भागीदारी संकल्प मोर्चा: यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का नया गेम प्लान!
भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल सुभासपा को राजभर समुदाय की राजनीति के लिए जाना जाता है. इस मोर्चा के अन्य सियासी दल भी कमोबेश समुदाय विशेष के वोटों पर ही अपना अधिकार जताते हैं. मोटे तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन सभी दलों का उत्तर प्रदेश की हर सीट पर छोटा ही सही, लेकिन सियासी आधार है.
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उत्तर प्रदेश की राजनीति में इन दिनों 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का बोलबाला अपने चरम पर है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP assembly elections 2022) में नौ महीने से भी कम का समय बचा है. तमाम राजनीतिक दल अपने सियासी समीकरणों को दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं. लेकिन, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर (Om Prakash Rajbhar) ने सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा के सभी समीकरणों को गड़बड़ा दिया है. दरअसल, ओमप्रकाश राजभर ने उत्तर प्रदेश की करीब 10 छोटी राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन करते हुए 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' का निर्माण कर दिया है. AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी भी भागीदारी संकल्प मोर्चा के साथ जुड़ने के साथ ही 100 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की हुंकार भर चुके हैं.
भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल सुभासपा को राजभर समुदाय की राजनीति के लिए जाना जाता है. इस मोर्चा के अन्य सियासी दल भी कमोबेश समुदाय विशेष के वोटों पर ही अपना अधिकार जताते हैं. AIMIM खुलकर मुस्लिम समुदाय की सियासत करने का दंभ भरती रही है. मोटे तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन सभी दलों का उत्तर प्रदेश की हर सीट पर छोटा ही सही, लेकिन सियासी आधार है. भागीदारी संकल्प मोर्चा के ओमप्रकाश राजभर सत्ता में आने पर सूबे की सभी जातियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कह चुके हैं. राजभर ने पांच साल में पांच मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्रियों का फॉर्मूला भी तैयार कर लिया है. लेकिन, कहीं न कहीं ये तमाम कवायद केवल 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का ही हिस्सा लगती है.
ओमप्रकाश राजभर ने पांच साल में पांच मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्रियों का फॉर्मूला भी तैयार कर लिया है. (फोटो साभार/Facbook)
दरअसल, सपा (SP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव घोषणा कर चुके हैं कि वो किसी बड़ी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगे और छोटे दलों को अपने साथ लाएंगे. सपा के साथ फिलहाल जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली आरएलडी का गठबंधन है. हालांकि, अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल यादव के साथ भी सुलह के प्रयास कर रहे हैं. शायद सीट शेयरिंग पर बात नहीं बन पा रही है, सभी शिवपाल सिंह यादव कह रहे हैं कि वह काफी वक्त से अखिलेश से नहीं मिले हैं. वहीं, बसपा सुप्रीमो मायावती भी स्पष्ट कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी. लेकिन, चौंकाते हुए जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' के समर्थन देने की बात कह चुकी हैं. कांग्रेस गठबंधन के लिए सही समय आने के इंतजार में है और फिलहाल 'एकला चलो' की नीति अपनाए हुए है.
भागीदारी संकल्प मोर्चा का प्रेशर पॉलिटिक्स गेम
भागीदारी संकल्प मोर्चा ने अभी तक सपा, बसपा या कांग्रेस के साथ सियासी गठबंधन से इनकार नहीं किया है. इस मोर्चा के दरवाजे सभी राजनीतिक दलों के लिए खुले हुए हैं. बस जरूरत है, तो अदद शानदार 'ऑफर' की. अब ये ऑफर प्रेशर पॉलिटिक्स के सहारे ही मिल सकता है, तो इन दलों ने फिलहाल इसी रणनीति पर चलने का मन बना लिया है. यूपी विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश की राजनीति अभी कई हिचकोले खाएगी, इसका अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नही है. भाजपा के सामने एक-एक सीट पर खुद को मजबूत करने में जुटे विपक्षी दल इन छोटे दलों को चाहते हुए भी नरअंदाज नहीं कर सकते हैं.
एक जुलाई से उत्तर प्रदेश में बहुजन साईकिल यात्रा निकालने वाली आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद 'रावण' (Chandrashekhar Azad Ravan) भी शक्ति प्रदर्शन का ऐलान कर चुके हैं. कयास लगाए जा रहे हैं कि चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी (Azad Samaj Party) का सपा के साथ गठबंधन हो सकता है. चंद्रशेखर आजाद भी भाजपा के खिलाफ बड़ा गठबंधन तैयार करने के हिमायती है. सपा के साथ गठबंधन को लेकर उनकी बातचीत कब तक अपने प्रारब्ध को प्राप्त करेगी, ये समय बताएगा. लेकिन, इतना जरूर कहा जा सकता है कि सपा के तालमेल न बैठ पाने पर चंद्रशेखर आजाद भी भागीदारी संकल्प मोर्चा की राह पकड़ सकते हैं.
