होने की कोशिश में तीसरा मोर्चा बार बार भले लुढ़क रहा हो, जम्मू-कश्मीर में ये दौड़ने की तैयारी कर रहा है. सूबे में कुछ ऐसी ही कवायद चल रही है जिसमें महबूबा मुफ्ती को छोड़ कर सरकार बनाये जाने के रास्ते खोजे जा रहे हैं.
ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी और पीडीपी से इतर दूसरी पार्टियां जम्मू और कश्मीर में सरकार बनाने में जुटी हैं. ताजा कोशिश में भी पर्दे के पीछे बीजेपी ही खड़ी है - और पीडीपी के कुछ नेता भी, सिर्फ महबूबा मुफ्ती इस मिशन से बाहर हैं.
सरकार बनाने की कोशिशें
जम्मू-कश्मीर में सरकार नहीं, बीजेपी को तो बस महबूबा मुफ्ती से दिक्कत रही है. ये भी संभव था कि अगर महबूबा मुफ्ती कुर्सी छोड़ने को राजी हुई रहतीं तो गठबंधन सरकार की सेहत पर शायद ही कोई फर्क पड़ा होता. महबूबा के जाने के बाद सूबे की कमान गवर्नर एनएन वोहरा के जिम्मे है तो, लेकिन कब तक?
जम्मू और कश्मीर में तीसरे मोर्चे की चर्चा बीजेपी महासचिव राम माधव के दो दिन के दौरे के बाद शुरू हुई है. निकलते निकलते, बताते हैं, राम माधव ने राज्य के कई बीजेपी नेताओं दिल्ली आने को भी कह रखा है. मीडिया से बातचीत में स्थानीय बीजेपी नेताओं ने संकेत दिया है कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस को छोड़कर तीसरे विकल्प पर काम किया जाना जरूरी हो गया है - और उसी दिशा में कोशिशें चल रही हैं.
तीसरा मोर्चा खड़ा करने में जुटे राम माधव
सवाल उठता है कि पीडीपी, बीजेपी और नेशनल कांफ्रेंस के अलावा आखिर और कौन हो सकता है जो सरकार का नेतृत्व कर सकता है?
सवाल का जवाब भी बातचीत में ही मिल जाता है और उभर कर नाम आता है - सज्जाद गनी लोन.
पीपल्स कांफ्रेंस के चेयरमैन सज्जाद गनी लोन के साथ बीजेपी नेताओं की बैठक ने इस चर्चा को हवा दी. राम माधव और सज्जाद गनी लोन की, सूत्रों के अनुसार, मुलाकात ने हवा में आग का धुआं दिखा दिया और पीडीपी के बागी नेताओं के साथ लोन की मीटिंग तो यही कंफर्म कर रही है कि आग लगी हुई है. बागी नेताओं की इन गतिविधियों की पुष्टि इस बात से भी होती है कि खुद महबूबा मुफ्ती सीधे सीधे चेतावनी दे चुकी हैं कि अगर पीडीपी को तोड़ने की कोशिश हुई तो नतीजे गंभीर होंगे.
ऐसे में स्थिति ये बन रही है कि अगर पीडीपी के कुछ नेता सज्जाद लोन के नाम पर तैयार हो जाते हैं और बीजेपी सपोर्ट कर देती है तो सरकार बनने का रास्ता साफ हो जाएगा. सज्जाद लोन, दरअसल, अलगाववादी नेता मरहूम अब्दुल गनी लोन के बेटे हैं - और जब मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार बनी तो उसमें शामिल हुए थे. आपको याद होगा मुफ्ती मोहम्मद सईद के शपथ के मौके पर सज्जाद गनी लोन की मौजूदगी विशेष तौर पर दर्ज की गयी थी. ये भी याद होगा कि सज्जाद गनी लोन नाराज भी हो गये थे क्योंकि उन्हें उनके मनमाफिक मंत्रालय मिलने की जगह कम महत्व का विभाग दिया गया था. ये सारी बातें हैं तो बीते दिनों की लेकिन महबूबा से उनके पुराने मतभेद और उनके नाम पर सहमति बनने से उनकी अहमियत काफी बढ़ जाती है.
