सावरकर हीरो या विलेन? तय करने से पहले पढ़ लीजिए...
वीर सावरकर ने भारत की आजादी के लिए अपार कुर्बानियों दी. लेकिन इसके बावजूद उन्हें आजाद भारत में वो स्वीकार्यता नहीं मिल पाई जिसका वो हकदार थे. उनकी तमाम कुर्बानियां कथित विचारधाराओं की भेंट चढ़ गई.
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महाराष्ट्र चुनाव में बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र में विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न दिलाने का वादा किया है. इसके बाद सावरकर को लेकर चर्चाओं की दौर एक बार फिर से तेज हो गई है. दरअसल, सावरकर को लेकर भारत में दो तरह के मत हैं. एक मत के मुताबिक सावरकर देश के महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी हैं. बुनियादी अंतर के बवाजूद उनके समर्थक उन्हें महात्मा गांधी के समानांतर का स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं. जबकि दूसरा मत है जो सावरकर को एक विलेन के तौर पर देखता है. वो सावरकर को कायर और अंग्रेजों का एजेंट करार देता है. जिसको लेकर राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में हमेशा विवाद और बहस का वातावरण बना रहता है. तो आइये समझते हैं कि सावरकर को लेकर इतना विवाद क्यों है? क्यों एक क्रांतिकारी को उसके हक का सम्मान देने का विरोध होता है?
देश के मद्देनजर सावरकर की भूमिका पर एक बार फिर राजनीति तेज हो गई है
सावरकर के माफीनामे पर गांधी की क्लिनचिट
सबसे पहले उस मामले पर महात्मा गांधी का विचार जान लीजिए, जिसको लेकर सावरकर को सबसे ज्यादा क्रिटिसाइज किया जाता है. ये मुद्दा है अंग्रेजों से माफी मांगने का. इस मामले पर गांधी जी ने सावरकर को 'चतुर' बताते हुए कहा था कि 'उन्होंने (सावरकर ने) स्थिति का लाभ उठाते हुए क्षमादान की मांग की थी, जो उस दौरान देश के अधिकांश क्रांतिकारियों और राजनीतिक कैदियों को मिल भी गई थी. सावरकर जेल के बाहर रहकर देश की आजादी के लिए जो कर सकते थे वो जेल के अंदर रहकर नहीं कर पाते.'
गांधी जी के इस कथन से इतना तो साफ है कि सावरकर अंग्रेजों के सामने झुके नहीं थे, बल्कि आगे की लड़ाई के लिए चतुराई दिखाई थी. खैर, बात करते हैं सावरकर से जुड़े तमाम पहलुओं की जो उनपर राय बनाने से पहले जानना जरूरी है.
कायर होते तो सावरकर ये वीरता क्यों दिखाते?
सावरकर को साल 1910 में नासिक के कलेक्टर की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया था. 'एसएस मौर्य' नाम के पानी के जहाज से उन्हें भारत लाया जा रहा था. जब वो जहाज़ फ्रांस के मार्से बंदरगाह पर पहुंचने वाला था तो सावरकर जहाज के शौचालय के 'पोर्ट होल' से बीच समुद्र में कूद गए. इस दौरान सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोलियां भी चलाईं, लेकिन वो बच निकले. हालांकि, समुद्री तट से आधे किलोमीटर की दूरी तक भागने के बाद वो फिर से पकड़े गए.
फ्रांस की भूमि में पकड़े जाने पर सावरकर पर अधिकार को लेकर मामला हेग अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भी पहुंचा. पहले तो ब्रिटेन और फ्रांस के बीच उनकी गिरफ्तारी को लेकर काफी विवाद हुआ. लेकिन बाद में दोनों देशों ने संधि कर ली. जिसके बाद अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने ब्रिटेन के हक में फैसला सुनाया. इस घटना की पूरी दुनिया में निंदा हुई. खुद फ्रांस में इसके खिलाफ इतने विरोध प्रदर्शन हुए कि वहां के प्रधानमंत्री ब्रियांडा को इस्तीफा देना पड़ा.
भाजपा का तर्क है कि सावरकर ने तमाम तरह की यातनाओं का सामना किया है
क्या कालापानी के नर्क को नियति मान लेते सावरकर?