आजाद समाज पार्टी जैसे नए सियासी दलों को भागीदारी संकल्प मोर्चा का लाभ मिलना तय है.
दरअसल, जिन छोटे दलों को लेकर सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा अपने सियासी समीकरणों को सुधारने की कोशिशों में लगे हैं. अगर इनमें से किसी भी दल को मिला 'ऑफर' थोड़ा सा भी कमजोर हुआ, तो उनके सामने भागीदारी संकल्प मोर्चा का दरवाजा खुला हुआ है. अगर ऐसा होता है, तो निश्चित तौर पर अभी कमजोर नजर आ रहा ये मोर्चा एक ठीकठाक 'बारगेनिंग' पोजीशन में पहुंच जाएगा. आजाद समाज पार्टी जैसे नए सियासी दलों को इसका लाभ मिलना तय है. अगर तमाम छोटे सियासी दल एक ही जगह इकट्ठा हो जाते हैं, तो 'संगठन में शक्ति' का कहावत चरितार्थ हो सकती है. इस स्थिति में इन दलों से हाथ मिलाने वाले सियासी दल का फायदा होना तय माना जा सकता है.
सभी राजनीतिक दलों को चाहिए छोटे सियासी दलों का साथ
उत्तर प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दलों (सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा) को इन छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत है. भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ थे. योगी सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन पार्टी विरोधी बयानबाजी के चलते सरकार और गठबंधन से बाहर हो गए थे. भाजपा (BJP) की सहयोगी निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद (Sanjay Nishad) भी उत्तर प्रदेश में खुद को उपमुख्यमंत्री बनाने की मांग पर अड़े हुए हैं. कहा जा सकता है कि निषाद पार्टी को अगर सही 'ऑफर' नहीं मिला, तो वो भी भागीदारी संकल्प मोर्चा में शामिल होकर उसकी ताकत बढ़ा सकते हैं. वहीं, केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल में विस्तार की खबरों के बीच अपना दल की अनुप्रिया पटेल भी हाल ही में अमित शाह से मुलाकात की थी. भाजपा फिलहाल इस 'प्रेशर पॉलिटिक्स' गेम से निकलने का प्रयास करती नजर आ रही है.
उत्तर प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दलों (सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा) को इन छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत है
सपा के साथ भी समस्या कुछ ऐसी ही है. सत्ता में वापसी के लिए अखिलेश यादव पूरा जोर लगा रहे हैं कि भाजपा के सामने सबसे मजबूत विकल्प के तौर पर वो सपा को पेश कर सकें. लेकिन, छोटे दलों ने उन्हें पहले से ही टंगड़ी मार दी है. सीधा सा मतलब है कि अगर सपा को इस भागीदारी संकल्प मोर्चा से गठबंधन करना है, तो उनकी शर्ते माननी होंगी और ऐसा करने पर सीधा नुकसान सपा को होगा.
बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में इस मोर्चा को समर्थन देने की बात कहकर एक तरह से दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है. लेकिन, मायावती कह चुकी हैं कि वो गठबंधन नहीं करेंगी, तो माना जा सकता है कि इस मोर्चा के नेताओं को बसपा के टिकट पर ही चुनाव लड़ना पड़ेगा. फिलहाल यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की रेस में कमजोर नजर आ रहीं मायावती इस मोर्चा को अपने साथ लाकर मतदाताओं में खुद को मजबूत विकल्प के तौर पर पेश कर सकती हैं.
कांग्रेस की बात करें, तो पार्टी अभी 'वेट एंड वॉट' की भूमिका में है. जल्द ही कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा लखनऊ में डेरा जमाने वाली हैं. सूबे में फिलहाल कांग्रेस की वर्तमान हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि भागीदारी संकल्प मोर्चा की जरूरत अगर किसी को सबसे ज्यादा है, तो वो कांग्रेस ही है. पार्टी के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद पहले ही प्रियंका गांधी को 'कैप्टन' बताकर सीएम फेस का इशारा दे चुके हैं. हालांकि, यह मुश्किल लगता है. लेकिन, कांग्रेस के साथ लोगों को जोड़ने के लिए काफी है.
कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश की रग-रग में बसी धर्म और जाति की राजनीति को पहचानते हुए ओमप्रकाश राजभर ने भागीदारी संकल्प मोर्चा के रूप में एक बहुत ही सटीक दांव खेला है. पांच मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्रियों का फॉर्मूला बनाने वाले ओमप्रकाश राजभर कहते हैं कि उन्होंने भाजपा से ही यह समीकरण सीखा है. इस स्थिति में भागीदारी संकल्प मोर्चा के 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का ये नया गेम प्लान काफी कारगर नजर आता है.
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