माना जा रहा है कि सरकार बनाने की कोशिशें तो बीच बीच में होती रही है, लेकिन अमरनाथ यात्रा चलने तक सब शांति से बैठे थे. अब यात्रा खत्म होने के बाद से ये गतिविधियां बढ़ गयी हैं.
सरकार बनाने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं
मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जब महबूबा मुफ्ती सरकार बनाने को लेकर उधेड़ बुन में रहीं तो उमर अब्दुल्ला और उनके अन्य विरोधी काफी हमलावर रहे. विरोधियों का कहना था कि अगर महबूबा को सरकार बनाने में रुचि नहीं है तो चुनाव का सामना करने के लिए आगे क्यों नहीं आतीं. बीजेपी के सपोर्ट वापस लेने के बाद दबी जबान में भले ये सब हुआ हो, लेकिन वैसी मांग तो नहीं ही उठी है.
जम्मू कश्मीर में पंचायत और नगर निकायों के चुनाव भी होने हैं, लेकिन राज्य के माहौल को देखते हुए कम ही लोग तैयार नजर आ रहे हैं. ये बात अलग है कि कुछ भी कहने के नाम पर कुछ नेता गवर्नर पर चुनाव टालने का आरोप लगाने से बाज नहीं आ रहे.
चुनाव को लेकर जम्मू कश्मीर कुआं-खाई वाली ही हालत बनी हुई है. पिछले साल अप्रैल में श्रीनगर और अनंतनाग लोकसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने वाले थे, लेकिन थक हार कर चुनाव आयोग को अनंतनाग उपचुनाव रद्द ही करना पड़ा. अनंतनाग सीट महबूबा मुफ्ती के ही इस्तीफा देने से खाली हुई थी और अब तक खाली पड़ी है.
होने को तो श्रीनगर में उपचुनाव हुआ लेकिन वोटिंग आठ फीसदी ही हुई और उसी में फारूक अब्दुला सांसद बन गये. ऐसी सूरत में जम्मू-कश्मीर विधान सभा का चुनाव तो कतई मुमकिन नहीं लगता. अब भी विधानसभा का कार्यकाल करीब ढाई साल बचा हुआ है. फिर गवर्नर रूल भी कितने दिन तक खिंचेगा.
जम्मू-कश्मीर के हित में चुनी हुई सरकार बनना ही अच्छा है. ये ठीक है कि बेमेल कहा जाने वाला बीजेपी-पीडीपी गठबंधन नहीं चला, लेकिन उसकी वजह से ऐसी कोशिशें बंद करने का तो मतलब भी नहीं है. क्या पता आम चुनाव नजदीक न होते तो गठबंधन सरकार यूं ही चलती रहती - और बीच बीच में एजेंडा ऑफ अलाएंस पर बात भी होती रहती.
जम्मू कश्मीर के नेताओं के पास फिलहाल मेन एजेंडा धारा 35 A पर जारी बहस है. इसके नाम पर हर कोई अपनी राजनीति चमकाये रखना चाहता है. मामला ये इसलिए भी नाजुक हो जाता है कि इस बहाने से केंद्र की मोदी सरकार पर हमला आसान हो जाता है. वे एक दूसरे के करीब इस बात पर भी आ जाते हैं कि ये वही मोदी सरकार है जिसके मंत्री ने सत्ता संभालते ही बयान दे दिया था कि धारा 370 की समीक्षा होगी - बाद में निजी राय के नाम पर लीपापोती भी हो गयी.
बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन ऐसे में जबकि पाकिस्तान में इमरान खान के नेतृत्व में नयी सरकार बनने जा रही है - जम्मू कश्मीर में भी कोई सरकार बननी ही चाहिये जो पाकिस्तान के खिलाफ, बयानों के बूते ही सही, डटी रहे और केंद्र को भी रिश्ते सुधारने के उपाय खोजने का मौका मिल सके.
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