इधर सावरकर को भारत लाया गया, जहां कोर्ट से उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं. सजा काटने के लिए भारत से दूर अंडमान यानी 'काला पानी' भेज दिया गया. उन्हें सेल्युलर जेल में 13.5/7.5 फीट की घनी अंधेरी कोठरी में रखा गया. वहां जेल में सावरकर के जीवन का जिक्र करते हुए आशुतोष देशमुख लिखते हैं कि 'अंडमान में सरकारी अफसर बग्घी में चलते थे और सावरकर समेत तमाम कैदियों को इन बग्घियों को खींचना पड़ता था. जब कैदी बग्घियों को खींचने में लड़खड़ा जाते थे तो उन्हें चाबुक से पीटा जाता था. कैदियों को कोल्हू चलाकर तेल भी निकालना पड़ता था.
देशमुख आगे लिखते हैं कि 'टॉयलेट में भीड़ होने के कारण कभी-कभी कैदी को जेल के अपने कमरे के एक कोने में ही मल त्यागना पड़ता था. कभी कभी कैदियों को खड़े खड़े ही हथकड़ियां और बेड़ियां पहनने की सजा दी जाती थी. उस दशा में उन्हें खड़े-खड़े ही शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ता था. उल्टी करने के दौरान भी उन्हें बैठने की इजाजत नहीं थी.'
सावरकर का माफीनामा एक रणनीति
काफी समय तक यातनाओं की दौर से गुजरते हुए सावरकर ने एक रणनीति बनाई. उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगने का मन बना लिया. इसके लिए उन्होंने अंग्रेज हुकूमत को 6 बार चिट्ठियां लिखी. कानून के मुताबिक कैदियों के अच्छे व्यवहार को देखते हुए उन्हें कुछ शर्तों पर रिहा भी किया जाता है. इसका लाभ उस दौरान कई राजनीतिक कैदियों को मिला. सावरकर के भी तमाम अच्छे व्यवहार को देखते हुए उन्हें 1924 में रिहा कर दिया गया. पर इसमें दो शर्ते लगाई गई. पहला- वो किसी राजनीतिक क्रियकलाप में शामिल नहीं होंगे. दूसरा- वो रत्नागिरि के जिला कलेक्टर की अनुमति लिए बिना जिले से बाहर नहीं जाएंगे.
इस मामले पर इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय का कहना है कि, सावरकर कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है. उनके मुताबिक सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे.
सावरकर को लेकर आयोजित एक प्रोग्राम में अमित शाह
सावरकर का हिंदू और हिंदुत्व
अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. किताब के मुताबिक इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है. इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो.
महात्मा गांधी की हत्या में शामिल होने के आरोप से भी हुए बरी
सावरकर की छवि को उस समय बहुत धक्का लगा जब 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि नाथूराम गोडसे और उनके विचारों में कई समानताएं थी और गोडसे भी पहले हिंदू महासभा से जुड़ा हुआ था. लेकिन 1949 में सावरकर को गांधी जी की हत्या में शामिल होने का आरोप बेबुनियाद साबित हुआ और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया गया.
अदालत से बरी हो जाने के बावजूद गांधी जी की हत्या में शामिल होने का महज आरोप ने ही गोडसे के बाद उन्हें आजाद भारत का सबसे बड़ा विलेन बना दिया. आजादी के बाद बेहद एकांकी जीवन बिताते हुए 1966 में उनकी मृत्यू हो गई. इसके बाद सावरकर की विरासत को अंधकार डाल दिया गया.
गांधी और सावरकर की विचारधारा का संयोग
लेकिन फिर एक वक्त आया जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उनके हक का सम्मान उन्हें देने की कवायद शुरू हुई. इसी के मद्देनजर कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के तमाम विरोध के बावजूद संसद में उनकी तस्वीर लगाई गई. लेकिन संयोग देखिए, संसद के सेंट्रल हॉल में भी गांधी और सावरकर की तस्वीर ठीक एक दूसरे के सामने दीवार पर लगी है. और जब आप सावरकर को सम्मान देने पहुंचते हैं तो संयोगवश आपकी पीठ गांधी जी की तरफ मुड़ जाती है.
कुछ ऐसा ही समीकरण बना दिया गया है दोनों महान स्वतंत्रता सेनानियों के मामले में. मसलन, आप सावरकर को सम्मान देते हैं तो आपको गांधी की विचारधारा की तरफ पीठ घुमानी पड़ जाती है. अगर आप गांधी को स्वीकारते हैं तो आपको सावरकर की विचारधारा को नकारना पड़ता है.
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